- प्रदीप कान्त
ये जो चमकीला दिख रहा है इसके पीछे कितना धूसर है, इस बात को समझने वाले ये शायर हैं रवि खण्डेलवाल जिनका एक ग़ज़ल संग्रह आया है "तज कर चुप्पी हल्ला बोल"। इस संग्रह में 108 ग़ज़लें हैं। इन ग़ज़लों के ज़्यादातर शेर हमारे समय, समाज और व्यवस्था से मुठभेड़ करते हैं। आज की ग़ज़ल वैसे भी समय और समाज की ग़ज़ल हो गई है जो अपने समय के नायकों, खलनायकों और तथाकथित रहनुमाओं को बेनक़ाब करती है-
सर के बल हमको खड़ा करके सियासी
लो नया आकाश दिखलाने लगे हैं
या फिर
हसरतों के वास्ते, ख़ुद क़ायदे-आज़म
चल रहे बे-क़ायदे, ख़ुद क़ायदे-आज़म
एक तरफ़ ऐसे तथाकथित रहनुमा जो वहाँ रोशनी दिखाने की बात करते हैं जहॉं घना अंधेरा होता है तो दूसरी तरफ़ वे जिन्हें फ़िक्र ही नहीं। वो कहते हैं कि वो पहरा दे रहे हैं लेकिन वे तो गहरी और आरामदायक नींद ले रहे हैं -
बेच कर सोए हैं घोड़े
वो कि जिनको जागना है
हमारा चरित्र अब दुहरा हो गया है, हम कहते कुछ और हैं और करते कुछ और। और बात यह है कि हम जानते भी हैं कि हम क्या कर रहे हैं लेकिन या तो हम भ्रमित हैं या चालाक -
वो खा रहे हैं एकता की क़समें बारहा
हाथों में जिनके अपने-अपने इश्तहार हैं
वैसे तो बदलाव व्यक्ति में भी होता है और समाज में भी और समय के साथ यह ज़रूरी भी है। लेकिन जो बदलाव हो उसका सकारात्मक होना ज़रूरी है। यदि वो बदलाव सकारात्मक नहीं तो क्यों और कैसे का सवाल तो उठता है और उन सवालों का इशारा किधर किधर हो सकता है यह तो पाठक को समझना चाहिये -
आप को मालूम नहीं है आप कैसे हो गए
आप जैसे थे नहीं, हाँ आप वैसे हो गए
दौड़ते हैं हर किसी को काट खाने के लिए
आप तो अच्छे भले थे ऐसे कैसे हो गए
समस्या यह है कि हमें समस्या अक्सर दिखती नहीं। दिखे भी कैसे? यह वक्त चकाचौंध का है जो आपकी आँखों की बीनाई पर हमला कर रहा है। सब ओर अमृत बरस रहा है और यह तो चखने के बाद ही समझ आएगा कि अमृत है कि नहीं लेकिन शायर पहले से ही समझता है -
अमृत का लेबल चिपका कर
बोतल में विष भर लाए हैं
अब ऐसा तो नहीं कि आम आदमी को सब कुछ हरा हरा यानी अच्छा समय ही दिखता है। उसे भी कुछ तो नज़र आता है पर वो किसी कविता या कहानी में नहीं ढल पाता। वहीं शायर के पास एक प्रश्नवाचक दृष्टि होती है जो शायरी के लहजे में पूछती है -
आम लोगों के लिए अब सोचने की बात है
हुक्मरानो के क़दम मुस्तैद कैसे हो गए
और जब यह सवाल उठेगा तो इसका जवाब भी ढूंढना होगा ताकि पर्दे के पीछे जो हो रहा है और जो कर रहा है उसे बेनक़ाब किया जा सके। अब यह ग़लत हो ही क्यों रहा है उसका जवाब खोजने की प्रक्रिया निश्चय ही ज़रूरी है लेकिन उस से पहले समय रहते उसे रोकना ज़रूरी है -
बाद में पड़ताल करना
आग को पहले बुझालो
अब अगर यह सोच ही ना हो कि ग़लत को रोका जाए तो हम किसी भी समाज के उन्नयन की बात भी कैसे कर सकते हैं। जैसे जवानी की ताक़त बहुत अच्छी है लेकिन जब यही ताक़त अपराधों में लिप्त हो जाए तो आगे की पीढ़ी की कौनसी दिशा तय होगी और कौनसा उन्नयन होगा। इसके लिए समन्दर एक प्रतीक बन कर आता है क्योंकि समन्दर जब तक शांत है मनोरम है लेकिन सामुद्रिक तूफान आ जाए तो देश के देश नष्ट हो सकते हैं -
जब उफन के आई तो टापू के टापू खा गई
ऐ समन्दर हमने तेरी भी जवानी देख ली
इसलिए सब कुछ देखते और जान बुझ कर भी आप चुप होकर नहीं बैठ सकते जैसे कि परेशान होकर शायर कह रहा है -
कह लो जितना कहना है
आगे चुप ही रहना है
लेकिन शायर चुप नहीं रहना चाहता, रहना भी नहीं चाहिए। जब शायर या कवि चुप चाप हो जाए तो बोलेगा कौन। इसलिए वे मुझे होकर कहते हैं-
तज कर चुप्पी हल्ला बोल
कस कर मुट्ठी हल्ला बोल
दोस्त नहीं ये दुश्मन है
कर के कुट्टी हल्ला बोल
आज जब 21 वीं सदी है तो हमारे समाज की बहुत सी चीजें परिवर्तित हुई हैं जिनमें से एक बेहद महत्वपूर्ण है संयुक्त परिवारों का विघटन। हालांकि इसका एक कारण भी है नौकरी के लिए युवाओं का दूर दूर के मेट्रो शहरों में जाना और यह तो वाजिब भी है। लेकिन दिक्कत यह है कि आज परिवार के ज़्यादातर लोग साथ में रहना ही नहीं चाहते। यहां मनका और माला बेहतरीन प्रतीकों के रूप में आते हैं -
आज बिखरने को आतुर हैं माला के वे ही मनके
जिनको नामालूम अकेलेपन का दुख क्या होता है
और इस शेर को वर्ग संघर्ष और साम्प्रदायिकता आदि के संदर्भ में भी विस्तारित किया जा सकता है।
एक विडंबना यह है कि हम विरोधाभासों के साथ जीते हैं और सबके अपने अपने विरोधाभास हैं। देश के लिए अनुशासन जरूरी है पर जिन्हे अनुशासन बनाए रखने की जिम्मेदारी सौंपी गई है वे कितने अनुशासित हैं? हम पूजा करते हैं लेकिन हमारी पूजा को जो जस्टिफाई करे ऐसा तो कोई कार्य करते नहीं। काँच का घर बनाते हैं पर दूसरे का घर काँच का हो तो उस पर पत्थर मारने में नहीं झिझकते। इसलिए शायर की सोच इस से आगे काँच के मंदिर में स्थापित पत्थर की मूरत तक जाती है -
काँच का मंदिर बना है
और पत्थर पूजना है
अब ऐसा नहीं है कि शायर को केवल बुद्धिजीवियों की दृष्टि में ही समझदारी नज़र आती है। उसे पता है कि जब चार लोग बैठेंगे तो एकमत होना मुश्किल है। इसलिए वह बुद्धिजीवियों को भी लपेटता है -
बुद्धिजीवी चार बैठे हों जहाँ
एक से उद्गार पाना है कठिन
रवि खंडेलवाल की गजलों की भाषा सहज है, ना क्लिष्ट हिन्दी ना मुश्किल उर्दू -
बाजुओं को आप भी झकझोर लेना
आस्तीं के साँप मंडराने लगे हैं
पश्चिमी तालीम के पेशे नज़र अब
घर का मुखिया घर का कोना हो गया है
ज़िन्दगी एक ऐसी ग़ज़ल दोस्तो
जिसमें सब कुछ मगर क़ाफ़िया ही नहीं
है एक दिन तो खंडहर में बदलेगा यारो
ये मजबूत सा दिख रहा जो क़िला है
हाथों में जिनके हमने सौंपी हैं चाबियाँ ही
चटका रहे हैं ताले दरबान इस सदी के
बहरहाल, इन गजलों में अपने समय और समाज को लेकर बहुत सी चिंताएं हैं और यह अपने लिखे जाने के उद्देश्य को लेकर हमें आश्वस्त करती हैं-
ये जो गूंगे दिख रहे हैं गुनगनाएँगे ज़रूर
पंछियों को डाल पर स्वच्छंद हो गाने तो दो
तज कर चुप्पी हल्ला बोल (ग़ज़ल संग्रह)
लेखक: रवि खण्डेलवाल
प्रकाशक: श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली-110041
मूल्य: 160 रुपए
पृष्ठ संख्या: 128