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तीन तलाक पर हिन्दी में कविता

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डॉ. अनिता कपूर


कल ही तो ऊपर सूर्य ग्रहण लगा था
आज नीचे औरत के आकाश का सूर्य ग्रहण हट गया
अब दिखेंगी पगडंडियां पर्दे के पीछे वाली आंखों को भी
अमावस जैसे हर बुर्के के माथे पे उगेंगे छोटे नन्हे चांद
पहला पड़ाव है यह तो
मंज़िलें बच कर कहां जाएंगी?
अब तीन लफ्जों को इतिहास बनना ही होगा...
तुम्हारे हित में,
सिवाय चुप रहने के
और कुछ नहीं किया उसने
तुमने उसकी चुप को
अपने लिए सुविधाजनक मान लिया
उसने तुम्हें स्वीकारा था
अंतरमन से चाहा था
तुम्हारे दिखाए सपनों के
इंद्रधनुषी झूले से झूली थी
तुम्हारी उंगली पकड़
तुम्हारी ही बनाई सड़क पर
चलने लगी थी वो
तुम बन गए थे
उसकी पूरी दुनिया
और तुमने क्या किया...
बाज़ार में चलते-चलते ही
थोड़ा सा तुमसे आगे क्या निकली
तुमने मर्द होने के मद में
इतनी सी बात पर
फिर उन तीन लफ्जों का तीर छोड़ दिया
तीन लफ्जों को इतिहास बनना ही होगा...
तुम अपने छोर
अपनी दुनिया के खूंटों पर 
अटका कर आते रहे
और वो ढंकी औरत
अपने होने के कुछ मानी को माने
तो तुमसे छूट जाती रही 
तुम्हारे छोर को पकड़ती
तो खुद से छूट जाती रही
सोचती ऐसा क्या करूं 
कि, तुम उसके साथ भी चलो
और वो भी तुम्हारे साथ-साथ चले
बहुत दिखा दिया तुमने
और देख लिया उसने
उसके हिस्से के सूरज को
तीन लफ्जों की ओट से
तुमने ग्रहण लगाए रखा सदियों से 
वो तुम्हारे अहं के लाक्षागृह में
खंडित इतिहास की कोई मूर्ति नहीं थी
नहीं चाहिए उसे अब अपनी आंखों पर
तुम्हारा चश्मा
अब वो अपना कोई छोर तुम्हें नहीं पकड़ाएगी 
दर्द की तेज़ धार पर चलते-चलते
घावों को लिखती यह औरतें
उस औरत ने भी आज
सीख लिया है
ग्रहण पार देखना
पहला पड़ाव है यह तो
मंज़िलें बच कर कहां जाएंगी?
तीन लफ्जों को इतिहास बनना ही होगा...
इतिहास को इतिहास ही रहने दो
उस औरत ने नया आकाश तराशने के लिए
एक नई औरत को
आमंत्रण दिया है
देखना तुम...
पहला पड़ाव है यह तो उसका
तुम्हें तो साथ आना ही होगा
फिर मंज़िलें बच कर कहां जाएंगी?

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