चुनाव होते हैं प्रजातंत्र के सामयिक यज्ञ-अनुष्ठान।
अपेक्षा है कि उनमें दी जाएं समयोचित आहुतियां।।
ताकि उठे खुशबू सुविचार की, सुचिंतन की,
जो दिशा दे देश/ समाज के भावी जीवन को।।1।।
आकलन हो अब तक की प्रगति का, उपलब्धियों का।
सत्ता में बैठे लोगों/ दलों की संकल्पशीलता, कार्यक्षमता का।।
आमजन की प्रतिक्रियाओं का, उनके सुख-दु:ख का।
एक ऐसा दर्पण जो प्रतिबिंबित करे समुचित जन-मन को।।2।।
पर जो कुछ हो रहा है अभी, जो वर्णित/ प्रदर्शित है मीडिया/ अखबारों में।
हाय! उक्त आदर्शों के दूर तक करीब नहीं।।
खींच-तान, उठा-पटक, आक्षेप-युद्ध अशोभन बयान,
हम सजग नागरिकों को क्यों अच्छी खबरें नसीब नहीं।।
दूर तक वितृष्णा से भर देता है सब,
विचलित कर देता है अंदर तक मन को।।3।।
पर यह सब जो कर रहा है, एक छोटा-सा वर्ग है।
सत्तालोलुप, धंधेबाज, राजनीति का माफिया, बेशर्म।
शेष उनसे जुड़े लोग तो अंधे/ नासमझ पिछलग्गू हैं।
मतदाता देख रहा है तमाशा सांस रोके चुपचाप।
अपनी मुट्ठी में थामे शायद सजग निर्णय के क्षण को।।4।।