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गहरा संबंध है धर्म और मनोविज्ञान में

हमें फॉलो करें गहरा संबंध है धर्म और मनोविज्ञान में
-डॉ. राजेश पाचौले
 
धर्म का मनोविज्ञान से क्या संबंध है? मनोविज्ञान धर्म की बातों का कहाँ तक समर्थन करता है और उन्हें मानव जीवन के लिए कहाँ तक हितकर बताता है। इन सब बातों के पूर्व यह जानना आवश्यक है कि धर्म शब्द का अर्थ क्या है। 
धर्म शब्द का उपयोग मजहब के लिए भी होता है, किंतु इसका उपयोग मानव कर्तव्य एवं मानव पुरुषार्थ के लिए भी होता है। हितोपदेश, मनुस्मृति और भगवद् गीता में 'धर्म' शब्द कर्तव्य का बोधक है। आज हम देख रहे हैं कि धर्म और राजनीति एक-दूसरे में इतने गड्डमड्ड हो गए हैं कि हम यह नहीं समझ पा रहे हैं कि राजनीति धर्म से चल रही है या धर्म राजनीति से!
 
इस समय विभिन्न धर्मावलंबी लोग अपने-अपने धर्मप्रचार के लिए अपनी-अपनी पद्धति के अनुसार धर्म का प्रचार कर रहे हैं। कुछ लोग पद, नाम, कीर्ति कमाने में ही अपने अमूल्य जीवन को बिता रहे हैं और कुछ लोग समाज सुधार या समाज कल्याण के कार्यों में लगे हुए हैं, किंतु मान, बढ़ाई और प्रतिष्ठा की कामना एवं स्वार्थपरकता का परित्याग कर समाज कल्याण के लिए कितने लोग काम कर रहे हैं? 
 
सर्वोत्तम धर्म तो वह है जो हमें परमानंद की प्राप्ति कराए। ऐसे ही धर्म का उपदेश गीता में हमें मिलता है-
 
अभयं सत्वसंशुद्धिर्ज्ञान योग व्यवस्थितिः।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्‌॥
 
श्री भगवान बोले-'भय का सदा अभाव, अंतःकरण की शुद्धि, ज्ञान के लिए योग में दृढ़ स्थिति, सात्विक दान, इंद्रियों का दमन, यज्ञ, स्वाध्याय, कर्तव्य पालन के लिए कष्ट सहना, शरीर, मन, वाणी की सरलता।'
 
अहिंसा सत्यम्‌क्रोधस्त्यागः शांतिरपैशुनम।
दया भूतेष्व लोलुप्त्वं मार्दवं हीरचापलम्‌॥
 
अहिंसा, सत्यभाषण, क्रोध न करना, संसार की कामना का त्याग, अंतःकरण में राग-द्वेष जनित हलचल का न होना, चुगली न करना, प्राणियों पर दया करना, सांसारिक विषयों में न ललचाना, अंतःकरण की कोमलता, अकर्तव्य करने में लज्जा, चपलता का अभाव।
 
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं देवीमभिजातस्य भारत॥
 
तेज (प्रभाव), क्षमा, धैर्य, शरीर की शुद्धि, बैर-भाव का न रहना और मान को न चाहना, हे भरतवंशी अर्जुन। ये सभी दैवी सम्पदा को प्राप्त हुए मनुष्य के लक्षण हैं। श्रीमद् भगवद् गीता 16/1-3 

ये ही धर्म के सर्वोत्तम लक्षण हैं। गीता में धर्म शब्द मानव कर्तव्य का बोधक है, निष्काम कर्मयोग योग का बोधक है। यदि संसार से कर्म और कर्तव्य का भाव उठ जाए तो मानव समाज का जीवित रहना ही संभव न हो।

धर्म के इस अर्थ में केवल यही प्रश्न मनोविज्ञान में उठ सकता है कि मनुष्य की कर्तव्य बुद्धि उसके भीतरी जन्मजात स्वभाव का अंग है या बाहर से लादी गई है? क्या मनुष्य की शिक्षा-ज्ञान उसकी कर्तव्यबुद्धि को प्रस्फुटित करती है या वह उसका निर्माण ही करती है? यदि मानव में कर्तव्य के भाव न हों तो वह सुखी रहेगा या दुःखी? इन प्रश्नों के उत्तर मनोवैज्ञानिकों ने विभिन्न प्रकार से दिए हैं।

इन पर विचार करने से पूर्व हमें धर्म के दूसरे अर्थ पर भी विचार करना होगा। 'पुरुषार्थ' धर्म का दूसरा अर्थ है। यह चार पुरुषार्थ में से एक है। मनुष्य स्वभाव की पूर्णता चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति से ही होती है। अर्थ और काम व्यक्तिगत जीवन के पुरुषार्थ हैं और धर्म सामाजिक जीवन का पुरुषार्थ है।

जो व्यक्ति दूसरों की सेवा में अपने आपको समर्पित नहीं करता वह समाज में सम्मान नहीं पाता। केवल मनुष्य में ही यह शक्ति है कि वह दूसरे के हितों को ही अपने हित के समान माने और उनकी पूर्ति के लिए सदा प्रयत्नशील रहे, तभी वह सम्मान का भागी रहेगा और उसे सामाजिक सुरक्षा प्राप्त होगी।

कई मनोवैज्ञानिकों ने धर्म की अलग-अलग व्याख्या की है। विलियम जेम्स ने कहा है कि 'धर्म मनुष्य की भावनात्मक आवश्यकता है', ईश्वर है या नहीं परंतु ईश्वर का विचार ही केवल मनुष्य को सुरक्षा की अनुभूति कराता है। इससे वह अपने जीवन के कार्यों को पूरी निष्ठा से करता है और शांति से मर जाता है।'

सिगमंड फ्रायड ने 'फ्युचर ऑफ एन एनील्युसन' नामक पुस्तक में कहा है कि 'मजहब एक प्रकार का पागलपन है, जिसका अंत विज्ञान के आलोक की वृद्धि से अनायास ही हो जाएगा।'

टेन्सले ने मजहबों के देवी-देवताओं को अचेतन मन की प्रक्षेपण (प्रोजेक्शन) क्रिया का परिणाम कहा है। उनका कथन है कि यह बात उतनी सही नहीं है कि ईश्वर ने मनुष्य को बनाया, उतनी यह बात सही है कि मनुष्य ने ईश्वर को बनाया है। परंतु देवी-देवता आदि के निर्माण की क्रिया का ज्ञान मानव को नहीं रहता, क्योंकि यह उसके अचेतन मन का कार्य है न कि उसके चेतन मन का।

जब किसी व्यक्ति को उसकी अपनी इस अचेतन क्रिया का ज्ञान हो जाता है तब वह क्रिया ही नष्ट हो जाती है। संत कबीर भी अपने समय के महान संत और मनोवैज्ञानिक रहे हैं। उन्होंने भी अचेतन मन की क्रिया को जानकर एक जगह कहा है-

अवधू छाडहु मन विस्तारा।
सो पद गहहू जाहि ते सद्गति, पारब्रह्म ते न्यारा।
न कुछु महादेव, नहीं मोहम्मद, हरि हिजरत कछु नाहीं

उपरोक्त कथन से यह तो सिद्ध होता है कि मजहबों की सामान्य गाथाएँ मनुष्य के अचेतन मन द्वारा निर्मित हुई हैं और इनका आदर्शीकरण किया गया है। धर्म में बताए गए भूत-प्रेत, पिशाच, देवी-देवता, शैतान आदि तत्व भौतिक विज्ञान की खोज के विषय नहीं हैं।

यह मानव की अनुभूतियों के रूप में सत्य हैं और ये सभी तथ्य मनुष्य के अचेतन मन में हैं। कोई भी मनुष्य इनकी प्रस्तुति करता है, उसका स्वरूप एक आदर्श लिए हुए रहता है।


मानसिक चिकित्सा के प्रयोगों में देखा जाता है कि जिन लोगों की धार्मिक भावनाएँ प्रबल होती हैं, उन्हें बहुत जल्दी मानसिक रोगों से मुक्त किया जा सकता है। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक चिकित्सक चार्ल्स युंग का कहना है कि जिन लोगों की धार्मिक भावनाएँ सुदृढ़ रहती हैं, उन्हें मानसिक रोग नहीं होते है।

किसी भी रोगी का मानसिक रोग तब तक पूरी तरह नहीं जाता, जब तक वह एक ठोस जीवन दर्शन नहीं प्राप्त कर लेता।

उनका यह भी कहना है कि संसार के सभी मानसिक चिकित्सक मिलकर जितने मानसिक रोगों की चिकित्सा कर पाते हैं उससे अधिक चिकित्सा संसार के छोटे से छोटे धर्म द्वारा ही हो जाती है।

धर्म मनुष्य के भावनात्मक विकास का साधन है, जिसका कोई सहारा नहीं है वह धर्म के आधार पर जी लेता है। धार्मिक साधनाएँ, मूर्तिपूजा और यज्ञ आदि तक ही सीमित नहीं है।

इनकी अपने-अपने स्थान पर मनोवैज्ञानिक उपयोगिता है। परंतु इनकी पूर्ति मन पर विजय प्राप्त करने पर होती है और मन पर विजय धार्मिक जीवन की पराकाष्ठा है। भौतिक दृष्टि पर आधारित मनोविज्ञान अधूरा ही है।

यह बहिर्मुखी चिंतन पर आधारित है। संपूर्ण मनोविज्ञान के लिए अंतर्मुखी चिंतन अनिवार्य है। संसार के धर्म इसी प्रकार के चिंतन के परिणाम है।



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