अपनी सुख-सुविधा, स्वाद, बहादुरी, अहंकार एवं विकास के नाम पर प्रकृति के साथ भरपूर खिलवाड़, प्रकृति का भरपूर दोहन, वनों को तहस-नहस, जल को प्रदूषित, वायु को प्रदूषित, भूमि को प्रदूषित, करोड़ों-अरबों जीव-जंतुओं का खात्मा। हर जगह मनुष्य अपनी बहादुरी दिखाकर अधिकार जमाना चाहता है। आकाश में, भूमि पर, समुद्र पर, भूमि के नीचे, समुद्र की गहराइयों में भी सृष्टि द्वारा रचित हर वस्तु पर कब्जा करना चाहता है। चारों तरफ सिर्फ मैं और सिर्फ मैं यही मनुष्य का अहंकार है। किसी को कुछ नहीं समझने वाले इंसान को यह नहीं पता है कि प्रकृति जब अपना रौद्र रूप दिखलाती है तो मनुष्य द्वारा विकसित सभी तामझाम, तकनीकी, प्रौद्योगिकियां काम नहीं आतीं और ऐसा होते हुए हमने अनेक बार देखा है, चाहे सुनामी हो, बाढ़ हो, चक्रवात हो, भूकंप हो, कोर्इ महामारी हो। आज हम इतने निष्ठुर, अहंकारी, असंवेदनशील, उदासीन, ममताविहीन व करुणाविहीन कैसे हो गए? जबकि हमारी परंपराएं, सभ्यता, संस्कृति, आचरण हमें प्रकृति के प्रति ऐसा करने की सीख कभी नहीं देते। हमारे शास्त्र, ग्रंथ, कोई धर्म भी ऐसा नहीं कहता है।