इंदौर नगर में राजकीय विद्यालय की स्थापना के पूर्व तक शिक्षा मंदिरों-मस्जिदों में दी जाती थी, जहां बच्चों को धर्म व नैतिकता का ज्ञान दिया जाता था। नगर के कुछ उदारमना व्यक्तियों व सार्वजनिक संस्थाओं ने निजी क्षेत्र में पाठशालाओं की स्थापना की ओर ध्यान दिया। 1865-66 तक यह स्थिति बन गई कि नगर में शासकीय विद्यालयों की अपेक्षा निजी क्षेत्र के विद्यालयों की संख्या काफी अधिक हो गई थी। उल्लेखनीय है कि इन विद्यालयों को राज्य की ओर से कोई आर्थिक अनुदान नहीं दिया जाता था, फिर भी सरकारी विद्यालयों से उनकी दशा काफी अच्छी थी और अपेक्षाकृत उनमें अधिक विद्यार्थी भी अध्ययन किया करते थे।
इन विद्यालयों पर राज्य का किसी प्रकार का कोई नियंत्रण नहीं था और न ही इन्हें राज्य के शिक्षा विभाग से राजकीय शिक्षण नीति के संबंध में कोई निर्देश दिए जाते थे। राज्य ने इनके प्रति तटस्थता की नीति अपना रखी थी। नगर के विद्यार्थियों की काफी बड़ी संख्या इन निजी विद्यालयों में अध्ययन करती थी, अत: 1913 में पुन: इनकी सुध ली गई। 1885 में इन्हें अनुदान देने की विलुप्त परंपरा को पुनर्जीवित करने पर विचार किया गया। एक प्रस्ताव बनाकर होलकर दरबार में रखा गया, जिसे महाराजा तुकोजीराव (तृतीय) ने तत्काल अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी और उसी वर्ष से कुछ चुनिंदा निजी शैक्षणिक संस्थाओं को आर्थिक अनुदान दिया जाने लगा। अनुदान पाने वाली संस्थाओं की संख्या कुल निजी संस्थाओं का केवल 1 प्रतिशत ही थी।
कुछ निजी शालाओं में विद्यार्थियों से आंशिक रूप से शुल्क लिया जाता था और शेष व्यय की पूर्ति उन संस्थाओं को दान आदि की राशि से की जाती थी। विद्यादान को पवित्र व पुण्य का कार्य माना जाता था।
महाराजा तुकोजीराव (द्वितीय) निजी क्षेत्र की ऐसी संस्थाओं के इस नि:स्वार्थ कार्य से बड़े प्रभावित हुए और उन्होंने पहली बार उन्हें आर्थिक अनुदान देने की बात उठाई।
यह बात 1883-84 की है, जब कुछ विद्यालयों को राज्य की ओर से आर्थिक अनुदान दिया गया। यह राशि केवल 450 रु. थी।
यह परंपरा महाराजा तुकोजीराव की मृत्यु (1886) के साथ ही लगभग समाप्त हो गई। फिर भी निजी क्षेत्र में शैक्षणिक संस्थाओं की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती ही रही। 1913 में इंदौर नगर में ऐसी संस्थाओं की संख्या 21 थी, जिनमें 2 कन्या विद्यालय थे।