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अफीम-कर से प्रारंभ हुई इंदौर में शिक्षा

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अपना इंदौर

भारत में अंगरेजी शिक्षा को प्रभावी बनाने में लॉर्ड मैकाले ने सर्वाधिक सक्रिय योगदान दिया। भारत के अंगरेज अधिकारी भी इस कार्य में कम सक्रिय नहीं थे। 1918 में होलकरों व अंगरेजों के मध्य हुई मंदसौर संधि के अनुसार इंदौर होलकरों की राजधानी बना और यहां एक ब्रिटिश रेजीडेन्ट रखने पर सहमति हुई। उसके निवास व कार्यालय के लिए भव्य रेसीडेंसी का निर्माण हुआ।
 
मालवा में विशेषकर होलकर राज्य के रामपुरा-भानपुरा परगनों में उन दिनों विश्व की श्रेष्ठ अफीम का उत्पादन होता था। इंदौर अफीम व्यापार का विश्वविख्यात केंद्र था। इंदौर से आने-जाने वाली अफीम की पेटियों पर जो कर राज्य द्वारा वसूला जाता था, उसका कुछ भाग शिक्षा पर व्यय करने का निर्णय लिया गया।
 
इंदौर में अंगरेज अधिकारियों व कर्मचारियों के आने के बाद सामान्यजन का ध्यान भी शिक्षा की ओर आ‍कर्षित हुआ। ऐसी बात नहीं थी कि इसके पूर्व नगर में कोई शैक्षणिक कार्य होता ही नहीं था। कुछ धनिक लोगों और पारमार्थिक संस्थाओं द्वारा निजी पाठशालाएं चलाई जाती थीं किंतु इन पाठशालाओं में केवल धार्मिक व नैतिक शिक्षा ही दी जाती थी। ऐसी हिन्दी व मराठी दोनों ही पाठशालाएं थीं। कुछ शास्त्री लोग जिन्हें राजकीय अनुदान दिया जाता था, अपने निवास स्थानों पर ही संस्कृत शिक्षा दिया करते थे। इनकी परीक्षा लेने या किसी प्रकार की उपाधि प्रदान करने की कोई व्यवस्था नहीं थी।
 
संपूर्ण होलकर राज्य में और इंदौर नगर में, पाश्चात्य शिक्षा व्यवस्था पर आधारित पहला विद्यालय महाराजा हरिराव होलकर के शासनकाल में 6 जून 1841 ई. को खोला गया। आज से डेढ़ शताब्दी पूर्व इस विद्यालय को प्रारंभ करने में इंदौर रेसीडेन्सी में पदस्थ तत्कालीन रेजीडेन्ट सर क्लान्डे वाडे की महत्वपूर्ण भूमिका थी।
 
रेजीडेन्ट की रुचि का ही परिणाम था कि इस विद्यालय का शुभारंभ भी रेसीडेंसी भवन के समीप किया गया। प्रारंभ में इस विद्यालय के प्रति लोग सशंकित भी रहे और इसकी गतिविधियों को कौतूहल के साथ देखते रहे। डेढ़ वर्ष तक यह स्कूल रेसीडेंसी परिसर में ही चलाया गया। प्रारंभ में ही इसमें 45 विद्यार्थी दाखिल हो गए। 
 
इस विद्यालय का पाठ्यक्रम नगर की अन्य पाठशालाओं से भिन्न रखा गया। यहां इंग्लिश, फारसी व हिन्दी पढ़ाने की व्यवस्था की गई। उल्लेखनीय है कि प्रारंभ में इस शाला में मराठी का अध्यापन नहीं किया गया। उक्त तीन विषयों का अध्यापन करने के लिए 3 शिक्षक नियुक्त किए गए।
 
7 अप्रैल 1843 ई. को यह विद्यालय रेसीडेंसी परिसर से हटा लिया गया और अब उसका संचालन खान नदी के तट पर कृष्णपुरा स्‍थित धर्मशाला में किया जाने लगा। रेसीडेंसी परिसर नगर की घनी आबादी से काफी दूर था और बच्चों को वहां तक आने-जाने में काफी असुविधा होती थी। इस स्थान परिवर्तन के साथ ही इस स्कूल का नाम 'इंदौर मदरसा' रख दिया गया। विद्यार्थियों की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती रही और धर्मशाला भी अपर्याप्त प्रतीत होने लगी। तब तोपखाने में नवीन स्कूल भवन का निर्माण करवाया गया। भवन के तैयार हो जाने पर 15 अगस्त 1850 ई. के दिन 'इंदौर मदरसे' को नवीन इमारत में स्थानांतरित किया गया।
 
उल्लेखनीय है कि उस समय तक कृष्णपुरा पुल नहीं बना था और बच्चों को राजबाड़े की ओर से नदी पार करके नए स्कूल तक पहुंचना होता था।
 
इस स्कूल में आने वाले बच्चों को प्रतिदिन कुछ पैसे देने प्रारंभ किए गए ताकि वे बराबर स्कूल आते रहें। राज्य ने अफीम की पेटियों पर से प्राप्त कर में से कुछ धनराशि इस विद्यालय को अनुदान के रूप में देना प्रारंभ किया। विद्यार्थियों से प्राप्त शिक्षण शुल्क की राशि को शिक्षकों में बराबर-बराबर करके बांट दिया जाता था। यह धन उन्हें उनके वेतन के अतिरिक्त दिया जाता था। इस प्रकार के प्रोत्साहन से शिक्षकों में अध्यापन के प्रति रुचि बढ़ी। विद्यार्थी और अध्यापक दोनों को ही राज्य से प्रोत्साहन राशि मिल रही थी।
 
बंबई निवासी श्री गणपत राव को इस मदरसे में पहले अंगरेजी शिक्षक के रूप लाया गया। हिन्दी तथा मराठी के लिए क्रमश: पंडित भैरव प्रसाद और श्री माधवराव की नियुक्तियां की गईं। श्री गणपत राव अधिक समय तक इंदौर नहीं रहे और उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। उनके स्थान पर दिल्ली कॉलेज के मुंशी उम्मेदसिंह को इस विद्यालय का प्रधानाध्यापक बनाया गया। इंदौर मदरसे में ही संस्कृत व फारसी का अध्यापन भी प्रारंभ किया गया। महाराजा तुकोजीराव होलकर (द्वितीय) को 8 मार्च 1852 को वयस्क होने पर पूर्ण प्रशासनिक अधिकार मिले तो उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में पहला कदम यह उठाया कि 'इंदौर मदरसा' को प्रतिमाह व्यय हेतु 6,000 रु. का अनुदान एक सनद द्वारा स्थायी कर दिया। इस सनद ने राज्य में और नगर में राजकीय शिक्षण संस्था को स्थायी स्वरूप प्रदान कर दिया।
 
इस बीच मुंशी उम्मेदसिंह की नियुक्ति प्रधान पाठक से मीर मुंशी के पद पर हो गई तब उनके स्थान पर दिल्ली कॉलेज के पंडित स्वरूपनारायण को इस मदरसे का प्रधान बनाया गया। उनके छोटे भाई पंडित धर्मनारायण को इंग्लिश विद्यालय में नियुक्त किया गया। इन अध्यापकों की नियुक्ति व उनके परिश्रम के फलस्वरूप 1865-66 में इंदौर मदरसे से ऐसे विद्यार्थी निकले, जो अंगरेजी भाषा का पर्याप्त ज्ञान पा चुके थे और उनमें से बहुत से होलकर राज्य में ही उच्च पदों पर नियुक्त हो गए थे।
 
इंदौर मदरसे में तालीम हासिल करने वाले विद्यार्थियों की संख्या 1869-70 ई. में 400 तक जा पहुंची थी। इस मदरसे में विद्यार्थियों के पढ़ने के लिए एक हिन्दी व एक उर्दू का साप्ताहिक पत्र भी मंगवाया जाता था। इस विद्यालय की अशातीत प्रगति पर भारत के गवर्नर जनरल के मध्यभारत स्थित एजेंट मेजर जनरल एच.डी. डेली ने अपनी रिपोर्ट भारत सरकार को भेजते हुए लिखा- 'इंदौर नगर में अनेक ऐसे लोग हैं, जो इंग्लिश भाषा व इंग्लिश साहित्य का ज्ञान रखते हैं, जो भारत की किसी भी रियासत के लोग नहीं रखते, यह सब धर्मनारायण के परिश्रम का प्रतिफल है।'

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