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बिना हिन्दी के हिन्दुस्तान की कल्पना नहीं की जा सकती...

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ब्रह्मानंद राजपूत

हिन्दी शब्द है हमारी आवाज का, हमारे बोलने का, जो कि हिन्दुस्तान में बोली जाती है। आज देश में जितनी भी क्षेत्रीय भाषाएं हैं उन सबकी जननी हिन्दी है और हिन्दी को जन्म देने वाली भाषा का नाम संस्कृत है, जो कि आज देश में सिर्फ प्रतीकात्मक रूप से हिन्दी माध्यम के स्कूलों में एक विषय के रूप में पढ़ाई जाती है। 
 
आज देश के लिए इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि जिस भाषा को हम अपनी राष्ट्रीय भाषा कहते हैं, आज उसका हाल भी संस्कृत की तरह हो गया है। हर तरह से अंग्रेजी से हिन्दी और समस्त भारतीय भाषाओं को दबाया जा रहा है। चाहे आज देश में इंटरमीडिएट के बाद जितने भी व्यावसायिक पाठयक्रम हों, वे सब अंग्रेजी में पढ़ाए जाते हैं। अगर देश की शिक्षा ही देश की राष्ट्रीय भाषा में नहीं है तो हिन्दी जिसे हम अपनी राष्ट्रीय भाषा मानते है, जिसे हम एक-दूसरे का दु:ख-दर्द बांटने की कड़ी मानते हैं, उसका प्रसार कैसे हो पाएगा?
 
महात्मा गांधी हिन्दी भाषी नहीं थे लेकिन वे जानते थे कि हिन्दी ही देश की संपर्क भाषा बनने के लिए सर्वथा उपयुक्त है। उन्हीं की प्रेरणा से चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने 'दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा' का गठन किया था। देशभर में हिन्दी पढ़ना गौरव की बात मानी जाती थी।
 
महात्मा गांधी ने 1916 में क्रिश्चियन एसोसिएशन ऑफ मद्रास की एक सभा में स्पष्ट रूप से कहा था कि धर्मांतरण राष्ट्रांतरण है। उन्होंने 'हरिजन' में लिखा था कि 'यदि मैं तानाशाह होता तो अंग्रेजी की पुस्तकों को समुद्र में फेंक देता और अंग्रेजी के अध्यापकों को बर्खास्त कर देता।'
 
सच तो यह है कि ज्यादातर भारतीय अंग्रेजी के मोहपाश में बुरी तरह से जकड़े हुए हैं। आज स्वाधीन भारत में अंग्रेजी में निजी पारिवारिक पत्र-व्यवहार बढ़ता जा रहा है। काफी कुछ सरकारी व लगभग पूरा गैरसरकारी काम अंग्रेजी में ही होता है। दुकानों वगैरह के बोर्ड अंग्रेजी में ही होते हैं। होटलों व रेस्टॉरेंटों इत्यादि के मेनू अंग्रेजी में ही होते हैं। ज्यादातर नियम-कानून या अन्य काम की बातें, किताबें इत्यादि अंग्रेजी में ही होते हैं। उपकरणों या यंत्रों को प्रयोग करने की विधि अंग्रेजी में लिखी होती है, भले ही उसका प्रयोग किसी अंग्रेजी के ज्ञान से वंचित व्यक्ति को करना हो। 
 
अंग्रेजी भारतीय मानसिकता पर पूरी तरह से हावी हो गई है। हिन्दी (या कोई और भारतीय भाषा) के नाम पर छलावे या ढोंग के सिवाय कुछ नहीं होता है। माना कि आज के युग में अंग्रेजी का ज्ञान जरूरी है, क्योंकि अंग्रेजी अंतरराष्ट्रीय भाषा है। कई सारे देश अपनी युवा पीढ़ी को अंग्रेजी सिखा रहे हैं जिसमें एक भारत देश भी है। पर इसका अर्थ यह नहीं है कि उन देशों में वहां की भाषाओं को ताक पर रख दिया गया है और ऐसा भी नहीं है कि अंग्रेजी का ज्ञान हमको दुनिया के विकसित देशों की श्रेणी में ले आया है। सिवाय सूचना प्रौद्योगिकी के हम किसी और क्षेत्र में आगे नहीं हैं और सूचना प्रौद्योगिकी की इस अंधी दौड़ की वजह से बाकी के प्रौद्योगिक क्षेत्रों का क्या हाल हो रहा है? वह किसी से छुपा नहीं है। 
 
सारे विद्यार्थी प्रोग्रामर ही बनना चाहते हैं, किसी और क्षेत्र में कोई जाना ही नहीं चाहता है। क्या इसी को चहुंमुखी विकास कहते हैं? दुनिया के लगभग सारे मुख्य विकसित व विकासशील देशों में वहां का काम उनकी भाषाओं में ही होता है। यहां तक कि कई सारी बहुराष्ट्रीय कंपनियां अंग्रेजी के अलावा और भाषाओं के ज्ञान को महत्व देती हैं। केवल हमारे यहां ही हमारी भाषाओं में काम करने को छोटा समझा जाता है। हिन्दी भारत का मान है, कहा जाए तो हिन्दी के बिना हिन्दुस्तान की कल्पना करना निरर्थक है।
 
आज हमारे देश में अंग्रेजी माध्यम के स्कूल कुकुरमुत्ते की तरह उग रहे हैं। बचपन में हम सुना करते थे कि सोवियत रूस में नियुक्त राजदूत विजयलक्ष्मी पंडित, जो कि प्रधानमंत्री नेहरू की सगी बहन थीं, ने रूस के राजा स्टालिन को अपना पहचान पत्र अंग्रेजी में भेजा तो उन्होंने स्वीकार करने से इंकार कर दिया और पूछा कि क्या भारत की अपनी कोई भाषा है या नहीं? उन्होंने फिर हिन्दी में परिचय पत्र भेजा तब उन्होंने मिलना स्वीकार किया।
 
अंग्रेजी व्यापार की भाषा है जरूर लेकिन वह ज्ञान की भाषा नहीं। सबसे अधिक ज्ञान-विज्ञान तो संस्कृत में है जिसे 'भाषा' का दर्जा दिया जाना महज औपचारिकता भर रह गया है। आज जरूरत है कि हमारी सरकार को हिन्दी का अधिक से अधिक प्रचार-प्रसार करना चाहिए। जैसे चीन अपनी भाषा को प्रोत्साहन दे रहा है, वैसे ही भारत देश को भी अपनी भाषा को प्रोत्साहन देना होगा तथा जितने भी देश में सरकारी कामकाज होते हैं, वे सब हिन्दी में होने चाहिए और हिन्दी में उच्चस्तरीय शिक्षा के पाठयक्रम को क्रियान्वित करने की जरूरत है। 
 
सभी जानते हैं कि अंग्रेजी एक अंतरराष्ट्रीय भाषा है। मैं अपने विचार से कहना चाहूंगा कि अंग्रेजी सभी को सीखना चाहिए लेकिन उसे अपने ऊपर हमें कभी हावी नहीं होने देना है। अगर अंग्रेजी हमारे ऊपर हावी हो गई तो हम अपनी भाषा और संस्कृति सबको नष्ट कर देंगे। इसलिए आज से ही सभी को हिन्दी के लिए कोशिश जारी कर देनी चाहिए। अगर हमने शुरुआत नहीं की तो हमारी राजभाषा एक दिन संस्कृत की तरह प्रतीकात्मक हो जाएगी जिसके जिम्मेदार और कोई नहीं, हम लोग ही होंगे। 
 
अंग्रेजी भाषा की मानसिकता आज हम पर, खासकर हमारी युवा पीढ़ी पर इतनी हावी हो चुकी है कि हमारी अपनी भाषाओं की अस्मिता और भविष्य संकट में है। इसके लिए हमें प्रयास करने होंगे। और इसके लिए जरूरत है कि हमें अंग्रेजी को अपने दिलो-दिमाग पर राज करने से रोकना होगा तभी हिन्दी आगे बढ़ेगी और राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की यह घोषणा साकार होगी-
 
'है भव्य भारत ही हमारी मातृभूमि हरी-भरी
हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा और लिपि है नागरी।'

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