Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

वरिष्ठ आलोचक गोपेश्वर और सुपरिचित आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी का संवाद

हमें फॉलो करें वरिष्ठ आलोचक गोपेश्वर और सुपरिचित आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी का संवाद
डॉ. प्रेमचंद 'महेश' सभागार, वाणी प्रकाशन
 
4 अप्रैल, शाम 5.00 बजे 
 
कार्यक्रम का विवरण-
 
दक्षिण एशिया के सबसे बड़े और पुराने किताबी गढ़ 'दरियागंज' की विस्मृत साहित्यिक शामों को फिर से एक बार विचारों की ऊष्मा से स्पंदित करने के लिए वाणी प्रकाशन ने एक नई विचार श्रृंखला 'दरियागंज की किताबी शामें' की शुरुआत की है। इसमें विमर्श की ऊष्मा के साथ शामिल होगी गर्म चाय की चुस्कियां, कागज की खुशबू और पुरानी दिल्ली का अपना खास पारंपरिक फ्लेवर। 
 
इस श्रृंखला की दूसरी कड़ी 4 अप्रैल को आयोजित की जाएगी- परिचर्चा का विषय होगा- 'आलोचना के परिसर : साहित्य का रचनात्मक प्रतिपक्ष'। इस विषय पर संवाद करेंगे वरिष्ठ आलोचक गोपेश्वर और सुपरिचित आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी। कार्यक्रम का आयोजन वाणी प्रकाशन के कार्यालय स्थित डॉ. प्रेमचंद 'महेश' सभागार में शाम 5.00 बजे आयोजित होगा।
 
'आलोचना के परिसर' पुस्तक
 
'आलोचना को लोकतांत्रिक समाज में साहित्य का सतत किंतु रचनात्मक प्रतिपक्ष' मानने वाले हिन्दी के वरिष्ठ आलोचक गोपेश्वर सिंह की यह पुस्तक हिन्दी आलोचना में आए नए बदलाव का प्रमाण है। हिन्दी आलोचना में कला और समाज को अलग-अलग देखने की शिविरबद्ध परिपाटियों से यह पुस्तक मुक्त करती है और आलोचना-दृष्टि में कला एवं समाज का सहमेल खोजती है।
 
गोपेश्वर सिंह रचना और आलोचना के किसी एक परिसर के हिमायती नहीं हैं। उनका कहना है- रचना जीवन के वैविध्य, विस्तार और गहराई की अमूर्तता को मूर्तरूप देने की सृजनात्मक मानवीय कोशिश है। दुनिया के साहित्य में इसी कारण वैविध्य एवं विस्तार है। हर बड़ा रचनाकार पिछले रचनाकार के रचना-परिसर का विस्तार करता है। इसी के साथ वह नया परिसर भी उद्घाटित करने की कोशिश करता है।
 
जब न तो जीवन का कोई एक रूप परिभाषित किया जा सका है और न रचना का, तब आलोचना को ही किसी परिभाषा में बांधने की कोशिश क्यों की जाए, उसे किसी एक परिभाषित परिसर तक सीमित क्यों किया जाए? रचना की तरह उसके भी क्या कई-कई परिसर नहीं होने चाहिए? जब दुनिया रोज बनती है, तब रचना भी रोज बनती है और आलोचना भी।
 
रोज-रोज बनने का यह जो सिलसिला है, वह किसी भी जड़ता और यथास्थिति के विरुद्ध सृजनात्मक पहल से ही संभव होता है। गोपेश्वर सिंह की प्रस्तुत आलोचना पुस्तक इस तरह की सृजनात्मक पहल का सुंदर उदाहरण है। नि:संदेह 'आलोचना के परिसर' नामक पुस्तक शिविरबद्ध आलोचना की छाया से मुक्त सामाजिकता और साहित्यिकता की नई दिशाओं का संधान करने की कोशिश का परिणाम है।

साभार - वाणी प्रकाशन
 
 

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

गर्मी के मौसम का सदाबहार ट्रेंड है 'फ्लोरल प्रिंट'... आप भी आजमाएं