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नारी शोषण पर कविता : चलते-चलते

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पुष्पा परजिया

ओह ये याद ऐसी चीज है 
कि जितना भुलाना चाहो 


 
उतना ही ज्यादा याद आती है 
साथ-साथ यादों के घरौंदे बनाती है
एक टीस दे जाती तन्हाइयों में 
और दिलों का कत्ले आम किए जाती है
 
बन जाते हैं रुसवाइयों के बवंडर,
और अंखियों से अंसुवन धार निकल जाती है 
अंधियारे, उजियारे पथ पर चलते-चलते 
एक टूटी तस्वीर उभर जाती है 
 
गमे दिल की आगोश में उसकी आहें सुनी जाती हैं
अब तो बस रह गई हैं तन्हाइयां और रह गए ख्वाबों के साये
जिसमें अब सिसकियां डुबकी लगाती हैं 
जख्मे दिलों पे राज करते हैं अब शबनम के आंसू
जिन्हें आकर एक आह पोंछ जाती है
 
वो तो सो गई सदा के लिए और 
ठंडी राख भी हो गई चिता की 
फिर भी मन के अंधियारे को हरदम वो झकझोर जाती है
 
चलते-चलते देखती बेबस नजरों से दुनिया को मानो
कहके जाती है, रख लो लाज अब भी बहना की 
वर्ना अगली लड़की फिर से लूटी जा सकती है।

 


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