रीमा दीवान चड्ढा
एक दिन
तुम थक जाओगे
लड़ते लड़ते
ईर्ष्या करते करते
द्वेष में कुढ़ते कुढ़ते
बदले की भावना में
सुलगते सुलगते
तब ...
सोचने समझने लगो
शायद झांकने लगो
मन मस्तिष्क के
कोमल तंतुओं को
छूने की एक कोशिश
शायद करने लगो
तब बारिश की बूंदों में
सरगम सुनाई देगी तुम्हें
फूलों में महकती खुशबुएँ
लुभाएंगी तुम्हें
पेड़ पत्तों से बात करोगे तुम
कोयल की कुहुक सुहाएगी
प्रेम की कविता
तुम्हें भी गुदगुदाएगी
बांसुरी की तान पसंद आएगी तुम्हें
मन वीणा के तार संग बजने लगेंगे
तुम लौटोगे अपने अस्तित्व की ओर
पहचानोगे....हां मैं जन्मा था
धरती पर ......
इसे और सुंदर
और बेहतर
और अच्छा
बनाने के लिए
तब तुम्हारी आंखें भीग जाएंगी
तुम्हारा हृदय लरज जाएगा
तब अपने हाथों से
बोओगे नेकियों के बीज
सद्भावनाओं की लहर उठेगी
तुम अपने मनुष्य जन्म पर
कतई शर्मिंदा नहीं होओगे
समेट लेने से ऊब जाओगे
बांटने को आतुर हो जाओगे
प्रेम ,स्नेह ,दोस्ती ,भाईचारा
ये शब्द खोखले नहीं लगेंगे तुम्हें
तुम इनके मायने समझ जाओगे
तुम प्रेम से बांहें फैलाए
लोगों को गले लगाओगे
समय की घड़ियां तब ही
जीवन की सुंदरता का
नया गान लिखने लगेंगी
लोग मुस्कुराने लगेगे
हंसने लगेंगे ....
खिलखिलाने लगेंगे
खुशी के गीत गाने लगेंगे
कविताएं लिखने लगेंगे
पढ़ने पढ़ाने लगेंगे
रूठ गए हैं जो मौसम
सदी के कैलेण्डर से
समय की धारा का नाम लिए
वही मौसम फिर आने लगेंगे......
कहो तुम भी
ऐसे सुंदर समय को आने में
और कितने ज़माने लगेंगे......??