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कहानी : तीर हर शख़्स की कमान में है...

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- सुशील केकान 'सिफ़र' 
    


अप्रैल-मई का महीना चल रहा है। जनता, पशु-पक्षी, वृक्ष-लताएँ मारे गर्मी के परेशानी से बेहाल हैं। सूर्य माथे पर आग बरसा रहा है। ऐसी परिस्थिती में अमोल नाम का एक शख्स बस स्टॉप पर बस की राह देख रहा था।

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एक पेड़, जो पतझड़ के चलते सूनी-सूनी और नुकीली-सी टहनियों से साया देने की कोशिश में महज़ कुछ फीसद ही कामयाब था। उसी के छितराए साए तले खड़ा अमोल तीर-सी चुभती धूप से बचने की लगभग नाकाम कोशिश कर रहा था। चारों और धूप का समुंदर लहराता हुआ दिख रहा था। तमतमाती हुई मिट्टी, धूल की शक्ल में चारों और बिखरी हुई थी। और हवा के गर्म थपेड़ों के साथ यहां से वहां अस्तित्वहीन होकर बिखरती जा रही थी। सब तरफ धूल ही धूल, धूप ही धूप!
 
ऐसी स्थिती में पसीने से लथपथ अमोल, करीब आधे-पौन घंटे से बस की प्रतिक्षा कर रहा था। वैसे तो बस के आने का समय हो चुका था, लेकिन बस अभी तक रास्ते पर दूर दूर तक दिखाई नहीं दे रही थी। उसके होंठ भी सूख रहे थे, सो अलग। बोतल का बचा-खुचा पानी भी मानो उबल गया था। मगर, अपने पास कम-से-कम पानी है तो सही, बस इसी बात का सुकून था उसे। इतने में उसे दूर सड़क पर धूल का एक गुबार-सा उड़ता दिखाई दिया। एक बस तेजी से दौड़ी आ रही थी। हवा के गर्म थपेड़ों के बीच, इस जानलेवा गर्मी में भी धूल-मिट्टी उड़ाती चली आ रही बस अपनी मस्ती में मस्त नज़र आ रही थी। जैसे ही बस नजदीक आई, अमोल ने राहत की साँस ली। गुर्राती हुई घर्घर्घरर्र की आवाज धीमी हुई, बस रुक गई। कुछ ही पलों में बस के साथ उड़ आई धूल अघोषित बस-स्टॉप बने उस पेड़ की सूनी-सूनी और नुकीली-सी टहनियों पर पसर गई। और उस धूल का एक बड़ा हिस्सा धूल में भी मिल गया।
 
एक-दो सवारी उतरकर अपनी-अपनी राह भी हो ली। धूप से तपा और पसीने से भीगा हुआ अमोल तेजी से बस में घुस गया। उसने चारों ओर बस में नजर घुमाई। भीड़ ज्यादा नहीं थी, लेकिन सभी सीटों पर सवारियाँ थीं। उसने टिकट कटवाया और बैठने के लिए खाली सीट का जायजा लेने के लिए चारों तरफ नजर घुमाई। एक खाली सीट दिखाई दी और वह फूर्ती से सीट पर जा बैठा।
 
बहुत देर से बस की राह देख रहा अमोल थक कर अधमरा-सा हो गया था। अब तो सीट भी मिल गई और सिर पर छाँव भी थी, इसी बात का परमसुख था उसे। उसने गमछा निकालकर पसीना निचोड़ दिया। अब वह ख़ुद को काफी बेहतर महसूस करने लगा। एक सिर्फ बस की घर्घर्घरर्र के अलावा सन्नाटा पसरा था बस में। दूर दूर से बस में बैठकर मुरझाई हुई बहुत-सी सवारियों ने अपनी-अपनी आंखे जबरदस्ती बंद कर ली थीं और वे नींद के झोंके लेने की कोशिश में जुटे थे। थकावट की वजह से अमोल को भी झपकी लग गई। पंद्रह-बीस मिनट बाद बस का ब्रेक लगा, झटके से अमोल की झपकी टूटी। सभी यात्री इस झटके से अपनी-अपनी सीट से ज़रा आगे की ओर खिसक गए। कई तो निद्रा भंग होने से कसमसा कर बौखला उठे।
 
एक देहाती औरत अतिरिक्त सावधानी के साथ एक थैली पकड़े बस में चढ़ी और अमोल के बाजू की खाली पड़ी सीट पर जा बैठी। थैली का मुंह उस औरत ने कसकर पकड़ा था। थोड़ी देर बाद उस औरत को थैली कस कर पकड़े देख अमोल की जिज्ञासा जागृत हुई। अमोल पेशे से एक अध्यापक है और महाराष्ट्र के चंद्रपूर जिले में स्थित एक स्कूल में अध्यापन कार्य करता है। कुछ काम की वजह से वह आज बल्लारशा गया था और अपना काम निपटाकर लौट रहा था।
 
उस औरत की तरफ देखकर उसने पूछा, 'अम्माजी! ये थैली हाथ में कब तक पकड़े बैठी रहोगी? इसे ऊपर रख दो'। लेकिन, वह औरत टस से मस ना हुई। अमोल की बात का उसपे कुछ भी असर नहीं हुआ। अमोल ने फिर से पूछा, 'आखिर, इस थैली में क्या है?' 'इस थैली में हलचल क्यों मची हुई है?' उस औरत ने कहा, 'बेटा! इसमें तीतर और बटेर हैं'। अमोल बोला, 'ये आप कहां से पकड़ कर ले आए अम्माजी?' 'जंगल से', उस औरत ने जबाब दिया। 'अच्छा, इन्हें ले कहाँ जा रही हैं आप?' अमोल ने उत्सुकता से पूछा। 'बाजार में, और कहां। इन्हें बेच कर आज थोड़ी अच्छी कमाई हो जाएगी और मेरे घर का चूल्हा भी जल जाएगा'। उस औरत ने बड़ी मासूमियत से अपनी मंशा प्रकट कर दी। 'कितने पक्षी है?' अमोल ने पूछा। 'छह तीतर और चार बटेर हैं बेटा', उस औरत ने कहा। फिर अमोल बोला, 'क्या भाव से बेचती हो इनको?' अम्माजी ने कहा, 'तीतर का जोड़ा ढाई सौ में और बटेर का सौ में'। लोग इन्हें खरीदकर क्या करते हैं? पका कर खाते होंगे बेटा, और क्या करेंगे। आखिर मांस भी तो स्वादिष्ट होता है इनका।' 

यह बात सुनकर अमोल का दिल बैठ गया। मन ही मन वह उन पक्षियों के बारे में सोचने लगा। उसका मन करुणा से भीग गया। क्योंकि उसके मन में मुनव्वर राना का एक शे'र घूम गया था-
 
''एक निवाले के लिए मैंने जिसे मार दिया,
वो परिन्दा भी कई रोज़ का भूखा निकला''
 
इसके बाद तो वह जैसे अपने ही विचारों में खो गया। व्यथित हो, वह जड़वत उस औरत की ओर देख रहा था। 'खासकर तीतर की तो बहुत माँग है मार्केट में..! लेकिन अब तीतर-बटेर मिलते कहा है? बारिश का मौसम तो जैसे कपूर की तरह न जाने कहाँ उड़ गया है। नदियों में पानी नहीं है, तालाब सूने पड़े हैं, पेड़-पौधे काट दिए हैं इसलिए तीतर-बटेर ढूँढने के लिए घूमते-घूमते पैर टूट जाते हैं'। अम्माजी तीतर-बटेर ना मिल पाने की समस्याएं गिना रही थीं।
 
अम्माजी का बोलना बंद हुआ, तब अमोल अपनी सोच और विचारों की गलियों से बाहर आया। उसके चेहरे पर ऐसे भाव थे, जैसे उसने कुछ गंभीर फैसला ले लिया हो। वह गंभीरतापूर्वक बोला, 'अम्माजी, मैं ये तीतर-बटेर खरीदना चाहता हूँ। बोलो, क्या भाव दोगी?' 'जो बाजार का भाव चल रहा है, उसी भाव में दे दूँगी बेटा। तीतर का जोड़ा ढाई सौ में और बटेर का सौ रुपए में। इस से कम में नहीं दे सकूँगी।' अम्मा ने कहा। अमोल ने जेब में हाथ डालकर पैसों का हिसाब लगाया। दस, बीस, पचास, सौ, एक सौ दस। उसके जेब में केवल एक सौ दस रुपए ही बचे थे। आखरी एक सौ दस रुपए...! 'अम्मा! मेरे पास तो केवल एक सौ दस रुपए हैं, सौ रुपए में मुझे एक तीतर और एक बटेर दे दो', अमोल ने कहा। 'अरे वाह, क्यों मेरा घाटा करवाने पर तुले हो? मेरा पच्चीस रुपए का नुकसान हो जाएगा' अम्मा जरा-सा गुस्सा मिश्रित अकड़ से बोली। 'देखो ना अम्मा, मेरे पास तो बस यही एक सौ दस रुपए हैं। अगर ज्यादा होते, तो मैं सचमुच ये सभी तीतर-बटेर खरीद लेता।' अमोल ने करुणाभरे स्वर में कहा। आखिर, पहले एक सौ पच्चीस और फिर एक सौ दस से होते हुए बात, सौ रुपए पर आकर ठहर गई। बड़ी मुश्किल से अम्मा जी एक तीतर और एक बटेर देने पर राजी हो गईं। अब खरीदे हुए पक्षी हाथ में लेने की बारी थी। अमोल की धड़कने इन जानलेवा गर्मी के दिनों में, उन पक्षियों के थरथराते हुए गर्म शरीर के स्पर्श की कल्पना मात्र से बढ़ गई थीं। अमोल की धड़कनें भी अब जबरदस्ती थैले में ठूँसे गए परिंदों की धड़कनों की रफ्तार से धड़क रही थी।
 
'क्या करोगे इन तीतर-बटेर को लेकर?' अम्माजी ने अमोल से पूछा। अमोल ने कहा, 'आजाद कर दूँगा इनको।', वैसे तो अब तक जो लोग तीतर-बटेर खरीदते थे, उनकी नजर में इन परिंदों को आजाद करने का मतलब, इन्हें मार कर जान से आजाद कर देना होता था। लेकिन, अमोल के 'आजाद' कहने में शायद गर्व का ऐसा भाव छुपा था कि अम्मा जी इस आजाद का मतलब समझ गईं। और हड़बड़ा कर बोल पड़ीं- आजाद..!', 'अगर तुम्हें इन पक्षियों को वापस छोड़ना ही है, तो खरीद क्यों रहे हो?' कोई लाटरी-वाटरी लगी है क्या तुम्हारी, जो पैसे उड़ा रहे हो?' अमोल ने तिलमिलाकर उसे जबाब दिया, 'मैं इन्हें आजाद छोड़ दूँ या कुछ भी करूं, तुम्हें इससे क्या? तुम्हें तो कीमत मिल गई ना इनकी? खैर, अच्छी बोहनी हुई यह सोच कर अम्मा जी कुछ नहीं बोलीं, चुपचाप रहीं।
 
अमोल ने दस, बीस, तीस... पचास रुपए गिन कर उस औरत को थमा दिए और कहा, 'निकालो मेरे तीतर-बटेर, मैं इन्हें जल्द से जल्द आजाद करना चाहता हूँ।' 'और बाकी पचास?' अम्माजी ने पूछा'। 'अरे! देता हूँ ना, भागकर थोड़े ही जा रहा हूँ' अमोल ने कहा। उस औरत ने एक तीतर और एक बटेर थैली से बाहर निकालकर अमोल के हाथों में थमा दिए। पक्षी हाथ में आते ही अमोल चीख पड़ा, 'ड्रायवर, बस रोको..!' अचानक घटित हुए इस प्रकरण से सवारियाँ सोच में पड़ गईं कि क्या गड़बड़ हुई। ड्रायवर बोला, 'भैया, यहां तो दूर-दूर तक कोई बस स्टॉप नही है, बस नहीं रुक सकती। और वैसे भी बिना वजह बस रोकने का कोई कानून भी नहीं है।' ड्रायवर ने अपने मन की भड़ास निकाल डाली। 'आखिर माजरा क्या है भई?' कंडक्टर ने पूछा। तब अमोल ने उसे सारी कहानी बता दी। कंडक्टर के साथ-साथ बस में बैठी दूसरी सवारियों को भी अमोल की मंशा जानकर खुशी हुई। सभी के दिल में अमोल के प्रति आदर-सम्मान जाग उठा। कंडक्टर बोला, 'ड्रायवर साब, कोई अच्छा-सा खेत, नदी या बहता नाला देख कर बस रोक दो भाई। यह युवक तीतर-बटेर को आजाद करना चाहता है'।
 
थोड़ी देर बाद ड्रायवर ने बस रोक दी। अमोल ने नीचे उतर कर दोनों परिदों को आजाद कर दिया। दोनों पक्षी जैसे मौत के मुँह से निकले हों, उन्होंने फौरन पर तौल लिए और वहीं कहीं झाड़ियों में गायब हो गए। इस बात से खुश होकर बस में बैठी सवारियों ने तालियां भी बजाईं। तीतर-बटेर आजाद हो गए।
 
इधर परिंदे आजाद हुए, उधर अमोल विचारों के गलियारों में खो गया कि.... अपने आसपास ही कितनी समस्याएँ हैं और इन समस्याओं से जुड़ी कितनी ही उलझनें हैं, मुश्किलें हैं। इन्हीं उलझनों और समस्याओं ने हमारे इर्द-गिर्द फैली जमीन, हवा, पानी और ऊर्जा को संकट में डाल रखा है। इसी वजह से पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या पैदा हुई है। इसी के चलते हमने प्रकृति का बड़ा नुकसान कर दिया है। पशु-पक्ष‍ी, पेड़-पौधे, जलस्रोत आदि कुदरत की निशानियाँ मानवजनित समस्याओं से विलुप्ति की कगार पर पहुंच गईं हैं।
 
वक्त की घड़ी के कांटों की रफ्तार पर भागे जा रहे इन्सान को न पर्यावरण की सुध है, और ना खुद की। अंधी दौड़ में भाग रहा ये मतलबी इंसान इन समस्याओं की तरफ देखता ही कब है? मानव और अन्य प्राकृतिक संसाधनों के बीच ध्वंसता का रिश्ता बनता गया, जिससे कुछ चीजें लुप्त हो गईं। इसी के चलते आहार श्रृंखला की कड़ियाँ भी बिखरती चली गईं। पानी और बिजली की कमी, बदहाल खेती, बढ़ती धूप, कहीं न कहीं यह सब आहार श्रृंखला की कड़ियाँ बिखरने का ही दुष्परिणाम है। हमारे सामने कारण भी हैं और उनके परिणाम भी। 'अमीर' क़ज़लबाश कहते हैं- 
 
''इक परिंदा अभी उड़ान में है,
तीर हर शख़्स की कमान में है''
 
इस दौर में भी हमारे हृदय के तालाब में जो थोड़ी-सी नमी बाकी है, उस नमी में कुछ खुशबूदार फूलों के पौधे रोपने की जरूरत है। और जरूरत है, अपने व्यवहार की खुशबू से दुनिया को महकाने की। अमोल ने भी यही किया। उसने अपने दिल की आवाज़ सुनी और महका दिया सारा आलम। अपने व्यवहार से उसने दिखा दिया कि, वो आज भी अपने संस्कारों की नम मिट्टी से किसकदर जुड़ा हुआ है। आज जिस तरह से उसने जेब के सारे पैसे खर्च कर परिंदों को खुले आसमान के सुपुर्द कर दिया, उसके इस व्यवहार की खुशबू अभी तक फजाओं में है।
 
आइए, क्यों न हम भी अपनी मिट्टी से जुड़ने की कोशिश करें और आजाद कर दें, हर कैद परिंदे को?
 

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