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Domestic violence: उठिए इससे पहले कि लॉकडाउन 'लॉकअप टॉर्चर रूम' में बदल जाए

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डॉ. छाया मंगल मिश्र

विश्वभर के देशों में जब भी कोई युद्ध/महामारी होती है तो उसका सबसे ज्यादा असर/खमियाजा महिलाओं को ही भुगतना पड़ा है। इतिहास गवाह है। ऐसे ही दौर से गुजर रहे हैं अभी भी कोरोना के कहर व लॉकडॉउन की मार भी महिलाओं को ही विश्वभर में झेलनी पड़ रही है। कम से कम ये आंकड़े तो यही कहते हैं।

आश्चर्य तो इस खबर से हुआ कि बड़ोदा में ऑनलाइन लूडो खेल में हारने से हुई पति-पत्नी की मारपीट जिसमें पति लगातार पत्नी से हार रहा था। हार बर्दाश्त करना उसके पौरुष को गवारा नहीं। खेल तो खेल है। कोई जीतेगा कोई हारेगा। पर पत्नी से हार? सिखाया ही कहां गया है? शादियों के समय खेल रस्में भी होती हैं। उनमें वर का हारना इज्जत हारने जैसा हो जाता है। कैसे भी हो वधु ने नहीं जीतना चाहिए। ये भावना भरता कौन है? हम ही न। क्यों नहीं इज्जत देना सिखाया जाता? केवल पत्नी ही नागवार क्यों? जबकि वो आपके घर को बनाती है। अपना सब कुछ, अपने सब छोड़कर, अपनी जड़ों से कटकर नए सिरे से अपने को पनपाती है। फिर भी हमेशा हिंसा का शिकार वही होती है। ये केवल हमारे ही देश में नहीं हो रहा वरन विश्वभर में लॉक डाउन में औरतों का दर्द है।

पुलिस की रिपोर्ट के अनुसार संयुक्त राष्ट्र में तालाबंदी के दौरान आने वाले घरेलू हिंसा से सम्बंधित फ़ोन कॉल की संख्या में 49% से अधिक उछाल आया है। लॉकडाउन के दूसरे सप्ताह में ये संख्या पच्चीस प्रतिशत बढ़ी थी, वहीं तीसरे सप्ताह तक 49% पहुंच गयी।

वहां अब तक लॉकडाउन के दौरान ही 16 लोग घरेलू हिंसा से मारे गए। पिछले ग्यारह सालों का रिकॉर्ड इससे टूट गया है। वहां हर रोज 100 लोगों को घरेलू हिंसा के आरोप में गिरफ्तार किया जा रहा है। 17 प्रतिशत शिकायत पुरुषों की ओर से भी आ रही है।

कनाडा में कोरोनोवायरस लॉकडाउन शुरू होने के बाद से लिंग आधारित हत्या के कम से कम तीन मामले सामने आए हैं। चीन में, महिलाओं के खिलाफ हिंसा का मुकाबला करने के लिए समर्पित एक एनजीओ ने फरवरी से हेल्प लाइन कॉल में वृद्धि देखी है। स्पेनिश घरेलू हिंसा समूहों में पिछले महीने की तुलना में लॉकडाउन के पहले दो हफ्तों में 18% अधिक कॉल आए। फ्रांस ने अपनी लॉकडाउन अवधि की शुरुआत के बाद से घरेलू हिंसा में 30% वृद्धि की रिपोर्ट की है।

सिंगापुर में एसोसिएशन फॉर वीमेन फॉर एक्शन एंड रिसर्च (एवेयर) के हेल्पलाइनों ने फरवरी में पिछले वर्ष की तुलना में घरेलू हिंसा संबंधी कॉलों में 33% की वृद्धि देखी,वहीं भारत में महिलाओं की कुल शिकायत मार्च के पहले सप्ताह में 116 से (मार्च २- 4 मार्च), अंतिम सप्ताह में 25 % तक (23 मार्च-अप्रैल 1) पहुंच चुकी थी।

अप्रैल के मध्य में राष्ट्रीय महिला आयोग (NCW) द्वारा उपलब्ध कराए गए नंबरों के अनुसार, प्री-लॉकडाउन दिनों की तुलना में लॉकडाउन के दौरान घरेलू हिंसा के मामले दोगुने हो गए थे। 23 मार्च और 16 अप्रैल के बीच 25 दिनों में, आयोग को 239 शिकायतें मिलीं, मुख्य रूप से ईमेल और व्हाट्सएप नंबर के माध्यम से। यह 27 फरवरी से 22 मार्च तक पिछले 25 दिनों के दौरान प्राप्त शिकायतों (123) की संख्या से लगभग दोगुना है। 25 मार्च से 14 अप्रैल तक पहले लॉकडाउन को अंततः 3 मई तक बढ़ा दिया गया था।

सर्वेक्षण के अनुसार, भारत में 15 वर्ष की उम्र से 24 प्रतिशत महिलाओं ने शारीरिक हिंसा का अनुभव किया है। शहरी क्षेत्रों की महिलाओं की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के बीच शारीरिक हिंसा का यह अनुभव अधिक आम है। घरेलू हिंसा के मामले, जहां महिलाओं ने ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में शारीरिक शोषण की रिपोर्ट की, क्रमशः 29 प्रतिशत और 23 प्रतिशत पर थे।

31 फीसदी विवाहित महिलाओं ने अपने जीवनसाथी द्वारा शारीरिक, यौन या भावनात्मक हिंसा का अनुभव किया है। शारीरिक हिंसा (27%) का सबसे सामान्य प्रकार है, उसके बाद भावनात्मक हिंसा (13%)।

अफ़्रीकी देश के घाना की एक महिला ने तो सोशल मीडिया पर अपना दर्द बयां किया है। उसने सरकार से गुहार लगाई है कि लॉकडाउन के दौरान उसके पति की शारीरिक इच्छाओं की पूर्ति दिनभर करते करते वो परेशान हो गई है। कई महिलाओं ने अपील की है कि यदि सरकार लॉकडाउन ख़त्म नहीं कर सकती तो कम से कम उनके पतियों को काम पर वापिस बुला ले ताकि उन्हें बार-बार होने वाले शारीरिक शोषण/कष्ट से मुक्ति मिल सके।

इससे ज्यादा शर्मनाक और क्या हो सकता है कि पत्नियों को पतियों की इन हरकतों से निजात पाने के लिय सोशल मीडिया पर अपना दर्द बयां करना पड़ा।

सर्वेक्षण में बताया गया है कि जिन विवाहित महिलाओं ने 15 वर्ष की आयु से शारीरिक हिंसा का अनुभव किया है, उनमें से 83 प्रतिशत ने अपने वर्तमान पतियों को हिंसा के अपराधियों के रूप में रिपोर्ट किया। हालांकि, जिन महिलाओं की शादी नहीं हुई है, उनके लिए शारीरिक हिंसा का अनुभव सबसे आम अपराधियों से होता है, जिनमें मां या सौतेली मां (56%), पिता या सौतेले पिता (33%), बहनें या भाई (27%) और शिक्षक (15%)शामिल हैं। फिर भी, केवल 14 प्रतिशत महिलाओं ने इस हिंसा का अनुभव किया, इसे रोकने के लिए मदद मांगी।

तीन रूप से हम औरतों को वर्गीकृत कर सकते है। मजदूर वर्ग, नौकरीपेशा, साधन संपन्न। इनमे शुरू की दो वर्ग में आने वाली महिलाओं का मरण सबसे ज्यादा है। निचले वर्ग में आने वाली औरतों के आदमियों को शराबखोरी की लत ने बौरा दिया। ये अपने सारे खर्चों के बोझ के साथ और गन्दी मानसिकता का शिकार केवल औरतों को बनाते हैं। गुलामों की तरह व्यवहार करते हैं। ये औरतें काम कर के इन्हें पालतीं हैं इनके साथ हर साल पैदा होने वाले इनके बच्चों को भी।

यही हाल कमोबश कामकाजी महिला के साथ भी होता है। गृहस्थी के साथ-साथ बौद्धिक काम का बोझ, परिवार की देखभाल याने तिगुनी मार झेलनी होती है। स्टेटस की गुलामी की मारी ये औरतें भी अपने हक के लिए यदा कदा ही बोल पातीं हैं।

'समरथ को नहीं दोस गुसाईं' की तर्ज पर धनिक वर्ग की महिलाएं भले ही थोड़ी बहुत इज्जत पा जाएं पर मैं एक बात स्पष्ट कर दूं कि औरतों में ये भेदभाव केवल मन समझाइश  ही होगी। दर्द तो सभी के साझे हैं। एक से। क्योंकि यहां इस धरती पर दो ही प्रजाति है- नर और मादा। जिसमें आदमी के पाप तो पानी में पत्थर की तरह बैठ जाते हैं पर औरत के पाप पानी में फूल की तरह तैरते रहते हैं। जीवन साथी कितना भी घटिया हो, ऐन मौके पर जीवनभर साथ न देने  वाला हो पर औरतें उन नक्कारों को छोड़ने की हिम्मत नहीं कर सकती क्योंकि ये घर, ये समाज, ये लोग आपको ऐसा करने की अनुमति नहीं देते। आप इंसान हो ही कहां? आप बनना भी नहीं चाहते। तो भुगतो इस दोजख को।

40-49 की उम्र के बीच के सर्वेक्षणों के आंकड़ों से पता चलता है कि भारत में महिलाओं ने घरेलू हिंसा का सबसे अधिक समर्थन किया, जिसमें 54.% समझौते थे। दुरुपयोग को सही ठहराने वाला प्रतिशत छोटी उम्र की महिलाओं में थोड़ा कम है। 15 से 19 वर्ष की आयु की 47.7% लड़कियां पतियों द्वारा की गई हिंसा से सहमत हैं।

महात्मा गांधी ने कहा था-' हिंदुस्तान का हर घर विद्यापीठ है, महाविद्यालय है। मां-बाप आचार्य हैं। मां-बाप ने आचार्य का अपना यह काम छोड़ दिया तो मानो अपना धर्म छोड़ दिया'। पर वो भूल गए की महिला-पुरुष सामान सम्मान/ अधिकार की शिक्षा अभी हमारे संस्कारों में उपजी ही कहां है? यदि हम हिंसा बंद करवाना चाहते हैं तो हमें सबसे पहले  औरतों के शोषण बंद करने का उपाय करना चाहिए।

घरेलू हिंसा के प्रति महिलाओं के दृष्टिकोण में यह मामूली अंतर शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में भी दिखाई देता है। जबकि देश भर में सर्वे में शामिल 54.4% ग्रामीण महिलाओं ने घरेलू शोषण से सहमति व्यक्त की, केवल 46.8% शहरी महिलाओं ने ऐसी हिंसा का समर्थन किया।

महिलाओं द्वारा सबसे अधिक यौन हिंसा का रूप यह था कि उनके पति शारीरिक संभोग का उपयोग तब करते थे जब वे (5.4%) नहीं चाहते थे। लगभग 4% ने बताया कि उनके पति उन्हें यौन क्रिया करने के लिए धमकियों या अन्य तरीकों से मजबूर करते हैं जो वे नहीं करना चाहते थे, और 3% ने बताया कि उनके पति उन्हें अन्य यौन कार्य करने के लिए मजबूर करते हैं जो वे नहीं करना चाहते थे।

अविवाहित महिलाओं के लिए परिदृश्य अलग नहीं है। सर्वेक्षण रिपोर्ट में कहा गया है कि अविवाहित महिलाओं पर यौन हिंसा के सबसे आम अपराधी अन्य रिश्तेदार (27%) थे, उनके बाद एक वर्तमान या पूर्व प्रेमी (18%), उनके अपने दोस्त या परिचित (17%) और एक पारिवारिक मित्र (11%) थे। )।

विडंबना यह है कि भारत उन ३६ देशों में से एक है जहाँ वैवाहिक बलात्कार, पति या पत्नी की सहमति के बिना किसी के साथ संभोग करने का कार्य, अभी भी आपराधिक अपराध नहीं है। हिंसा पशुता से भी बदतर की प्रवृत्ति है, मानसिक विकार है। कितना  विरोधभास है हम औरतों की जिंदगी का कि उन्हें गृहलक्ष्मी कहा जाता है। घर की रौनक भी। शास्त्रों, काव्यों में तो देवी का दर्जा है। पूजते भी हैं। बस इंसान नहीं मानते। वेद व्यास ने महाभारत के शांति पर्व में कहा भी है कि 'गृहिणी को ही घर कहते हैं, गृहिणी के बिना घर अरण्य है'।

तुलसी दास जी भी रामचरित मानस में कह गए हैं कि- 'हित-अनहित तो पशु-पक्षी भी जानते है फिर मनुष्य शारीर तो गुण ज्ञान का भंडार ही है'। पर ये परम ज्ञानी पुरुष भी नहीं जानते थे की उनके इस ज्ञानवानी में औरतों को इंसानियत दर्जा मिलेगा जब तो या सब संभव हो पायेगा न।

जिस पूजा-पाठी देश में आज भी स्वच्छता के लिए सरकार को अभियान चलाना पड़ता हो, शौच के बाद हाथ धोने चाहिए का ज्ञान बांटना पड़ता हो, महामारी कोरोना से बचने के लिए बार-बार सख्ती की जाना पड़ रही हो, जिस देश के लोगों को अपनी जान की कोई कीमत, कोई परवाह नहीं हो वहां औरतों के लिए उनकी भोगी मानसिकता को बदल पाना दिवास्वप्न सा लगता है। ये डगर बहुत कठिन है। पर चलना होगा हमें ... हम सबको.. हम सभी को मिलकर.. यदि मंजिल पाना है, जीने का हक छिनना है, अपनी खुद की कहानी खुद से लिखना है....कलम अपनी हो.. कागज अपना हो... कहानी अपनी हो... सुकून व सम्मान अपना हो। तो कोरोना युध्द में अभी यही कि लड़िये, आवाज उठाइए इससे पहले की लॉकडाउन आपके लिए किसी 'लॉकअप टॉर्चर रूम' में बदल जाए-

वक्त नाजुक है संभल कर रहिये। ये युद्ध थोड़ा अलग है... अलग-अलग रह कर ही लड़िये। 

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