Dharma Sangrah

Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia

खिड़कियों से झांकती आंखें: सौंधी सी महक से भर जाती हैं कहानियां

Advertiesment
हमें फॉलो करें Sudha om dhingra
, शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2020 (12:27 IST)
समीक्षा: डॉ. सीमा शर्मा

'खिड़कियों से झांकती आंखें' सुधा ओम ढींगरा का सातवां कहानी संग्रह है। इन सभी कहानी संग्रहों को पढ़ने के बाद स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि आपकी कहानियां भारत और अमेरिका के बीच एक ऐसे पुल का निर्माण करती हैं, जिस पर चलकर आप इन दोनों देशों के सामाजिक और सांस्कृतिक ताने-बाने बहुत बारीकी से समझ सकते हैं। आप चीज़ों को व्यापक परिदृश्य में देखते हैं और इस प्रक्रिया में आपके कई पूर्वाग्रह ध्वस्त हो जाते हैं। यह प्रक्रिया किसी एक कहानी में नहीं बल्कि कहानी-दर-कहानी चलती रहती है। समीक्ष्य संग्रह की पहली कहानी 'खिड़कियों से झांकती आंखें' से लेकर अंतिम कहानी 'एक नई दिशा' तक आते-आते आपकी धारणा और अधिक पक्की होती जाती है।

संग्रह की प्रतिनिधि और प्रथम कहानी 'खिड़कियों से झांकती आंखें' अत्यंत संवेदनशील है। इस कहानी में 'आंखें' प्रतीक हैं, उन वृद्धों की, जिनकी संतानें सफलता की राह पर आगे बढ़ गईं और ये बहुत पीछे छूट गए। अब ये 'आंखें' स्नेह एवं प्रेम की एक किरण जहां दिखाई दे उसी से चिपक जाना चाहती हैं, लेकिन यही 'आंखें' कथा नायक डॉ. मलिक को असहज कर देती हैं क्योंकि वह इनकी सच्चाई नहीं जानता।

डॉ. खान उसे इनकी सच्चाई बताते हुए कहता है -"यंग मैन, इन आंखों से डरने की ज़रूरत नहीं ,इनको दोस्ती का चश्मा चाहिए, पहना दो, चिपकना बंद कर देंगी। डॉ. मलिक को बहुत जल्दी ये बात समझ आ जाती है और वह कहता है- "मैं जान गया कि सहारे को तलाशती ये आंखें किसी भी अजनबी में अपनापन ढूंढ़ने लगाती हैं।

इस कहानी में कई आयाम हैं। एक ओर अपनी जड़ों से कटकर स्वयं को कहीं और स्थापित करना। अपनी जड़ें ज़माने और वहीं रच-बस जाने के बाद आप ही की तरह आपकी अगली पीढ़ी कहीं किसी देश में अपनी दुनिया बसा लेती है। अब आप नितांत अकेले हो जाते हैं, इसलिए एक बार पुनः अपने देश लौटने की चाह उत्पन्न होना स्वाभाविक है लेकिन तब वहां आपके पास कोई स्थान शेष नहीं रह जाता। यह ऐसा ही है जैसे किसी पौधे को निकाल कर कहीं और रोप दिया जाये तो कुछ समय के बाद वहां उस पौधे के लिए कोई स्थान शेष नहीं रह जाता। ऐसा भी हो सकता है कि उस पौधे के स्थान पर कोई और पौधा उगे एवं वृक्ष बन जाए।

"डॉ. मलिक देश की धरती में लगे पौधे को उखाड़कर हमने विदेश की धरती में बो दिया। पहले पहल उसे बहुत मुश्किलों का सामना करना पढ़ा, फिर धरती और पौधे दोनों ने एक दूसरे को स्वीकार कर लिया"

"जब पौधा वृक्ष बन गया तो हमने उसे उखाड़ कर फिर पुरानी धरती में लगाने ले गए। जिन रिश्तों के लिए पौधा विदेश में वृक्ष बना, उन्हीं रिश्तों ने स्वार्थ की ऐसी आंधी चलाई की वृक्ष के सारे पत्ते झड़ गए, टुंड-मुंड हो गया वह। पुरानी धरती और टुंड-मुंड हुए वृक्ष, दोनों ने एक दूसरे को स्वीकार नहीं किया और रोप दिया हमने विदेश की धरती पर वह वृक्ष एक बार फिर। इस धरती ने उसे पहचान लिया और सीने से लगा लिया।

सुधा ओम ढींगरा की कहानियों में यह बात बार-बार उभर कर सामने आती है कि स्वदेश में रहने से सब बहुत अच्छे और विदेश में रहने से बुरे नहीं बन जाते। न ही उन संस्कारों को भूलते हैं जो उन्हें परिवार और समाज से मिले और जो भूल जाते हैं या स्वार्थी बन जाते हैं, ऐसे अपवाद कहीं भी हो सकते हैं। किसी के व्यक्तित्त्व निर्माण में देश विशेष का प्रभाव तो अवश्यंभावी है, लेकिन और भी अनेक कारक हो सकते हैं। समीक्ष्य संग्रह की दूसरी कहानी 'वसूली' में ऐसे ही एक विषय को उठाया गया है। 'वसूली' कहानी सत्तर के दशक से नब्बे के दशक तक जाती है, इसमें लेखिका ने हरि और सुलभा के माध्यम से दिखाने का प्रयास किया है कि प्रवासी भारतीय; अपनी भारतीयता, देश और परिवार से कितना लगाव रखते हैं, जबकि भारत में रहने वाले कितने भारतीय ऐसे हैं जिन के लिए उनका स्वार्थ सर्वोपरि है।

शंकर और उमा को उस मनोवृत्ति के प्रतीक के रूप में देखा जा सकता है। हरि मोहन अमेरिका में रहकर भी अपने परिवार को सुखी और प्रसन्न देखना चाहता है। विदेश जाकर बसने के पीछे भी यही कारण था लेकिन हरि के लिए जो सच्चाई थी, शंकर के लिए वह निरी भावुकता। शंकर के शब्दों में" हरि, तुम शुरू से ही भावुक थे, विदेश जाकर तो भावनात्मक बेवकूफ बन गए हो। "हरि के लिए शंकर का यह व्यवहार आश्चर्यजनक था, तभी तो वह कहता है- "कहां गई आपकी मर्यादा! कहां गया आपका संस्कार! विदेश में तो मैं रहता हूं और समुद्र का खारापन आपकी आंखों पर छा गया है।

हरि भारत में जन्मा, छह भाई-बहनों के बीच अत्यंत गरीबी में पला-बढ़ा। बहुत मेहनत करके पढ़ाई की संभवतः इसलिए उसका व्यक्तित्व एक भावुक और उदार व्यक्ति के रूप में निर्मित हुआ जबकि उन्हीं परिस्थितियों के बीच पले-बढ़े उसके बड़े भाई शंकर का व्यक्तित्व ठीक उलट दिखाई देता है। जबकि बचपन में वह भी हरि की ही तरह अत्यंत संवेदशील था। ऐसे में क्या इसे मात्र व्यक्तिगत भिन्नता के रूप में देखा जा सकता है या संगत भी एक कारक रूप में रही होगी। लेखिका ने इस और संकेत किया है। शंकर के व्यवहार का उसके परिवार पर जो असर है, वह उसके समूचे परिवार पर स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। एक मां का अपने ही बेटे से डरना और अपनी व्यथा को इस तरह व्यक्त करना "उमा उसे भड़काती रहती है, अब बार-बार एक ही बात करता है, मैं, मेरी पत्नी मेरा परिवार है और बाकी सब यानी बहन-भाई आपकी गृहस्थी हैं।"

वह समझ नहीं पाती उससे क्या गलती हो गई, वह बेटा जो सारे विश्व को अपना परिवार समझता था, अब सबको अलग कैसे समझने लगा।

यह कहानी वैसे तो सम्पति के लालच में एक परिवार के बिखराव की कहानी है लेकिन इसके छोटे से कथ्य में व्यापक गहराई है। लेखिका ने एक परिवार की समस्या के माध्यम से मानवीय व्यवहार का सूक्ष्म विश्लेषण किया है। इसका विस्तार दिल्ली से लेकर अमेरिका तक है। समीक्ष्य कहानी इस भ्रम को भी तोड़ती है कि सुसंस्कार और उदार व्यक्तित्त्व स्वदेश में रहकर ही हो सकते हैं, उदाहरण के रूप में सुलभा एवं हरि जैसे पात्रों को देखा जा सकता है, विशेष रूप से सुलभा के चरित्र को। यदि सुलभा का चरित्र उमा जैसा होता तो हरी का व्यक्तित्त्व निश्चत ही कुछ और होता।

बहुत संभावना इस बात की थी कि वह भी कि शंकर के जैसा स्वार्थी होता। सुलभा का जन्म अमेरिका में होने के बाद भी वह भारतीयों से अधिक भारतीय है, जबकि उमा सत्तर के दशक में जो मान-मर्यादा, सामाजिक पाबंदियां और परिस्थितयां थीं उनके ठीक विपरीत बर्ताव करती है। उमा और शंकर भौतिकता के आकर्षण में एक अंधी दौड़ का हिस्सा बन जाते हैं।

समीक्ष्य संग्रह की तीसरी कहानी 'एक ग़लत कदम' वृद्धआश्रम और परिचायाग्रह के एक दृश्य के साथ शुरू होती है जहां दयानंद शुक्ला एवं शकुंतला शुक्ला को उनके दो पुत्र और पुत्र वधुओं ने यहां तक पहुंचाया है। यह 'एडल्ट लिविंग एंड नर्सिंग होम' लिखित रूप में तो सबके लिए है लेकिन अघोषित रूप से यह केवल भारतीयों के लिए और इसमें सूक्ष्म भारत की झलक मिलती है। "सारे डाक्टर, नर्स, सेवक -सेविकाएं और कर्मचारी भारतीय हैं। हर गृह में एक मंदिर भी होता है। हर प्रदेश का भारतीय भोजन यहां दिया जाता है और भारतीय माहौल उत्पन्न किया जाता है।" अप्रवासी भारतीयों के अंदर जो भारत बसता है, वृद्धाश्रम उसी का प्रतिबिम्ब है। यह उन लोगों का आश्रय स्थल बन जाता है जो किन्हीं कारणों से भारत नहीं जा पाते और अपने परिवार के साथ भी नहीं रह पाते। सभी सुख -सुविधाओं से सम्पन्न यह वृद्ध आश्रम भारतीय बुजुर्गों में बहुत लोकप्रिय है।

यह एक ऐसा स्थल है जहां उन्हें अहसास हो कि वे भारत में ही रह रहे हैं। इस अहसास से उन्हें सुख की अनुभूति होती है। "चारों ओर भारतीय! शोर-शराबा, संयुक्त परिवार-सा खान-पान, सुबह-शाम घंटियों की आवाज़, शंख का नाद, भारतीय संगीत, धूमधाम से मनाये जाते भारतीय उत्सव। ढलती उम्र में जन्मभूमि बहुत याद आती है, बस ऐसे गृहों में उसे ही मुहैया करवाने की कोशिश की जाती है।"

विशेष बात यह है कि  इसका निर्माण भी एक भारतीय 'डॉ. सुमंत हीरादास पटेल' ने कराया था।

इस कहानी का बहुत बड़ा भाग पूर्वदीप्ति शैली (फ़्लैश बैक) में आगे बढ़ाता है। यह कहानी एक ओर सजातीय और विजातीय होने के भ्रम को तोड़ती है और इस तथ्य को स्थापित करती है कि अच्छे- बुरे लोग देश-विदेश सब जगह होते हैं और अपवाद कहीं भी हो सकते हैं। डॉ.शरद शुक्ला और डॉ. जैनेट शुक्ला जैसे पात्रों के माध्यम से लेखिका ने कई  पूर्वाग्रहों को तोड़ने का कार्य किया है। इस कहनी में उन्होंने इस धारणा को भी ध्वस्त किया है कि यूरोपीय देशों में संयुक्त परिवार नहीं होते या उनके बीच वैसी परवाह, स्नेह और सामंजस्य नहीं होता जैसा कि भारत में।

सुधा ओम ढींगरा कहानियां लिखती नहीं, वे उन कहानियों में स्वयं रच-बस जाती हैं। आपके पास व्यापक अनुभव हैं इसलिए हर कहानी कथावस्तु की दृष्टि से, एक दूसरे से नितांत भिन्न होती है लेकिन एक ऐसा तंतु इन कहानियों में छुपा रहता है जिससे ये लेखक का परिचय स्वयं दे देतीं हैं। भावों की सशक्त अभिव्यक्ति, भाषा का सरल प्रवाह और बीच-बीच में पंजाबी भाषा का प्रयोग जैसे बघार का काम करता है और कहानियां एक सौंधी सी महक से भर जाती हैं। 'वसूली' हो या 'एक गलत कदम' या' खिड़कियों से झांकती आंखें' भारतीयता और भारत से प्रेम इन कहानियों में स्पष्ट रुप से देखा जा सकता है। 
 
कहानी संग्रह: खिड़कियों से झांकती आंखें
लेखिका: सुधा ओम ढींगरा
समीक्षा: डॉ. सीमा शर्मा
प्रकाशन: शिवना प्रकाशन
मूल्‍य: 150 रुपए

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

इस वर्ष 21 फरवरी 2020 को महाशिवरात्रि का दिवस है और हमें क्या करना चाहिए?