सूर्य की प्रथम रश्मि
देर तक रही उनींदी
बलपूर्वक जागी
भरी अंगड़ाई
अधमुंदे नैनों से सूर्य को देख
लजाई
नेह से मुस्काई
बादलों के निविड़ में बसी नमी से नहाई
सिन्दूरी प्रभा से श्रृंगार किया
फिर मुड़ी सूर्य की ओर..
परंतु असाध्य है समय का पहिया
लौटता नहीं
आगे ही धकियाता है..
भारी मन सूर्य से विलग हुई
धरती के किसी अंश को सवार कर
वहीं बिखर गई..
कि विच्छेद ही आरम्भ था उसका
विभक्ति ही प्रारब्ध है
और विरह ही अंत होगा...