Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

जयंती विशेष : सच्चे अर्थों में राष्ट्रीय कवि थे मैथिलीशरण गुप्त

हमें फॉलो करें जयंती विशेष : सच्चे अर्थों में राष्ट्रीय कवि थे मैथिलीशरण गुप्त
webdunia

ललि‍त गर्ग

Maithili Sharan Gupt
 
पर्वतों की ढलान पर हल्का हरा और गहरा हरा रंग, एक-दूसरे से मिले बिना फैले पड़े हैं....। कैसा सही वर्णन किया है किसी साहित्यकार ने। लगता है कि हमारे मन की बात को किसी ने शब्द दे दिए। ठीक इसी प्रकार अगर हम ऊपर उठकर देखें, तो दुनिया में अच्छाई और बुराई अलग-अलग दिखाई देगी। भ्रष्टाचार के भयानक विस्तार में भी नैतिकता स्पष्ट अलग दिखाई देगी। आवश्यकता है कि नैतिकता एवं राष्ट्रीयता की धवलता अपना प्रभाव उत्पन्न करे और उसे कोई दूषित न कर पाए। इस आवाज को उठाने और राष्ट्रजीवन की चेतना को मंत्र-स्वर देने वाले राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त सच्चे अर्थों में राष्ट्रीय कवि थे।


उन्होंने आम-जन के बीच प्रचलित देशी भाषा को मांजकर जनता के मन की बात, जनता के लिए, जनता की भाषा में कही, इसलिए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने उन्हें राष्ट्रकवि का सम्मान देते हुए कहा था - मैं तो मैथिलीशरणजी को इसलिए बड़ा मानता हूं कि वे हम लोगों के कवि हैं और राष्ट्रभर की आवश्यकता को समझकर लिखने की कोशिश कर रहे हैं।’ 
 
इनके रचनाओं में देशभक्ति, बंधुत्व भावना, राष्ट्रीयता, गांधीवाद, मानवता तथा नारी के प्रति करुणा और सहानुभूति के स्वर मुखर हुए। इनके काव्य का मुख्य स्वर राष्ट्र-प्रेम, आजादी एवं भारतीयता है। वे भारतीय संस्कृति के गायक थे। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के मार्गदर्शन में जिन कवियों ने ब्रज-भाषा के स्थान पर खड़ी बोली हिन्दी को अपनी काव्य-भाषा बनाकर उसकी क्षमता से विश्व को परिचित कराया, उनमें गुप्तजी का नाम सबसे प्रमुख है। उनकी काव्य-प्रतिभा का सम्मान करते हुए साहित्य-जगत उन्हें राष्ट्रकवि के रूप में याद करता रहा है।
 
 
देश एवं समाज में क्रांति पैदा करने का उनका दृढ़ संकल्प समय-समय पर मुखरित होता रहा है। वे समाज के जिस हिस्से में शोषण, झूठ, अधिकारों का दमन, अनैतिकता एवं पराधीनता थी, उसे वे बदलना चाहता थे और उसके स्थान पर नैतिकता एवं पवित्रता से अनुप्राणित आजाद भारत देखना चाहते थे। इसलिए वे जीवनभर शोषण और अमानवीय व्यवहार के विरोध में आवाज उठाते रहे। उनकी क्रांतवाणी उनके क्रांत व्यक्तित्व की द्योतक ही नहीं, वरन धार्मिक, सामाजिक विकृतियों एवं अंधरूढ़ियों पर तीव्र कटाक्ष एवं परिवर्तन की प्रेरणा भी है। जीवन में सत्यं, शिवं और सुंदरं की स्थापना के लिए साहित्य की आवश्यकता रहती है और ऐसे ही साहित्य का सृजन गुप्तजी के जीवन का ध्येय रहा है। 
 
मैथिलीशरण गुप्त का जन्म झांसी के समीप चिरगांव में 3 अगस्त, 1886 को हुआ। बचपन में स्कूल जाने में रूचि न होने के कारण इनके पिता सेठ रामचरण गुप्त ने इनकी शिक्षा का प्रबंध घर पर ही किया था और इसी तरह उन्होंने संस्कृत, अंग्रेजी और बांग्ला का ज्ञान प्राप्त किया। काव्य-लेखन की शुरुआत उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं में अपनी कविताएं प्रकाशित कर की। इन्हीं पत्रिकाओं में से एक 'सरस्वती' आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के संपादन में निकलती थी। युवक मैथिली ने आचार्यजी की प्रेरणा से खड़ी बोली में लिखना शुरू किया। 1910 में उनकी पहला प्रबंधकाव्य 'रंग में भंग' प्रकाशित हुआ। 
 
'भारत-भारती' के प्रकाशन के साथ ही वे एक लोकप्रिय कवि के रूप में स्थापित हो गए। उनकी भाषा एवं सृजन से हिन्दी की साहित्यिक भाषा का विकास हुआ। उन्होंने पराधीनता काल में मुंह खोलने का साहस न करने वाली जनता का नैराश्य-निवारण करके आत्मविश्वास भरी ऊर्जामयी वाणी दी, इससे ‘भारत-भारती’ जन-जन का कंठहार बन गई थी। इस कृति ने स्वाधीनता के लिए जन-जागरण का शंखनाद किया। हिन्दी साहित्य में गद्य को चरम तक पहुंचाने में जहां प्रेमचंद्र का विशेष योगदान माना जाता है, वहीं पद्य और कविता में राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त को सबसे आगे माना जाता है। 
 
साहित्यकार किसी भी देश या समाज का निर्माता होता है। इस मायने में मैथिलीशरण गुप्त ने समाज और देश को वैचारिक पृष्ठभूमि दी, जिसके आधार पर नया दर्शन विकसित हुआ है। उन्होंने शब्द शिल्पी का ही नहीं, बल्कि साहित्यकार कहलाने का गौरव प्राप्त किया है, जिनके शब्द आज भी मानवजाति के हृदय को स्पंदित करते रहते हैं। 12 साल की उम्र में ही उन्होंने कविता रचना शुरू कर दी थी। “ब्रजभाषा” में अपनी रचनाओं को लिखने की उनकी कला ने उन्हें बहुत जल्दी प्रसिद्ध बना दिया। प्राचीन और आधुनिक समाज को ध्यान में रखकर उन्होंने कई रचनाएं लिखीं। गुप्तजी स्वभाव से ही लोकसंग्रही कवि थे और अपने युग की समस्याओं के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील रहे। उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से जन जागरण का काम किया। भारत की आजादी में उनका उल्लेखनीय योगदान है।
 
 
महात्मा गांधी के भारतीय राजनीतिक जीवन में आने से पूर्व गुप्तजी का युवा मन गरम दल और तत्कालीन क्रांतिकारी विचारधारा से प्रभावित हो चुका था। लेकिन बाद में महात्मा गांधी, राजेन्द्र प्रसाद, जवाहर लाल नेहरू और विनोबा भावे के संपर्क में आने के कारण वह गांधीवाद के व्यावहारिक पक्ष और सुधारवादी आंदोलनों के समर्थक बने। देशभक्ति से भरपूर रचनाएं लिख उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में एक अहम काम किया। 
 
वे भारतीय संस्कृति एवं इतिहास के परम भक्त थे। परंतु अंधविश्वासों और थोथे आदर्शों में उनका विश्वास नहीं था। वे भारतीय संस्कृति की नवीनतम रूप की कामना करते थे। पवित्रता, नैतिकता और परंपरागत मानवीय संबंधों की रक्षा गुप्त जी के काव्य के प्रथम गुण हैं, जो पंचवटी से लेकर ‘जयद्रथ वध’, ‘यशोधरा’ और ‘साकेत’ तक में प्रतिष्ठित एवं प्रतिफलित हुए हैं। ‘साकेत’ उनकी रचना का सर्वोच्च शिखर है। लेकिन ‘भारत-भारती’ उनकी सबसे प्रसिद्ध रचना मानी जाती है। इस रचना में उन्होंने स्वदेश प्रेम को दर्शाते हुए वर्तमान और भावी दुर्दशा से उबरने के लिए समाधान खोजने का एक सफल प्रयोग किया है। कला और साहित्य के क्षेत्र में विशेष सहयोग देने वाले गुप्तजी को 1952 में राज्यसभा सदस्यता दी गई और 1954 में उन्हें पद्मभूषण से नवाजा गया। इसके अतिरिक्त उन्हें हिन्दुस्तानी अकादमी पुरस्कार, साकेत पर इन्हें मंगला प्रसाद पारितोषिक तथा साहित्य वाचस्पति की उपाधि से भी अलंकृत किया गया। काशी विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.लिट्. की उपाधि प्रदान की।

 
गुप्त जी ने हिन्दी कविता को रीतिकालीन श्रृंगार-परंपरा से निकालकर तथा राष्ट्रीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की संजीवनी से अभिसंचित करके लगभग छह दशक तक हिन्दी काव्यधारा का नेतृत्व किया। ऋग्वेद के मंत्र ‘श्रेष्ठ विचार हर ओर से हमारे पास आवें’ को हृदयंगम करके राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, कौटिल्य, गुरुवाणी, ईसा तथा माक्र्स के विचार-सार को ग्रहणकर, बिना अंग्रेजी पढ़े लिखे, बुंदेलखंड के पारंपरिक गृहस्थ जीवन में सुने आख्यानों को सुन-समझकर स्वाध्यायपूर्वक लोकमंगलमय साहित्य रचा। वाचिक परंपरा के सामीप्य से वे लोकचित्त के मर्मज्ञ बने, इससे उनके काव्य में लोक संवेदना, लोक चेतना तथा लोक प्रेरणा की त्रिवेणी प्रवाहित हो रही है।

 
अस्मिता बोध की आधारशिला पर युगानुरूप भावपक्ष पर रचना-प्रवृत्तियों के वैविध्य से उनका रचना संसार लोकप्रिय हुआ। उनका साहित्य गांव-गली तक आमजन की समझ में आने वाला है साथ ही मनीषियों के लिए अनुशीलन, शोध तथा पुनःशोध का विषय है। वे परंपरावादी होते हुए भी शास्त्रों की व्याख्या युग की परिस्थितियों के अनुरूप करने के पक्षधर थे। प्रकृति तथा सौन्दर्य का कवि न होते हुये भी प्रसंगानुकूल रागात्मकता उनके काव्य का महत्वपूर्ण पक्ष है।

 
आज जब हम भारत को पुनः ‘विश्वगुरु’ तथा ‘सोने की चिड़िया’ के रूप में देखने के लिये प्रयत्नशील है, तब गुप्तजी के अवदान हमारी शक्ति बन रहे हैं। यही कारण है कि अनेक संकटों एवं हमलों के बावजूद हम आगे बढ़ रहे हैं। ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी’-आज भारत की ज्ञान-संपदा नई तकनीक के क्षेत्र में वैश्विक-स्पर्धा का विषय है। लड़खड़ाते वैश्विक आर्थिक संकट में भारत की स्थिति बेहतर है। नयी सदी के इस परिदृश्य में, नयी पीढ़ी को देश के नवनिर्माण के सापेक्ष अपनी भूमिका सुनिश्चित करनी है। जब तक नैराश्य से निकलकर आशा और उल्लास की किरण देखने का मन है, आतंकवाद के मुकाबले के लिए निर्भय होकर अडिग मार्ग चुनना है, कृषकों-श्रमिकों सहित सर्वसमाज के समन्वय से देश को वैभव के शिखर पर प्रतिष्ठित करने का स्वप्न है, तब तक गुप्तजी का साहित्य प्रासंगिक है और रहेगा।

 
‘हम कौन थे क्या हो गए और क्या होंगे अभी’ पर चिंतन और मनन अपेक्षित है, उससे दशा के सापेक्ष दिशा भी मिलेगी तथा भारत पुनः विश्वगुरु बन सकेगा। प्रसिद्ध साहित्यकार सोल्जेनोत्सिन ने साहित्यकार के दायित्व का उल्लेख करते हुए कहा हैं- मानव-मन, आत्म की आंतरिक आवाज, जीवन-मृत्यु के बीच संघर्ष, आध्यात्मिक पहलुओं की व्याख्या, नश्वर संसार में मानवता का बोलबाला जैसे अनादि सार्वभौम प्रश्नों से जुड़ा है साहित्यकार का दायित्व। यह दायित्व अनंत काल से है और जब तक सूर्य का प्रकाश और मानव का अस्तित्व रहेगा, साहित्यकार का दायित्व भी इन प्रश्नों से जुड़ा रहेगा और तब तक गुप्तजी के अवदानों के प्रति हम नत होते रहेंगे।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

हिन्दी कविता : क्यों इतने महंगे स्कूल