वरिष्ठ कवि, उपन्यासकार, कला-फिल्म समीक्षक विनोद भारद्वाज ये मानते हैं कि किसी भी दौर में एक साथ लिखने वाले एक तरह से समकालीन ही होते है। दिनमान साप्ताहिक में रघुवीर सहाय द्वारा चुने जाने पर वह वहां लंबे समय तक पत्रकार रहे। आजकल लेखन के अलावा कला सम्बंधी फिल्में भी निर्देशित कर रहे हैं।
बिहार म्यूजियम और कलाकार स्वामीनाथन पर उनकी फिल्में काफी चर्चित रही हैं। तीन कविता संग्रह, तीन उपन्यास, एक कहानी संग्रह के अलावा सिनेमा और कला पर कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हालिया प्रकाशित यादनामा के दो खण्ड ख़ूब लोकप्रिय हुए। हार्पर कॉलिंस ने अंग्रेज़ी में उनके दो उपन्यास भी छापे हैं। 1989 में रूस के अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह की जूरी के सदस्य भी रह चुके हैं।
निर्णायक विष्णु खरे ने 1981 में विनोद भारद्वाज की कविता हवा को 1981 का प्रतिष्ठित भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार दिया था। उन्हें नामवर सिंह और मन्नू भंडारी, केशव मलिक इन तीन सदस्य के निर्णायक मंडल में श्रेष्ठ सर्जनात्मक लेखन के लिए संस्कृति पुरस्कार दिया मिल चुका है।
आज 7 अक्टूबर को विनोद भारद्वाज का जन्मदिवस है। इस अवसर पर पढ़ते हैं उनकी 5 कविताएं।
(1)
हिरणों का शिकार करती स्त्रियां
(अवध का एक पुराना मिनिएचर देखकर)
क्या कहा तुमने
शिकार भी करती हैं स्त्रियां
घने और बीहड़ जंगलों में जाती हैं
उनके कोमल हाथों में धनुष होते हैं
बंदूकों से वे अचूक निशाने लगाती हैं
वह एक तस्वीर थी
पांच औरतें थीं उसमें
और वे हरे रसीले चमकीले जंगल में
हिरणों का शिकार कर रही थीं
उनकी पोशाकें सुंदर थीं
बहुत सुंदर थीं उनकी पगड़ियां
उनके पैरों पर शानदार डिज़ाइन वाले जूते थे
लेकिन ज़रा हिम्मत तो देखिए
उन कमबख़्त हिरणों की
वे अपनी पूरी मस्ती में थे
हवा में उछल रहे थे
हरी घास की एक नई चमक को
अपनी छलांग में पहचान रहे थे
देखो उस गुलाबी पोशाक वाली सुंदरी को
वह कुछ कह रही है दूसरी से
उसके किसी निर्मम आदेश या
उसकी ख़तरनाक बंदूक के प्रति
उदासीन हैं ये हिरण
एक ने बड़ी ज़ोर से छलांग लगाई
दूसरे ने हरे रंग में अपना मुंह चमकाया
तीसरे ने शायद धीरे-से कुछ गाया
पांच स्त्रियां हैं इस जंगल में
शायद इसीलिए हिरण आश्वस्त हैं
मुस्टंडे मूंछों वाले महाराजा कहीं नज़र नहीं आ रहे
न ही उनके हाथियों, शिकारियों और चमचों ने
सारे जंगल को रौंद रखा है
यह एक अलग तरह का दिन है
एक दूसरी ही तरह का हरा रंग चमक रहा है
आज स्त्रियां शिकार करने को निकली हैं
क्या ये रानियां हैं?
ज़रूर ये रानियां ही होंगी
कुछ उनकी सेविकाएं होंगी और कुछ सखियां
बंदूक से टकटकी बांधकर
वे उस भव्य दृश्य को देख रही होंगी
क्या ये सचमुच शिकारी औरतें हैं?
अवध के किसी चित्रकार ने शायद नवाब के
मनोरंजन के लिए
तस्वीर बनाई हो
हो सकता है उसने सच्चाई ही दिखाई हो
भरोसे से कुछ कहा नहीं जा सकता
पर आपको आख़िर शक़ क्यों हो रहा है जनाब?
स्त्रियां बहुत बहादुरी के काम कर चुकी हैं
इस रक्तरंजित इतिहास में
कितनी अद्वितीय मिसालें मौजूद हैं
विदुषी, सुंदर और बहादुर स्त्रियों की
वे जो भी काम करती हैं
सलीके और सुंदरता से करती हैं
लेकिन हिरण कुछ और ही सोच रहे हैं
इस अद्वितीय क्षण में वे कवियों की तरह हो गए हैं
उन्हें विश्वास है स्त्रियां
स्त्रियों की तरह शिकार करेंगी
एक कुशल कोमलता और सुंदरता के साथ
और वे निश्चिंत होकर
एक शानदार, बहुत ऊंची और शायद
आख़िरी छलांग हवा में लगाते हैं.
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(2)
हवा
(1982 में भारतभूषण अग्रवाल सम्मान से पुरस्कृत कविता)शीरे की गंध में डूबा
एक गांव
मिल का मनेजर खुश है कि चीनी के बोरों पर
सर रख कर वह ऊंघ सकता है
काम पर जाने को भागते
फटिहल कारडों को पंचिग मशीन में फंसाते लोग
मिल के उस शोर में भूल जाते हैं
रसोईघर में से आने वाली ढेरों शिकायतें कि बर्तनों पर
जमने वाली धूल
उनका रंग बदलती है
शीरे की गंध में डूबे
गांव के लोग सूंघ नहीं पाते
मिल मनेजर के ख्याल में
यही बहुत है कि वे सुन लेते हैं
झुलसे हुए खेतों की रोशनी में दिखते उस
रास्ते में साइकिल खींचता नौजवान
गुस्सा हो जाता है
कीचड़ में पहिया धंसा कर
बताता है एक आदमी की कहानी
पचास साल पहले मर चुके आदमी की कहानी
जो लड़ा था
उसने किए थे आंदोलन
हवा और शीरे की गंध में
उसके बाल उड़ते हैं
उसे पूरी उम्मीद है कि हवा की गंध को
वह थोड़ा बचा सकेगा
बहुत थोड़े से पेड़ों से टकरा कर
जो एक जले हुए गड्ढों वाले खेत में
गायब हो जाती है
एक धर्मात्मा की कृपा से
उस उजाड़ के पुराने मंदिर के
सूखे तालाब में
पत्थर के खंभों के पलस्तर की सीलन से टकरा कर
हवा उस नौजवान के सीने में
उतर जाती है
हवा जिस में बड़ी तेज़ गंध है शीरे की.
(गहरी सामाजिक टिप्पणी, असंदिग्ध प्रतिबद्धता, बहुआयामी दृष्टी तथा भाषा एवं शिल्प पर विलक्षण नियन्त्रण. – विष्णु खरे)
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(3)
मोनालीसा 2020
स्त्री का रहस्य उसके बालों में है
उसकी आंखों में
या उसकी मुस्कान में
यह मेरी समस्या नहीं है
सारे मर्दवादी कवियों को मैंने कब से विदा दे रखी है लियोनारदो!
इस मास्क ने ज़रूर मेरी मुस्कान मुझसे छीन ली है
मेरी भीड़ कहीं बेरहमी से छिपा दी गयी है
बरसों पहले लोगों पर पाबंदी नहीं थी
वे मेरे पास आ सकते थे
मुझसे बातें कर लेते थे
कुछ उनके गुप्त रहस्य मैं जान जाती थी
कुछ औरतें मेरी सहेलियां बन जाती थीं
एक दिन उन्हें भी मुझसे दूर कर दिया गया
एक मज़बूत रस्सी का घेरा बना दिया गया
यह लक्ष्मण रेखा मेरे लिए नहीं थी
मेरे चाहने वालों के लिए थी
तुम्हें क्या सचमुच लगता है लियोनारदो
कि मुझे एक आराम की ज़रूरत थी,या एक गहरे अकेलेपन की
कमबख़्तों ने मुझे भी एक ख़ूबसूरत मास्क पहना दिया है
क्या उन्हें डर है कि यह महामारी मेरी रहस्यमय मुस्कान
मुझसे छीन लेगी
नहीं, डरो नहीं
मेरे पास आओ
मुझे छुओगे तो ख़तरे की घंटियां बज जायेंगी
पर मेरे बहुत क़रीब आ जाओ
आज मुझे तुम्हारी सबसे ज़्यादा ज़रूरत है
लूव्र के इस भयावह एकांत में
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(4)
उदास आंखें
जब तुम्हारी उदास आंखों को
देखता हूं
तो लगता है कि आज ईश्वर को किसी ने
परेशान किया है
जब तुम्हारी उदास आंखों को
देखता हूं
तो अमृत के किसी हौज में
कोई कंकड़ कहीं से उछलता है
आकर गिरता है
तुम्हारी उदास आंखों में
दुनिया भर की सुन्दरता का दर्द है
भय है
नजाकत है तुम्हारी उदास आंखों में
तुम रोने के बाद
आईने में जब देखती हो
तो माफ़ कर देती हो इस दुनिया को
तुम चुपचाप एक कोने में
सिमटकर बैठ जाती हो
जब तुम्हारी उदास आंखों को देखता हूं
डरता हूं
कांपता हूं
फिर ईश्वर की तरह चाहता हूं
इन उदास आंखों को
इन आंखों के पीछे
कई सारी आंखें हैं
क्षण भर के लिए उदास
क्षण भर के लिए बहुत पास
इन उदास आंखों को देखता हूं
तो लगता है कि
ईश्वर को किसी ने गहरी नींद से
जगाया है
कि देखो दुनिया कितनी उदास हो चुकी है
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(5)
दार्शनिकों का रास्ता
साकुरा के झरते हुए सुंदर फूलों के नीचे
एक रेढ़ी में क्योतो का एक प्राचीन बूढ़ा नज़र कमज़ोर होते हुए भी
अपने बारीक काम में व्यस्त था
मैंने उसे सुकरात समझ कर पूछा
यह तो बताइए जनाब
यह रास्ता कवियों का क्यूं नहीं है?
यह रास्ता उन्हीं का होना चाहिए था
भले ही एक बड़ा दार्शनिक सचमुच यहां आकर घूमते हुए बड़बड़ाता रहता था
कवियों के कोई रास्ते नहीं होते अरे, भले कवि
वे जिस रास्ते पर चलते हैं
वे दूसरे रास्तों की भूलभुलैया में भटक जाते हैं
हर सुंदर फूल, पेड़, पुल पर वे कविता लिखना चाहते हैं
उनका कोई रास्ता मत बनाओ
इतना पैदल उन्हें चलने दो कि वे बुरी तरह से थक जाएं
उनके पैर लहुलुहान हों
और हांफते हुए कहें
मुझे कोई रास्ता नहीं चाहिए
मुझे भ्रम हुआ थोड़ी देर के लिए
रघुवीर सहाय कह रहे हैं मुझसे
रास्ता इधर से है!