Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

दिलीप कुमार: मेरे जीवन भर की प्रेमासक्ति

हमें फॉलो करें दिलीप कुमार: मेरे जीवन भर की प्रेमासक्ति
, गुरुवार, 22 जुलाई 2021 (16:54 IST)
- डॉ. सैयदा हमीद

जबकि मैं यूसुफ भाई के साथ अपने आजीवन जुड़ाव के बारे में लिख रही हूं, तो मिर्जा असदुल्ला ख़ान ग़ालिब की ये अमर पंक्तियां बरबस याद आ रही हैं।

दिल मिरा सोज़-ए-निहां से बे-मुहाबा जल गया
आतिश-ए-ख़ामोश की मानिंद गोया जल गया
मैं हूं और अफ़्सुर्दगी की आरज़ू 'ग़ालिब' कि दिल
देखकर तर्ज़-ए-तपाक-ए-अहल-ए-दुनिया जल गया

जब मैंने उनकी फिल्में देखना शुरू किया तो उस वक़्त मैं एक 12 या 13 साल की छोटी लड़की थी, तब से ही मैं उनकी उत्साही निडर प्रशंसक, गुप्त प्रशंसक हूं। मैं उनसे पहली बार 50 के दशक में अपने चाचा ख्वाजा अहमद अब्बास के साथ उनसे मिली थी, जब मैं गर्मी की छुट्टियों में मुंबई आई थी।

यूसुफ भाई की बहनों और भाइयों के लिए अब्बास, 'चाचा बाछो', पाली हिल पर उनके विशाल घर के अंदर और बाहर बेझिझक आ जा सकते थे। मुझे उनके साथ वहां जाना अच्छा लगा और मुझे उनकी तीसरी बहन अख्तर के रूप में अपना सबसे अच्छा दोस्त मिला। मुझे वे सभी पसंद थे, आपा जी, सबसे बड़ी ज्येष्ठ और कुलमाता, ताज आपा, सईदा, फरीदा और फौजिया।

नासिर भाई और उनकी पत्नी बेगम पारा थीं; वो लोग कहीं और रहते थे। (दशकों बाद, मेरी चचेरी बहन हमीदा ने मुझे बताया कि बेगम पारा जिनका नाम जुबैदा हक था, अलीगढ़ में उसकी स्कूल में उनकी सहपाठी थीं)। उनके छोटे भाई अहसान और असलम यूएसए में थे।

लेकिन मैं जो एक स्कूली छात्रा थी, का दिल युसूफ भाई पर टिका था। उनका अपना कमरा घर के बाकी हिस्सों से अलग था जहां घर के हंगामा से दूर वह काम कर सकते थे और अपने फिल्मी दोस्तों से मिल सकते थे। मैं इसके बारे में बहुत उत्सुक थी और इस जगह को उनकी शानदार नायिकाओं, मधुबाला, वैजयंतिमाला, मीना कुमारी के साथ मिलन स्थल के रूप में इसकी कल्पना की थी। मैं उनकी जगह होने के लिए क्या दे सकती थी।

मैंने कभी इस उम्मीद को नहीं छोड़ा कि एक दिन वो अपने घर के किसी कोने में एक दुबली-पतली शर्मीली लड़की जिसकी आंखों में उनके लिए प्यार था ज़रूर महसूस करेंगे। एक बार अख्तर मुझे एक गुप्त मिशन पर ले गईं,जिसे 'यूसुफ साहब का मांद' कहा जाता था। उसमें हम लोगों ने बाहर से झांक कर देखा।

युसूफ भाई ने अपने से 20 साल छोटी एक छोटी सी लड़की पर ध्यान नहीं दिया। अगले कुछ वर्षों में मेरा मोह और गहरा होता गया। ये बात मेरे बताये बग़ैर सभी जानने लगे। अख्तर जानती थीं और मुझे चिढ़ाती थीं। मेरे मॉडर्न स्कूल के दोस्त इसे जानते थे और वो लोग मुझे बहुत चिढ़ाया करते थे। 

उनकी हर एक फिल्म ने मुझे बेचैन कर दिया।

फ़िल्म आजाद, जिसमें उनकी नायिका मीना कुमारी थीं। इस फिल्म में उन्होंने रॉबिनहुड-बक्कानीर-प्रिंस की भूमिका निभाई थी। हिंदी सिनेमा में स्टॉकहोम सिंड्रोम का यह पहला चित्रण था। दशकों पहले जबकि हिंदी सिनेमा में इसका नाम भी नहीं सुना था।

फ़िल्म 'देवदास' जिसमें उन्हें दो महिलाओं का प्यार मिला था। एक सरल सूक्ष्म अंतहीन प्रेम की ऐसी भावना जो उन्होंने दोनों के प्रति व्यक्त की। 'कौन कम्बख्त है जो बर्दाश्त करने के लिए पीता है।' राजिंदर सिंह बेदी द्वारा लिखित एक अमर संवाद चंद्रमुखी से कहते हैं।

फ़िल्म 'कोहिनूर' जिसमें उन्होंने रोमांस और छल का उत्कृष्ट प्रदर्शन किया और शकील बदायुनी के गीत 'दो सितारों का ज़मीन पर है मिलन'  और 'मधुबन में राधिका' में कुकमुम के साथ अपने नृत्य के जादू से अमर कर दिया।

एक और उनकी फ़िल्म 'मधुमती' थी जिसमें उन्होंने प्यार किया और खो दिया, लेकिन अपने दर्शकों की आंखें नम कर दी और उनका दिल जीत लिया।

फ़िल्म गंगा-जमुना में उन्होंने गंगा-जमुनी तहज़ीब जोकि आज ख़तरे में है उसका 'नैन लड़ जइहें तो मनवा मा कसक होइबे करी' के ज़रिये बड़ा ही सुन्दर चित्रण किया है।

फ़िल्म 'नया दौर' में पंजाब की संस्कृति को दिखाया गया है 'तुझे चांद के बहाने देखूं तू छत पर आजा गोरीए'
फ़िल्म मुसाफिर जिसमें उन्होंने पहला और आख़िरी गाना गाया था, उनकी आवाज जो एक बार में रफी और तलत दोनों जैसी थी; लागी नहीं छुटे रमा चाहे जिया जाए।'

और फिर शानदार मुगल ए आजम था जिसमें शहजादा सलीम के रूप में उन्होंने अपनी प्रेमिका अनारकली (मधुबाला) और उसकी प्रतिद्वंद्वी बहार (निगार सुल्ताना) के बीच कव्वाली प्रतियोगिता में पुरस्कार से सम्मानित किया। बहार को फूल सौंपते हुए वह कहते हैं 'मरहबा', अनारकली को कांटों को सौंपते हुए वे ऐसे शब्द बोलते हैं जो भारतीय सिनेमा के इतिहास में गूंजते हैं 'अनारकली, तुम्हारे हिस्से में ये कांटे हैं'

जब मैं उच्च शिक्षा के लिए विदेश गई तो उनकी छवि मेरे दिल पर बनी रही। अख्तर और मैं उन मुश्किल दिनों में भी करीब बने रहे, जब मेरी मां बीमार हो गईं और आखिरकार एक अजनबी माहौल में उनकी मृत्यु हो गई। जब वह अस्पताल में थी,अख्तर मेरे पिता और मेरे साथ रहने के लिए न्यूयॉर्क से मेरे विश्वविद्यालय परिसर में आईं। युसूफ भाई की तरह उनकी भी एक खूबसूरत आवाज थी। उन्होंने हमारे लिए गाया भी। मैं रोई और मेरे पिता भी अपने आंसू नहीं रोक पाए जब हमने ये पंक्तियां सुनीं, आज पांच दशक बाद भी उनका प्रभाव कम नहीं हुआ।

सौ बार चमन महका सौ बार बहार आई
दुनिया की वही रौनक दिल की वही तनहाई।

बाद में, मैंने अपने सपनों का राज कुमार पाया और उससे शादी की, लेकिन यूसुफ भाई और सायरा बानो की शादी के बाद।

हमारी कहानी जारी रही अलग-अलग महाद्वीपों में अलग-अलग जगहों पर हम मिलते रहे। मैंने कभी भी उनकी फिल्में देखना बंद नहीं किया, चाहे जीवन में कुछ भी चल रहा हो। इसके अलावा, मैंने अपने सबसे क़रीबी अख्तर से कभी संपर्क नहीं खोया, हमने एक-दूसरे को फिर से कनाडा में पाया।

आखिरी बार मैं यूसुफ भाई से तब मिली थी जब वो और सायरा बानो कनाडा में मेरे शहर आए थे। मुझे वो लंच याद है जहां मुझे उनसे मिलने के लिए आमंत्रित किया गया था। उनके जीवन का 'अस्मा' प्रकरण समाप्त हो चुका था; उन्होंने अपनी जीवनी 'द सबस्टेंस एंड द शैडो' में इसका जिक्र किया है।

हम अपने करीबी दोस्त के घर पर मिल रहे थे, हैदराबाद का एक परिवार, जिसका नेतृत्व एक सुंदर और प्रिय कुलमाता कर रही थीं, यूसुफ भाई के अपाजी की तरह। वे खुश लग रहे थे, यूसुफ भाई और सायरा। उत्तरी अमेरिका में कई साल रहने के बावजूद, एक प्यार करने वाले पति, तीन खूबसूरत बच्चों और उस दुनिया में महत्वपूर्ण पदों पर रहने के बावजूद, जब मैंने उनसे अपने दिल की इच्छा के बारे में बात की। 'यूसुफ भाई, मैं आपकी जीवनी लिखना चाहता हूं। क्या तुम... तुम करोगे?

उसी रहस्यमय मुस्कान के साथ मुझे पाली हिल के उन दिनों की याद आई जब उन्होंने अपनी पत्नी की ओर इशारा किया था। 'ये तो इन से पूछिए'। मुझे तब पता था कि ऐसा नहीं होगा।

बाद में जब मैं भारत लौटी और जीवनयापन के लिए लिखना शुरू किया, तो मुझे आश्चर्य हुआ कि उन्होंने मुझे अपनी नक़लनवीस के रूप में शामिल करने का मौका क्यों दिया। 2012 में जब मुझे मौलाना आज़ाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय (MAANU) का चांसलर नियुक्त किया गया, तो यूसुफ भाई को डॉक्टरेट की मानद उपाधि से सम्मानित किया गया। 'आख़िरकार वो मेरे बग़ल में खड़े होंगे जब मैं उन्हें उपाधि प्रदान नहीं करूंगी' मैं ये सोच कर विजय भाव से भर गई। वह अस्वस्थ थे इसलिए ऐसा न हो सका। मंच पर हम सभी को सायरा बानो की दोस्त उदयतारा नायर द्वारा लिखित उनकी 'आत्मकथा' प्रदान किया गया। सीमित संस्करण पर 'विथ लव दिलीप कुमार' के साथ हस्ताक्षर किए गए थे।

पेशावर के उनके पुश्तैनी घर में 'क़िस्सा ख्वानी बाज़ार' में जहां मैं साल 2000 में गई थी, उन्हें अपनी दादी के शब्द याद आ गए, जब वह गली से आंगन के अंदर दौड़ता हुआ आए। 'आ गए युसूफी!'

वो आए, देखा,और जीत हासिल की, सरहद और सरहद के पार, इंसान की खींची लकीर जो मानवीय भावनाओं को क़ैद नहीं कर सकतीं, खासकर जब ये शहंशाह ए जज्बात से संबंधित हो।

ऐसा लगता है कि अल्लामा इकबाल ने शेर युसूफ खान के लिए लिखी गई थीं।

हज़ारों साल नर्गिस अपनी बे नूरी पे रोती है
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा

(इस लेख का अनुवाद रियाज अहमद ने किया है।)

(आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

Covid 19 : थांबा- अभी भी वक्त है संभल जाओ