हिंदू पंचांग के अनुसार, मार्गशीर्ष पूर्णिमा के बाद वर्ष के दसवें महीने पौष का प्रारंभ होता है। इस बार यह मास 5 दिसंबर 2025 (शुक्रवार) से शुरू हो गया है। आइये जानते हैं इस माह के नामकरण, महत्व, पूजा, ऋतु, व्रत एवं त्योहार के साथ ही पौराणिक कथा।
1. पौष मास का नामकरण और महत्व:
नामकरण: भारतीय महीनों के नाम नक्षत्रों पर आधारित हैं। जिस मास की पूर्णिमा को चंद्रमा पुष्य नक्षत्र में रहता है, उस मास को उसी नक्षत्र के नाम पर रखा जाता है। यही कारण है कि इस मास को पौष मास कहा जाता है।
महत्व: इस मास का एक और नाम धनुर्मास भी है, क्योंकि इस महीने में भगवान सूर्य धनु राशि में प्रवेश करते हैं। इसी के साथ धनु संक्रांति से खरमास (या मलमास) भी प्रारंभ हो जाता है।
2. शीत ऋतु और पूजा का महत्व:
ऋतु: यह मास तीव्र और तीखे जाड़े (शिशिर ऋतु) के मध्य आता है, जो दिसंबर से लगभग 15 जनवरी तक रहती है।
तिल गुड़: इस माह में दान का विशेष महत्व है। तिल, गुड़, कंबल, अन्न और वस्त्र दान करने से पुण्य की प्राप्ति होती है।
उपासना: इस समयावधि में भगवान सूर्य और श्रीहरि विष्णु की उपासना का विशेष महत्व है।
सूर्य को अर्घ्य: तेजस्विता के लिए: कुछ पुराणों में पौष मास के प्रत्येक रविवार को तांबे के पात्र में जल, लाल चंदन और लाल पुष्प डालकर भगवान विष्णु के मंत्र का जाप करते हुए सूर्य को अर्घ्य देने की मान्यता है।
व्रत: साथ ही, रविवार को व्रत रखने और तिल चावल की खिचड़ी का भोग लगाने से मनुष्य तेजस्वी बनता है। धर्म और ज्योतिष के अनुसार, यह मास आध्यात्मिक रूप से समृद्धि देने वाला माह बताया गया है।
3. पौष मास 2025 के प्रमुख व्रत और त्योहार:
09 दिसंबर: पुष्य नक्षत्र
11 दिसंबर: ओशो जन्मोत्सव
14 दिसंबर: भगवान पार्श्वनाथ जयंती
15 दिसंबर: सफला एकादशी
17 दिसंबर: धनु संक्रांति एवं खरमास प्रारंभ
19 दिसंबर: पौष मास की अमावस्या और हनुमान जयंती
21 दिसंबर: वर्ष का सबसे छोटा दिन
25 दिसंबर: क्रिसमस
27 दिसंबर: गुरु गोविंद सिंह जयंती
28 दिसंबर: शाकंभरी यात्रा प्रारंभ
30 दिसंबर: पुत्रदा एकादशी और तेलंग स्वामी जयंती
03 जनवरी 2026: शकंभरी पौष पूर्णिमा
पौष गणेश चतुर्थी की पौराणिक कथा:
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पौष मास में पड़ने वाली पौष गणेश चतुर्थी व्रत कथा का विशेष महत्व है।
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एक समय की बात है, जब रावण ने स्वर्ग के सभी देवताओं को जीत लिया था।
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एक बार संध्या करते हुए वानरराज बाली को पीछे से जाकर पकड़ लिया। बाली रावण को अपनी कांख (बगल) में दबाकर किष्किन्धा नगरी ले आए और अपने पुत्र अंगद को खेलने के लिए खिलौना दे दिया।
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बालिपुत्र अंगद, रावण को खिलौना समझकर रस्सी से बांधकर इधर-उधर घुमाते थे, जिससे रावण को अत्यधिक कष्ट होता था।
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दुःखी रावण ने अपने पितामह पुलस्त्य ऋषि को याद किया। जब पुलस्त्य जी ने रावण की यह दशा देखी, तो उन्होंने अभिमान हो जाने पर होने वाली गति को समझा।
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पुलस्त्य ऋषि ने रावण को बंधन से मुक्त होने का उपाय बताते हुए विघ्नविनाशक श्री गणेश जी का व्रत करने की सलाह दी, जो पौष मास में पड़ता है। उन्होंने बताया कि पूर्व काल में इंद्रदेव ने भी वृत्रासुर की हत्या से छुटकारा पाने के लिए यह व्रत किया था।
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पितामह की आज्ञानुसार रावण ने भक्तिपूर्वक इस व्रत को किया और अपने बंधन से मुक्त होकर राज्य को पुनः प्राप्त किया।
मान्यता: पौष मास की चतुर्थी पर इस व्रत को श्रद्धापूर्वक करने से सफलता प्राप्त होती है और यह व्रत संकटों से मुक्ति तथा विजय दिलाने वाला माना गया है।