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हिन्दी कविता : ग्राम देवता

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राकेशधर द्विवेदी

हे ग्राम देवता तुम्हें प्रणाम
बार-बार करता है यह हाथ
तुम्हें सलाम।


 

तुम्हीं तो हैं जिसने चीरा है
धरती का वक्षस्‍थल
निकाले हैं मोतियों के
दाने। 
 
जिसने पूर्ण की क्षुधा
हम जैसे परजीवियों की
धूप हो या वर्षा
शिशिर हो या आंधी-तूफान।
 
तुम निरंतर करते रहते
दूसरों को जीवन देने का अभ्यास
फिर भी रहते हो निश्चल, निर्भय और
निर्विकार
जैसे कर रहे हो किसी अपूर्ण कल्पना को
साकार।
 
राजनेता भी करते रहते तुमसे झूठे वादे
सत्ता ने कभी नहीं समझे तुम्हारे इरादे
फिर भी तमाम झंझावातों के बीच
तुम हो पालनहार।
 
जैसे कह रहे हो
मैं नीलकंठ हूं
आया हूं इस धरती पर
दुख को कम करने के लिए।
 
मानता सौंदर्य जीवन की
कला का संतुलन हूं
इसलिए निर्मल, निरंजन और निडर हूं
आत्मचिंतन, आरंभ परिष्करण,
 
आत्ममंथन से
प्रबल हूं
आत्मा का अंश भी हूं
सर्वसुलभ हूं।

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