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लघुकथा : जिजीविषा

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सुशील कुमार शर्मा

मुंबई से बिहार जाने वाली ट्रेन से वह सफर कर रहा था। अत्यधिक गर्मी थी। बोगी ठसाठस भरी थी। वह बोगी के गेट पर बैठा था। अचानक नींद का झोंका आया और वह छिटककर ट्रेन के नीचे आ गया। एक चीख के साथ ट्रेन धड़धड़ाती हुई निकल गई। 
 
जब उसे होश आया तो उसने देखा कि उसके दोनों पैर कट चुके हैं। उनमें से खून बह रहा। उसने सोचा कि अब तो जिंदगी के कुछ पल शेष हैं। उसने देखा कि पैर अभी पूरे नहीं कटे हैं, लटके हैं। उसने हिम्मत नहीं हारी। दोनों पैरों को उसने फिर से जमाया। पास ही उसका बैग पड़ा था। उसमें से गमछा निकालकर उसने किसी तरह बांध लिया। सांसें आधी-अधूरी-सी चल रही थीं। धीरे-धीरे बेहोशी छाने लगी और वह फिर से बेहोश हो गया। लगा सब कुछ खत्म! सुबह की पो फटने वाली थी। 
 
जब उसे फिर होश आया तो एक ट्रेन की आवाज सुनाई दी। न जाने उसमें कहां से इतनी
शक्ति आ गई कि वह लुढ़ककर पटरियों के बाजू हो गया और खून से लथपथ शर्ट हिलाने लगा। ट्रेन के ड्राइवर ने उसे दूर से ही देख लिया और उसने ट्रेन रोकी। कुछ साहसी युवकों ने उसे ट्रेन में उठाकर चढ़ाया, तब तक वह बेहोश हो चुका था। 
 
उसे जब होश आया तो उसने देखा कि वह अस्पताल के ऑपरेशन थिएटर में है। उसके दोनों पैरों का ऑपरेशन हो चुका है। दोनों पैर कट गए हैं किंतु उसका जीवन बच गया। डॉ. सहित सभी लोग हैरान थे कि यह व्यक्ति बच कैसे गया? 
 
आखिरकार जीने की जिजीविषा ने उसे नया जीवन प्रदान किया।

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