समीक्षक- पंडित सुरेश नीरव
'लोक-लय' हिन्दी की लोकप्रिय लेखिका और कवयित्री तृप्ति मिश्रा का पुस्तक रूप में उन पारंपरिक लोक गीतों का मधुर संचयन है, जो हमारे लोक मानस की अमूल्य धरोहर हैं। मगर जो आधुनिकता के आक्रमण से आज लुप्तप्राय होते जा रहे हैं। इस दिशा में निश्चित ही तृप्ति मिश्रा ने एक उपयोगी, उल्लेखनीय और बेहद जरूरी काम किया है।
यदि इस संग्रह की व्याप्ति और निहितार्थ को समझना हो तो हमें थोड़ा गहराई में उतरना होगा। अब संग्रह के शीर्षक को ही लें तो 'लोक-लय' जो वाक्य है वह पढ़ने-सुनने में जितना सहज लगता है, उतना है नहीं क्योंकि इसकी व्याप्ति बहुत व्यापक है। क्योंकि जहां लोक का अर्थ संसार और समाज है वहीं लोक का अर्थ अवलोकन यानी देखना भी होता है और इसी तरह लय का अर्थ जहां विश्राम-स्थल, आवास और संगीत की द्रुत, मध्य और विलंबित लय है वहीं यह लय मन की एकाग्रता भी बन जाता है और अदर्शन की अनन्य भक्ति भी। फिर यही लय किसी चीज का विघटन और विनाश भी बन जाता है।
इसी लय से विलय और प्रलय है और यही लय किसलय बन कर पल्लव और कोंपल भी बन जाती है। इन अर्थों में तृप्ति मिश्रा की यह कृति 'लोक-लय' लोक के आलोक का ऐसा लयात्मक अवलोकन है, जहां भक्ति के ललित लय में लोक का संगीत भजन के रूप में निवास करता है। निश्चित ही इस कृति को परंपरा तथा अतीत की लुप्त-विलुप्त हो रही अद्भुत लोक धरोहर को वर्तमान के प्रांगण में सजाने-संवारने का एक ऐसा महती सारस्वत अनुष्ठान माना जा सकता है, जिसका कि समय सापेक्ष मूल्यांकन निश्चित ही आज नहीं तो कल जरूर किया ही जाएगा।
इस संकलन में 'लाचारी' 'लंगूरा', राम, कृष्ण, शिव व अन्य देवी-देवताओं के साथ अनेक निर्गुण भजन भी शामिल हैं। भाषाई विविधता लिए यह पुस्तक भारतीय संस्कृति के विभिन्न आयामों को प्रस्तुत करती है। जिसमें भोजपुरी, बुंदेलखंडी, हिन्दी, मालवी, राजस्थानी आदि भाषाओं के पुरातन भक्तिगीत समाहित हैं। इसी के साथ, लेखिका ने संकलन में अनेक गीत ऐसे लिए हैं जो स्वयं अपने आप में गीत ना होकर संपूर्ण पौराणिक प्रसंग हैं। विशेष बात यह है कि हर गीत के साथ उसका साहित्य और उसका प्रसंग भी समझाया गया है, जिससे गीत को समझने में आसानी होती है। जैसे-
'सतघट नदिया विकटवा की धारा कैसे गउयें उतरे पार हो माय' (पेज 16) में कजली वन में चरने वाले गाय-बछड़े की कथा पर आधारित है।
उसी तरह शंकर जी द्वारा बाल कृष्ण के मोहक रूप के दर्शन करने के प्रसंग पर आधारित 'देख सखी एक बाला जोगी द्वार हमारे आया है' (पेज 70) ऐसे अनेक गीत हैं जो शुरू से आखिर तक रोचकता बनाए रखते हैं, इस संग्रह में समाहित हैं। इसके अलावा
- जगदम्बे को श्रीराम का निमंत्रण (पेज 13)
- देवी और धोबिन की कथा (पेज 20)
- द्रौपदी चीर हरण (पृष्ठ संख्या 87)
- नाग नाथन का प्रसंग (पृष्ठ संख्या 94)
- सोने का हिरण प्रसंग (पृष्ठ संख्या 112)
आदि अनेक गीत, जो अनुपम हैं और इन्हें सहेज कर लेखिका ने एक महत्वपूर्ण और पुनीत कार्य कर दिया है। इसके अलावा अन्य देवी-देवताओं के सुंदर भजनों को इसमें समाहित किया गया है। जैसे 'किशोरी झूले झूलना झुलावैं बनवारी' (पृष्ठ संख्या 92)
'मेरे मोहन तेरा मुस्कुराना भूल जाने के काबिल नहीं है' (पृष्ठ संख्या 169) आदि अनेक सुंदर गीत लिए हैं। निर्गुण भजन भी इसमें शामिल किए गए हैं जिनमें निराकार प्रभु की भक्ति की जाती है।
- मन धीर धरो घबराओ नहीं (पृष्ठ संख्या 156)
- भजन बिना जल जइयो ऐसो जिवना (पृष्ठ संख्या 159)
- हरिनाम से परिवर्तन होगा रे मन जरा धीर धरो (पृष्ठ संख्या 163)
- घूंटी पी ले हरिनाम वाली घोल-घोल के (166)
आदि अनेक गीत जिनमें निराकार प्रभु की भक्ति शामिल है। पुस्तक के साथ अपने यू ट्यूब चैंनल में इनकी मूल धुनों को, ढोलक की धुन पर मधुर गायन के साथ सहेजकर, लेखिका ने इन गीतों को आने वाली पीढ़ियों को एक अप्रतिम उपहार दिया है।
वास्तव में 'लोक-लय' 70 लुप्तप्रायः गीतों का एक अनूठा संकलन है। नए गीतों की अनेक किताबे आ रही हैं पर पुराने मधुर ढोलक वाले गीत अब विरले ही सुनने को मिलते हैं। अगर कहीं गीत के बोल मिल भी जाते हैं तो सही लय के बिना इन गीतों को गाना मुमकिन नहीं हो पाता।
इन सभी गीतों की लय को भी लेखिका ने अपने यू ट्यूब चैनल 'सृजन Trupti Mishra' के माध्यम से सहेजकर, पीढ़ियों के लिए सुरक्षित कर दिया है। जो एक अनुपम प्रयास है। कुल मिलाकर इस पुस्तक को लोक गीतों का एक जागृत संगीत-कोश कहा जा सकता है। जिसे निश्चित ही पाठक अपने संग्रह में संभाल कर रखना चाहेंगे।
* पुस्तक- लोक-लय
* लेखिका- तृप्ति मिश्रा
* प्रकाशन- डायमंड प्रकाशन