इस शहर की जमीं ऐसी है जिसने कलाकार, सृजनकार, लेखकों को जन्म दिया है। यह शहर ऐसा है जो सृजनाकार को सृजन के लिए उनमुक्त कर देता है, पर यह शहर अब बहुत बदल गया है। यह बात इंदौर लिटरेचर फेस्टिवल में प्रख्यात लेखिका ममता कालिया ने एक सत्र के दौरान कही।
उन्होंने इंदौर की यादों को ताजा करते हुए कहा, मेरे मन में अब भी शहर की वही छवी है जो दशकों पहले बस गई थी। यहां क्रिशि्चयन कालेज, सियागंज, तोपखाना, जेलरोड़ आदि स्थानों की बातें और यादें अब भी मन में बसी हुई हैं।
जो लेखक यह सोचते हैं कि वे इंदौर में धक्के खा रहे हैं तो वे यह समझ लें कि वास्तव में वे धक्के नहीं आगे बढ़ने की तैयारी है।
इंदौर और दिल्ली दोनों शहर अलग-अलग सबक सिखाते हैं। यह शहर हमें लिखना, मजबूत होना सिखाता है। मेरा मन करता है कि मैं अब लिखू जीते जी इंदौर।
जब आप किसी शहर से चले जाते हैं या आपके जीवन से कोई चला जाता है तो वह व्यक्ति और वह शहर दोनों और भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं। जहां तक मेरे लेखन की बात है तो शुरुआती दौर में घर में मुझे अपने लेखन के लिए बहुत आलोचना सुनना पड़ी।
असल में उस आलोचना से ही मैं निखर पाई। जिन्हें घर में आलोचना मिलती है वे बाहर निखरे नजर आते हैं और जिन्हें घर में ही प्रशंसा मिल जाती है वे अच्छे लेखक नहीं बन पाते।
मैं जब भी कोई किताब लिखना शुरू करती हूं तो मन में उतना ही भय उपजता है, जितना पहली किताब लिखते वक्त, क्योंकि हर किताब मेरे लिए चुनौती होती है और उसके लिए मुझे खूब तैयारी करना होती है।