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यादों के अवशेष: सूक्ष्मतम अभिव्यक्तियों की अनुभूतियों का आनंद!

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WD Feature Desk

, सोमवार, 30 दिसंबर 2024 (15:14 IST)
“यादें जीवन के शीतकाल की वह गुनगुनी धूप है जिसमें बैठे रहने का मन करता है। यादें वर्षा काल की वह प्रथम फुहारें हैं जिनमें भीग कर मन सोंधी सुवास से सुवासित हो जाता है।” -राकेश राणा। जीवन का आनंद बड़ी-बड़ी बातों में नहीं बल्कि छोटी-छोटी खुशियों में है, यह संदेश देती एक पुस्तक ‘यादों के अवशेष’ पढ़ने में आयी। यादों के अवशेष माने सूक्ष्मतम अभिव्यक्तियों की अनुभूतियों का आनंद! 
 
चाय, दरी, ओटला, भंडारा, रोटी, दूध, पादत्राण, साइकिल, कटोरी जैसे मामूली विषयों का असाधारण विवेचना, सामाजिक से लेकर आध्यात्मिक पुट लिये हुए! अमूमन जब हम कोई किताब पढ़ते हैं और उसके बारे में कुछ लिखते हैं, तो उसमें निहित लेखों की चुनिंदा पंक्तियाँ हमारी समीक्षा का आधार होती हैं। ‘यादों के अवशेष’ में मजेदार बात यह है कि हर पंक्ति चुनिंदा है!
 
हर पंक्ति अपने आप में एक कहानी है! आप क्या चुनेंगे और क्या छोड़ेंगे? मानो आप किसी प्राकृतिक स्थल की यात्रा कर रहे हैं और आपको समझ नहीं आ रहा है कि आप कैमरे में क्या कैद कर लें और क्या छोड़ दें। क्योंकि हर तरफ प्रकृति की सुंदरता बिखरी हुई है। और फिर आप सोचते हैं कि कैमरे जैसी भौतिक वस्तु में समय गंवाने की अपेक्षा ये सारी सुंदरता अपनी आँखों में भर कर, मन-मस्तिष्क में उतार कर चिरकाल तक अनंत रखें…!
 
बस ऐसी ही कुछ अनुभूति मुझे यह किताब पढ़ते समय हुई कि इस पुस्तक पर सोच कर समीक्षा लिखने की अपेक्षा बस मैं इसे पढ़ती चली जाऊँ और इस सहज-सरल अनुभूति को अपने मन-मस्तिष्क में कहीं संग्रहित करके रख लूँ। क्योंकि राकेश राणा जैसे वरिष्ठ लेखक के लेखन पर समीक्षा करने के लिए अभी लंबा सफर तय करना होगा। उनकी भाषा में जो प्रभाव एवं प्रवाह है, उसे शब्दों में साझा करना असंभव है! लेकिन फिर भी, अब मैंने इतना कह दिया है, तो पाठकों के मन में भी जिज्ञासा तो होगी कि आखिर इस किताब में ऐसा क्या है? तो मैं कुछ पंक्तियों के माध्यम से किताब के बारे में लिखना चाहूँगी लेकिन यह समीक्षा कतई नहीं है।
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यह किताब एक सफ़र है अतीत की भूली-बिसरी यादों का…कुछ अनुभवों का…कुछ ऐसी वस्तुओं का जो कभी हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा हुआ करती थीं लेकिन समय के चलते विलुप्त हो गयीं हैं। कुछ चीजें बाकी हैं, लेकिन उनसे जुड़ी भावनाएं बदल गई हैं…. “यह ललित गद्य पाठकों को बहुत कुछ देते हैं” शीर्षक के साथ पुस्तक की सुदीर्घ प्रस्तावना प्रसिद्ध लेखक, विचारक श्री दिलीप कर्पे ने लिखी है। इसके बाद शुरू होता है शब्दों का तिलिस्म!
 
“अमृत पेय चाय” में लेखक लिखते हैं, “चाय तक का नहीं पूछा। महत्ता का यह प्रमाण पत्र चाय को छोड़कर किसी और पेय पदार्थ के पास नहीं है।” जीवन के हर क्षेत्र में चाय के महत्व को बहुत ही खूबसूरती के साथ दिखाया है जैसे एक वाक्य है,
“गम़ी और शोक में दिवंगत की अच्छाइयों को धीर- गंभीर लहजे में घूंट-घूंट वर्णित करती है।”
“नहीं रही दरी” में, “दरी घर की संपन्नता का परिचय प्रतीक थी तो गादी समृद्धि का इजहार।” दरी जैसी अति सामान्य वस्तु का इतना सुंदर वर्णन, उसके प्रकार, उस पर बैठने की मुद्राएं, बस वाह!
 
“ओटले के सुख-दुख” में ओटले को नन्हे-मुन्नों का स्टेडियम, न्यूज़ को प्रसारित करने वाला स्टूडियो, निंदा पुराण करने का मुफीद स्थान और थक हार कर बैठे बीड़ी फुकने की सबसे माफिक जगह जैसे विशेषणों से नवाजा गया है। लेखक कहते हैं, “यह ओटला पल भर में कभी किसी को सुयश किसी को अपयश दे देता था।” भंडारा हम सभी ने जीमा है लेकिन लेखक ने इसे जिया है। लेखक कहते हैं कि भंडारे के आगे जब ‘विशाल’ लग जाता है तो यह ‘विशाल’ शब्द ही भंडारे का सामाजिक ऊर्जा प्रदाता पक्ष है। एक भंडारे का ‘लाईव वर्णन’ इस लेख में आपको पढ़ने को मिलेगा जो आनंद दे जाएगा।
 
“दूध जैसे फटे लोग” जबरदस्त और सटीक लेखन!
“रोटी रूठा मत करो” में “रोटी कमाना सद्गुण है, रोटी बनाना एक कला है और रोटी पकाना एक विज्ञान है।”
“बब्बु कलई वाला”..कलाई करना क्या होता है, कैसे होती है, उसका इतना बढ़िया आँखों देखा वर्णन! हमारी आज की पीढ़ी वाले लोगों के लिए यह बहुत ही नई और अलग बात है! हमनें यह प्रक्रिया इस पुस्तक में ही “देखी”।
इसके अलावा “आधुनिक कल्पवास”, “हाथी जैसी मशीन, शेर जैसी आवाज”, “हमें सूतक नहीं लगता”, “खिड़की खुली रहे”, “दुसरे दिन वो भूल जाते हैं” जैसे शीर्षकों की विस्तार से जानकारी देकर मैं पुस्तक की रोचकता कम नहीं करना चाहती।
 
पुस्तक में कुल २० लेख हैं, चाहें तो आप एक दिन में पढ़ सकते हैं। लेकिन यदि मुझ जैसे पाठक की सलाह माने तो आप एक दिन में सिर्फ एक लेख पढ़ें और उसे अंदर तक महसूस करें। कुछ समय अतीत में घूम कर आएँ। अंत में, मुझे जो लेख सबसे अधिक पसंद आया और मेरे पलकों की कोरें भिगो गया, वह है, शीर्षक लेख “यादों के अवशेष” लेखक ने बचपन की एक शालेय स्मृति का बहुत ही रोचक, मर्मस्पर्शी और मासूमियत से भरा वर्णन किया है।
 
“कुछ भूली-बिसरी यादों का कभी-कभी पुनरावर्तन अनायास तब हो जाता है, जब अतीत के पन्ने समय की समीर से फड़फड़ा जाते हैं।” लेखक कहते हैं कि “यादें मरती नहीं मार डालती हैं। किसी ने सच कहा है की यादें, सपने और परछाई हमेशा साथ रहती हैं।” आगे वे यह भी कहते हैं कि “याद आना, याद रहना और याद रखना यह तीनों कर्म हम सप्रयास नहीं करते बल्कि यह अनायास हमसे होते रहते हैं।” “शायद इसलिए कि आखिरकार वह एक लड़की थी” ये अंतिम पंक्तियाँ तो दिल को छू गईं। पुस्तक के अंतिम लेख में लेखक ने लिखा है कि “समय अपनी गोद में ‘परिवर्तन’ को पोषित करता है।” सच ही है! और यही वजह है शायद, कि कोई लेखक इस तरह से उस ‘परिवर्तन’ को अपनी लेखनी की ताकत से शब्दबद्ध करता है! राकेश राणा की यह लेखनी अविरत चलती रहे और पाठकों को आनंद की अनुभूति मिलती रहे। 
 
यह पुस्तक शॉपिज़न एवं अमेजॉन पर उपलब्ध है। अवश्य पढ़ें, अपने साथियों को भेंट स्वरूप दें और आज की इस आपाधापी की दुनिया से कुछ क्षण चुरा कर यादों के अवशेष समेट कर सहेज लें।

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