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इंदौर नगर की होलकरकालीन प्रमुख छत्रियां

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अपना इंदौर

राजपरिवार के व्यक्तियों, सुल्तानों व सम्राटों की स्मृति में उनके स्मारक-मकबरे या छत्रियों का निर्माण भारत में मध्यकाल से चली आ रही एक परंपरा है। मुस्लिम शासकों ने मकबरों का निर्माण करवाया, वहीं राजपूतों ने छत्रियां बनवाईं। राजपुताना की इस परंपरा ने मालवा के मराठा शासकों को भी प्रभावित किया और मालवा में सिंधिया व पंवार ने जहां पूर्व प्रचलित परंपराओं का पालन किया है, वहीं होलकरों ने छत्रियों के वास्तु विन्यास में नए प्रयोग किए हैं, जो महत्वपूर्ण हैं।
 
छत्रीबाग की छत्रियां- छत्रीबाग में निर्मित छत्रियां प्रमुख रूप से 2 परकोटों में बनी हुई हैं। प्रथम परकोटे में मल्हारराव, खांडेराव, अहिल्याबाई की प्रतीक छत्री व उनके पुत्र मालेराव की छत्रियां बनी हुई हैं। दूसरे परकोटे में तुकोजीराव (प्रथम), मल्हारराव (द्वितीय) व ताई साहेब की छत्रियां निर्मित हैं।
 
बाहरी मजबूत परकोटे की दीवार लगभग 14 फुट चौड़ी और 12-15 फीट ऊंची है। इसका उत्तरी द्वार अत्यंत भव्य है। यह इतना ऊंचा बनाया गया है कि इसमें हाथी पर बैठकर आसानी से प्रवेश किया जा सकता है। 
इन परकोटों के समीप नदी के कंठ पर निर्मित हरिराव होलकर की छत्री वास्तु विन्यास की दृष्टि से उल्लेखनीय है। हरिराव की छत्री को छोड़कर सभी छत्रियां किलेनुमा दीवार से घेरी गई हैं, जो उन योद्धा शासकों की स्मृति को ताजा करती हैं, जो समर-भूमि में वीरगति को प्राप्त हुए थे। अहिल्याबाई व उनके पति खांडेराव होलकर की छत्रियां प्रतीकात्मक छत्रियां ही हैं। किंतु अहिल्याबाई जब 26 मई 1784 ई. को इंदौर आई थीं तो उनका तम्बू यहीं इस छत्रीबाग में उनकी सास गौतमाबाई व स्व. पुत्र मालेराव की छत्रियों के मध्य लगाया गया था।
 
स्थापत्य की विशेषताओं की दृष्टि से यदि इन सभी छत्रियों का अवलोकन किया जाए तो हम पाते हैं कि ये लगभग साढ़े 3 फुट ऊंचे प्लेटफॉर्म पर निर्मित की गई हैं और आकार की दृष्टि से ये अष्टकोणीय हैं। छत की बजाय स्तंभों पर टिकी हुई गुम्बदाकार संरचना की गई है। इन स्मारकों को सुंदर बेलबूटों, मानवाकृतियों तथा पशुओं के अंकन से सुसज्जित व अलंकृत किया गया है। इन छत्रियों पर राजपुताने की स्थापत्य शैली का प्रभाव स्पष्टत: परिलक्षित होता है।
 
सूबेदार तुकोजीराव प्रथम, मल्हारराव द्वितीय व ताई साहेब की छत्रियों को वास्तु विन्यास की दृष्टि से देखा जाए तो कहा जा सकता है कि ये विशालता लिए हुए मंदिर का आभास देती हैं। इनका निर्माण भी 3 फुट ऊंचे प्लेटफॉर्म पर किया गया है जिसके चारों ओर मानवाकृतियों, वन्य प्राणियों के युद्धरत दृश्य या देवी-देवताओं को अंकित किया गया है। सेंडस्टोन से निर्मित ये विशाल छत्रियां ठोसपन व मजबूती की प्रतीक हैं। यद्यपि इनमें अत्यधिक अलंकरण नहीं है तथापि इनकी भव्यता प्रभावित करती हैं।
 
दूसरे क्षेत्र की छत्रियां मूल क्षेत्र से उत्तर की ओर नदी के किनारे पर पुन: एक दुर्गनुमा दीवार से घिरी हुई हैं। कुछ छत्रियां उक्त दोनों क्षेत्रों के मध्य व नदी तट पर स्थित हैं। इनमें हरिराव होलकर की छत्री उल्लेखनीय है। इसका निर्माण महाराजा तुकोजीराव (द्वितीय) ने (1844 से 1886 के मध्य) करवाया था। दक्षिण भारतीय मंदिरों के सदृश्य यह काफी भव्य व विशाल छत्री है, जो रखरखाव के अभाव में उपेक्षा की शिकार हो रही है।

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कृष्णपुरा की छत्रियां
 
राजबाड़े के समीप ही बहती खान (कान्ह) व सरस्वती नदियों का संगम स्थल है। इस स्थान पर स्वच्छ जल भरा रहता था। इसी नदी के तट पर साधु-संतों के निवास के लिए एक धर्मशाला थी। बाद में उस धर्मशाला को यहां से हटा दिया गया और उसी स्थान पर महारानी कृष्णाबाई साहेब की भव्य व सुंदर छत्री का निर्माण आधुनिक इंदौर के निर्माता शासक महाराजा तुकोजीराव (द्वितीय) ने 1849 ई. में करवाया था।
 
इस नदी का पश्चिमी घाट ही उन दिनों उपयोग में आता था। नदी के पूर्वी तट पर पहुंचने का मार्ग नहीं था। 60 हजार रु. की लागत से चिमणाजी बोलिया ने एक पुल का निर्माण वर्ष 1849 में करवाया, जो राजपरिवार से जुड़े सरदार थे।
 
उल्लेखनीय है कि यशवंतराव (प्रथम) की द्वितीय पत्नी लाडाबाई की पुत्री भीमाबाई का विवाह गोविंदराव बुले (बोलिया) के साथ हुआ था। महिदपुर के युद्ध में अंगरेजों के विरुद्ध लड़ते हुए गोविंदराव शहीद हो गए। भीमाबाई ने चिमणाजी को दत्तक लिया था। इन्हीं चिमणाजी के देहांत के बाद (श्रीकृष्ण टॉकीज के समीप) बोलिया सरकार की छत्री का निर्माण 1858 में लगभग 2 लाख रु. की लागत से किया गया।
 
इस छत्री का तल विन्यास तथा ऊर्ध्व विन्यास साधारण है। यह छत्री मुख्यत: पश्चिमाभिमुखी है। गर्भगृह में तो पूर्व में पश्चिम की ओर 2 द्वार हैं किंतु छत्री प्रांगण का प्रमुख द्वार नदी तट की ओर होकर पश्चिम मुखी है। प्रदक्षिणा पथ के बाद अष्टकोणीय गर्भगृह का निर्माण किया गया है।
 
मराठा संघ के राजवंशों में होलकर राजवंश का स्थान विशिष्ट रहा है। जहां एक ओर देवी अहिल्या के गौरवपूर्ण कार्यों से इस वंश की कीर्ति सदा गुंजायमान रही, वहीं इस वंश के सर्वश्रेष्ठ योद्धा मालव केसरी महाराजा यशवंतराव (प्रथम) ने अपने अदम्य साहस, वीरता, पटुता और रण-निपुणता के बल पर पतनोन्मुख होलकर राज्य में नवजीवन का संचार किया। अंधकार में उनका उदय प्रकाश की एक किरण के रूप में हुआ जिसका उजियारा निरंतर फैलता ही गया। व्यक्तिगत वीरता एवं शौर्यपूर्ण कार्यों से उन्होंने सत्ता हस्तगत की। वे महाराजा तुकोजीराव (प्रथम) के पराक्रमी पुत्र थे। अपने राजनीतिक जीवन के आरंभिक वर्षों में उन्होंने भतीजे खंडेराव के नाम से शासन संचालित किया और वर्ष 1805 में वह स्वयं होलकर राज्य के सम्प्रभु के रूप में प्रकट हो गए।
 
(सरदेसाई मराठों का नवीन इतिहास- जिल्द-3-पृ.-470)।

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