Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

कला वसुधा में 31 नए नाटकों का प्रकाशन

हमें फॉलो करें कला वसुधा में 31 नए नाटकों का प्रकाशन
देवमणि पांडेय

लखनऊ से प्रकाशित होने वाली 'कला वसुधा' त्रैमासिक प्रदर्शनकारी कलाओं की महत्वपूर्ण पत्रिका है। इसका जनवरी-जून 2020 का संयुक्तांक नाट्यालेख प्रसंग पर केंद्रित है। 364 पृष्ठों पर प्रस्तुत इस विपुल सामग्री में साहित्य के कई कालखंड समाहित हैं।

सबसे उल्लेखनीय बात यह है कला वसुधा के इस अंक में देश के 31 नाटककारों की रचनाओं का प्रकाशन किया गया है। इनमें मौलिक, अनूदित और रूपांतरित तीनों तरह के नाटक शामिल हैं। नाट्य प्रेमियों और रंग कर्मियों के लिए एक साथ 31 हिंदी नाटकों का तोहफ़ा बेहद सराहनीय कार्य है। विभिन्न विषयों पर आधारित इन नाटकों में जीवन के सभी पक्ष शामिल हैं। इनमें तीन नाट्यालेख लोक नाट्य शैली का भी प्रतिनिधित्व करते हैं।
 
हिंदी की पहली आधुनिक कहानी के रूप में मशहूर भुवनेश्वर की बहुचर्चित कहानी भेड़िए (1936) का नाट्य रूपांतरण सुमन कुमार ने किया है। पूर्वरंग में कुछ बोध कथाएं और लोक कथाएं जोड़कर उन्होंने इस कहानी को मंचानुकूल और असरदार बना दिया है। अंततः यह प्रस्तुति इस स्थापना तक पहुंचती है कि भेड़िया हम सब के भीतर भी होता है।
 
कथाकार विभा रानी का एकल नाटक बिंब प्रतिबिंब दो वास्तविक स्त्रियों के जीवन की अविस्मरणीय कथा पर आधारित है। समाज के मौजूदा ताने बाने में यह नाटक स्त्रियों के दुख और यातना की मार्मिक अभिव्यक्ति है।
 
वरिष्ठ कथाकार डॉ नरेंद्र कोहली के उपन्यास शूर्पणखा का नाट्य रूपांतरण ज़फ़र संजरी ने किया है। इस नाट्यालेख में शूर्पणखा के संवाद काफ़ी रोचक हैं। बहुआयामी संवादों के ज़रिए यह नाटक आधुनिक परिदृश्य से अपना रिश्ता जोड़ लेता है।
  
हैलो शेक्सपियर नाट्यालेख ख़ुद में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ भी है। इसकी शुरुआत इस संवाद से होती है-  "यह दुनिया एक रंगमंच है और हम सभी सिर्फ़ एक पात्र। दुनिया के रंगमंच पर सभी का आना और जाना होता है। हर इंसान अपनी ज़िंदगी में कई भूमिकाएं निभाता है। यह राज़ समझ ना आया,  कितना ब्रेन लगाया, इतना बड़ा क़िस्सागो आख़िर कहां से आया। साढ़े चार सौ साल बाद भी कालजई नाटककार विलियम शेक्सपियर (1564-1616) के रंगमंचीय योगदान पर दुनिया नतमस्तक है। 
 
शेक्सपियर के नाटकों में  इंसानी चरित्र की कमज़ोरियां  ट्रेजडी की बड़ी वजह बन जाती है। रंगकर्मी शकील अख़्तर और हफ़ीज़ ख़ान ने इस आलेख में शेक्सपियर के छत्तीस नाटकों में से छ: प्रमुख ट्रेजडी नाटकों-  किंग लियर, मैकबेथ, हैमलेट, रोमियो जूलियट, आथेलो और जूलियस सीजर के प्रमुख दृश्यों को बड़ी ख़ूबसूरती से आपस में जोड़कर इसे एक ऐतिहासिक नाटक की शक्ल दे दी है। स्कूल कॉलेज में शेक्सपियर को पढ़ने वाले छात्रों के लिए यह नाट्यालेख बहुत उपयोगी है। इस नाट्यालेख के ज़रिए शेक्सपियर की जीवनी और उनके संपूर्ण रचना संसार की भी एक झलक मिल जाती है।  इसमें खुद विलियम शेक्सपियर भी एक प्रमुख पात्र के रूप में मौजूद हैं। कुल मिलाकर हेलो शेक्सपियर कॉस्टयूम डिजाइन और साज सज्जा के बिना पेश किया जाने वाला एक प्रयोग धर्मी नाटक है।
 
मुंबई के हिंदी रंगमंच की दशा और दिशा पर शशांक दुबे का शोधपरक आलेख एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ है। मुंबई महानगर के प्रमुख रंग समूहों और उनके प्रमुख नाटकों का ज़िक्र करते हुए शशांक नाटकों की वर्तमान स्थिति का आकलन करते हैं और इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि जलता हुआ दिया हूं मगर रोशनी नहीं।
 
हिंदी रंग परिदृश्य और नाट्यालेखन पर हृषिकेश सुलभ का महत्वपूर्ण आलेख मौजूदा रंगकर्म से जुड़े कई अहम् मुद्दे लेकर कर सामने आया है। आज़ादी के बाद जिन रचनाकारों ने नाटक और रंगमंच को अपने सृजन से समृद्ध किया उनके योगदान को उन्होंने रेखांकित किया है। साहित्य की विभिन्न विधाओं के समानांतर नाटक की यात्रा का आकलन भी उन्होंने पेश किया है।
 
हिंदी साहित्यकार नाट्यालेखन के प्रति उदासीन क्यों हैं? इसकी पड़ताल करते हुए सुलभ जी इस मुद्दे पर पहुंचते हैं कि रंगमंच के क्षेत्र में निर्देशक का दंभ और दख़ल ज़रूरत से ज़्यादा है। लेखक को दूसरे दर्जे की नागरिकता देकर निर्देशक अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहता है। इससे कई साहित्यकारों ने नाट्यालेखन से तोबा कर ली है।
 
सुलभ जी के अनुसार आज अधिकांश निर्देशक परियोजना आधारित रंगकर्म कर रहे हैं। आनन-फ़ानन में कुछ भी मंचित कर धन सहेज लेने की प्रवृत्ति भी कुछ निर्देशकों को नाटककार बनने के लिए विवश करती है। यह एक गैर रचनात्मक और भयावह स्थिति है। हिंदी रंगमंच को इससे उबरना होगा।
 
कोरोना वायरस के इस कठिन समय में अपनी सार्थक सामग्री के साथ कला वसुधा हमारे सामने एक उम्मीद रोशन करने में कामयाब हुई है। नाट्यालेख प्रसंग पर ऐसी अद्भुत सामग्री उपलब्ध कराने के लिए प्रधान संपादक शाखा बंद्योपाध्याय, संपादक डॉ उषा बनर्जी, संपादकीय सहयोगी कुमार अनुपम और पूरी टीम को बहुत-बहुत बधाई। 
कला वसुधा का वेब अंक आप www.notnul पर पढ़ सकते हैं। प्रिंट पत्रिका मंगाने के लिए निम्नलिखित पते पर संपर्क करें -
 
संपादक :
कला वसुधा त्रैमासिक,
सांझी-प्रिया,
बी-8, डिफेंस कॉलोनी,
तेली बाग़, लखनऊ-226029
+918052557608, +919889835202
[email protected]
इस अंक का मूल्य : 200 रुपए

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

1 अक्टूबर को अंतरराष्ट्रीय वृद्धजन दिवस, जानिए कैसे हुई इसकी शुरुआ‍त