शशि की आदत थी महीने का बजट बनाने की। उन्होंने अपनी मां को यही करते देखा था। सुमेर को कोई मतलब नहीं था क्योंकि वे एक तय राशि अपनी पत्नी को सौंप कर बरी हो जाते थे। अब वह राशि कम पड़ती है या ज्यादा है- तो भी उन्हें कोई लेना-देना नहीं था।
उस दिन अनायास ही हिसाब की डायरी सुमेर के हाथ लगी। पिछले 2-3 महीनों के खर्च के पन्ने उलटे-पुलटे कर वे थोड़े हैरान हो गए। दिए गए रुपयों से ज्यादा का खर्च नजर आ रहा था।
तभी उनका ध्यान गया। हर खर्च लिखा था, लेकिन पत्नी के मोबाइल बिल का कोई हिसाब नहीं था।
‘शशि.......' वे विस्मित थे। 'तुम्हारा मोबाइल बिल इसमें कहीं नहीं है' वे पन्ने पलटते जा रहे थे।
'जी.....' शशि ने जवाब दिया- 'क्योंकि मेरा बिल शानू भरती है..... डायरेक्ट उसके अकाउंट से.......'
'वो क्यों.......?' सुमेर असमंजस में थे।
'वो इसलिए पापा..... ऑफिस से लौटी शानू ने तभी भीतर कदम रखा- 'कि मां ने बोलना सिखाया है, बातें करना सिखाया है, तो मां की अनमोल बातों का छोटा-सा शुल्क तो मैं वहन कर ही सकती हूं ना.....!
'है ना मां.....?'
उसने मुस्करा कर मां-पापा की ओर देखा।
मां ने बिना बोले ही उसे सब कुछ कह दिया।