आजादी के बाद हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनना था लेकिन वह बन नहीं पाई। सारे देश को जोड़ने का त्रिभाषा फार्मूला चल नहीं पाया। इसकी वजह थी कि हम हिन्दीभाषी ही किसी अन्य भारतीय भाषा को खासकर दक्षिण भारत की किसी भाषा को सीखने को तैयार नहीं थे। हां, हिन्दी राजभाषा जरूर बन गई मगर यह राजभाषा है, यह हिन्दी नहीं है, जिसे हम-आप आम जीवन में रोज इस्तेमाल करते हैं।
यह दरअसल अंग्रेजी का बिना सोचे-समझे जटिल संस्कृत-निष्ठ-व्याकरणविहीन हिन्दी अनुवाद है। इस बीच बाजारवाद ने, फिल्मों और टीवी ने हिन्दी को एक अनौपचारिक संपर्क भाषा की मान्यता अवश्य दिलाई। हिन्दी विरोध के गढ़ तमिलनाडु में भी पढ़े-लिखे अभिभावकों को समझ में आया कि उनके बेटा-बेटी अंग्रेजी के साथ अगर हिन्दी भी सीखेंगे तो उनका भविष्य उज्ज्वल होगा। अतः वहां पब्लिक स्कूलों में हिन्दी पढ़ाई जाने लगी।
पिछली सरकार के कपिल सिब्बल ने त्रिभाषा फार्मूला पेश किया था। उनका कहना था कि बच्चों को मातृभाषा के अलावा हिन्दी तथा अंग्रेजी सिखाई जानी चाहिए।
मातृभाषा का ज्ञान सांस्कृतिक समन्वय कराएगा, हिन्दी राष्ट्रीय समन्वय कराएगी और अंग्रेजी वैश्विक स्तर पर जोड़ेगी। बात गलत नहीं है। आज अनौपचारिक रूप से ही सही हिन्दी राष्ट्रीय एकता की भाषा है लेकिन देश में एक छोटा मगर प्रभावशाली अंग्रेजीदां वर्ग खड़ा हो गया है जो हिन्दी को किसी भी कीमत पर स्वीकार करने को राजी नहीं। फिर समस्या हमारी ओर से भी है।
दक्षिण-पश्चिम या पूर्वी भारत का छात्र तो तीन भाषाएं सीखें लेकिन क्या हिन्दीभाषी एक और भारतीय भाषा सीखने को तैयार है? अतः इस त्रिभाषा फार्मूले के लागू न हो पाने का एक बड़ा कारण तो हम खुद भी हैं और अभी शायद वक्त नहीं आया, जब हम व्यापक राष्ट्रीय हित में अन्य भारतीय भाषाओं को सीखना स्वीकार करेंगे।