Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

साहित्य सम्मेलनों में फिल्म-जगत की घुसपैठ बर्दाश्त नहीं : चित्रा मुद्गल

हमें फॉलो करें साहित्य सम्मेलनों में फिल्म-जगत की घुसपैठ बर्दाश्त नहीं : चित्रा मुद्गल
साहित्यिक सम्मेलनों में फिल्मी हस्तियों की भरमार पर भड़कीं चित्रा मुद्गल
 
देश के साहित्य सम्मेलनों के मंचों पर प्रमुख वक्ताओं के रूप में फिल्मी दुनिया के लोगों की तादाद बढ़ने को लेकर मशहूर कथाकार चित्रा मुद्गल ने कड़ी नाराजगी जताई  है। उनका कहना है कि इन सम्मेलनों में महज भीड़ जुटाने के लिए फिल्मी हस्तियों को बुलाए जाने का चलन हर्गिज ठीक नहीं है और साहित्य के मंचों पर साहित्यकारों को उनका वाजिब महत्व दिलवाया जाना चाहिए। 
 
चित्रा जी ने 15 से 17 दिसंबर के बीच आयोजित इंदौर लिटरेचर फेस्टिवल में भाग लेने के दौरान विशेष बातचीत की। हालांकि, साहित्य जगत के इस सालाना जमावड़े में उनके साथ किसी फिल्मी शख्सियत को मंच साझा करते नहीं देखा गया। मुद्गल ने कहा, 'कुछ आयोजक तर्क रखते हैं कि ​फिल्मी दुनिया के लोगों को साहित्य सम्मेलनों में इसलिए बुलाया जाता है, क्योंकि उनके नाम पर आसानी से भीड़ जुट जाती है। 
 
लेकिन मैं एक श्रमजीवी लेखिका के रूप में इस चलन से कतई सहमत नहीं हूं। अगर आयोजकों को फिल्मी दुनिया के लोगों को भी बुलाना है, तो उन्हें साहित्य सम्मेलनों का नाम बदलकर साहित्य, कला और फिल्म सम्मेलन कर देना चाहिए।
 
 यह पूछे जाने पर कि क्या देश के साहित्य सम्मेलनों में फिल्मी हस्तियों के प्रति श्रोताओं के बढ़ते आकर्षण के कारण साहित्यकार तबका उनसे ईर्ष्या महसूस कर रहा है, 73 वर्षीय साहित्यकार ने तुरंत जवाब दिया, 'इसमें ईर्ष्या जैसी कोई बात नहीं है। हम बस इतना चाहते हैं कि साहित्य सम्मेलनों में साहित्यकारों को उनका वाजिब महत्व दिलवाया जाए।'  
 
चर्चित उपन्यास 'आवां' की लेखिका ने हालांकि कहा, 'मुझे उन निर्देशकों को साहित्य सम्मेलनों के मंच पर बुलाए जाने को लेकर आपत्ति नहीं है, जिन्होंने साहित्यिक कृतियों पर फिल्में बनायी हों।' 
 
उन्होंने कहा, 'एक जमाने में साहित्यिक आयोजनों में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और हरिवंश राय बच्चन जैसे नामी कवियों की एक झलक पाने के लिए लोग बैलगाड़ियों में सवार होकर दूर-दूर से रात भर सफर कर आते थे, क्या कोई फिल्मी गीतकार लोकप्रियता के पैमानों पर इन कवियों सरीखी ऊंचाइयां हासिल कर सका है।' 
 
खांटी साहित्यकारों से फिल्मी दुनिया में सौतेले बर्ताव का मुद्दा उठाते हुए वह कुछ तल्ख स्वर में पूछती हैं, 'इन दिनों साहित्य सम्मेलनों के मंचों पर फिल्मी हस्तियां तो बड़ी तादाद में नजर आती हैं। लेकिन फिल्मी दुनिया के समारोहों में कितने साहित्यकारों को बुलाया जाता है।' 
 
मशहूर गीतकार जावेद अख्तर देश के अलग-अलग शहरों में आयोजित साहित्य सम्मेलनों में बराबर अपनी मौजूदगी दर्ज कराते हैं, उनका जिक्र छिड़ा, तो वरिष्ठ लेखिका ने कहा, 'जावेद के पिता (जां निसार अख्तर) अपने जमाने के बड़े शायर रहे हैं और हमें उन पर गर्व है, लेकिन जावेद ने ज्यादा पैसे और लम्बी गाड़ी के लिए 'एक लड़की को देखा, तो ऐसा लगा' जैसे गीत लिखने मंजूर किए...' 
 
चित्राजी ने कहा कि अमृतलाल नागर और मनोहर श्याम जोशी जैसे बड़े साहित्यकार भी एक समय फिल्मी दुनिया में गए थे, लेकिन कुछ बरस बाद वे साहित्य जगत में लौट आए, क्योंकि उन्हें अपने लेखकीय मूल्यों से समझौता बर्दाश्त नहीं था। बॉलीवुड की फिल्मों ने हिन्दी को दुनिया भर में पहुंचाने में बड़ी भूमिका निभाई है। फिल्मी लेखकों और साहित्यकारों के योगदान का अलग-अलग मूल्यांकन किया जाना चाहिए।
 
चित्रा जी ने कहा, 'कुछ साल पहले मैं जब सूरीनाम गई, तो मैंने वहां की सड़कों पर सलमान खान की फिल्म दबंग का एक गीत बजते सुना। मुझे इससे खुशी भी हुई। फिल्मों के जरिए हिन्दी भाषा का वैश्विक प्रसार तो हुआ है, लेकिन इस माध्यम में हिन्दी साहित्य को पर्याप्त बढ़ावा नहीं दिया गया है। बताइए, हमारे यहां साहित्यिक कृतियों पर कितनी फिल्में बनती हैं? 

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

पार्टनर को चुनने के ये 5 टिप्स बदल देंगे आपकी जिंदगी