इंदौर में 1818 के बाद ब्रिटिश रेसीडेंसी कायम हुई। उसके कर्मचारियों और अधिकारियों के साथ कुछ ईसाई धर्म प्रचारक भी इंदौर आए। यह बात 1882 की है, जब 2 ईसाई पादरियों ने सड़कों के किनारे भीड़ एकत्रित कर धर्म प्रचार करना प्रारंभ कर दिया था। उनकी इस गतिविधि को कानून विरुद्ध होने के कारण पुलिस ने रोक दिया। उन्हें इस तथ्य से अवगत करा दिया गया कि इंदौर कोई ऐसा स्कूल स्थापित नहीं किया जा सकता, जहां ईसाई धर्म की शिक्षा दी जाती हो। ब्रिटिश प्रशासित क्षेत्रों के समान धर्म प्रचारक इंदौर में भी विशेष सुविधाओं की अपेक्षा रखते थे। इसी अभिलाषा से उन्होंने 30 अगस्त 1882 की घटना का विवरण लिखकर भारत के गवर्नर जनरल के सेंट्रल इंडिया प्रभारी एजेंट कर्नल पी.डब्ल्यू. बेनरमेन को भेजा। इसमें सहायता का अनुरोध किया गया था।
एजेंट ने उनकी इस मांग को अस्वीकार करते हुए उन्हें लिखा कि यह इंदौर राज्य के कानूनों के विरुद्ध है, अत: वह उनकी कोई सहायता ऐसे गलत कार्य में नहीं करेगा।
इस उत्तर को पाकर दोनों पादरियों ने 8 सितंबर 1882 को एक पत्र सीधे भारत के वायसराय के सचिव को भेजा जिसमें उन्होंने महाराजा होलकर के साथ-साथ ब्रिटिश एजेंट की भी शिकायत करते हुए लिखा कि इस नगर में हिन्दुओं और मुस्लिमों को जुलूस निकालने, चर्चा करने, धार्मिक आयोजन करने एवं सड़कों के किनारे धर्म प्रचार करने की आजादी है तो फिर ईसाइयों को यह स्वतंत्रता क्यों नहीं दी जाती?
इस पत्र का उत्तर न पाकर फादर जे. बिलकाई बेचैन हो उठे और उन्होंने 26 फरवरी 1883 को पुन: एक पत्र इंदौर से भारत के वायसराय के सचिव को भेजा। इस पत्र के उत्तर में भारत सरकार के सचिव मिस्टर सी. ग्रांट ने इंदौर रेसीडेंसी एजेंट कर्नल बेनरमेन को एक अर्द्ध शासकीय पत्र में लिखा- 'यदि मिशनरियों की सहायता स्ट्रीट प्रीचिंग (सड़कों पर धर्म शिक्षा) में नहीं की जा सकती, क्योंकि महाराजा ऐसा नहीं चाहते हैं तो भी वे आपसे इतनी उचित अपेक्षा करते हैं कि उनके लिए कम से कम इतना तो आप करें कि वे दूसरों को नाराज किए बगैर अपना कार्य कर सकें।'
इस पत्र का उत्तर एजेंट ने 29 जून 1883 के अपने अर्द्ध शासकीय पत्र का उत्तर देते हुए भारत सरकार के सचिव को लिखा- 'मैं नहीं समझता कि यह मामला महाराजा के भेजना उचित है, क्योंकि आपको भेजी अपील से वे बहुत नाराज हैं, क्योंकि वे हमारी कार्रवाई को अपने आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप मानते हैं। हमारा पत्र पाकर उनकी यही भावना और अधिक बलवती होगी और इससे अधिक राजनीतिक महत्व के मामले भी सुलझाना मुश्किल हो जाएगा।
एजेंट ने 25 मई 1883 को होलकर राज्य के प्रधानमंत्री बक्षी खुमानसिंह को एक अर्द्ध शासकीय पत्र लिखकर मिशनरियों को नगर में रियायत देने की प्रार्थना की थी। 25 जून 1883 को बक्षी ने अर्द्ध शासकीय पत्र एजेंट को भेजते हुए लिखा-
'मामला मिशनरियों का है। उन्होंने अभी नगर में कहीं भी पूजा स्थल कायम नहीं किया है। इसीलिए उनके द्वारा सड़कों पर भीड़ एकत्रित करने के विरुद्ध सूचना-पत्र जारी किया गया है।'
जहां तक स्कूल का प्रश्न है, मिशनरियों ने स्वयं ही स्वीकारा है और पूर्व पत्र में आपने भी उल्लेख किया है कि दरबार के लोगों ने उन्हें इस बात की धमकी दी है कि स्कूल में यदि ईसाई शिक्षा दी गई तो स्कूल बंद करवा देंगे। आपत्ति ईसाई धर्म की शिक्षा दिए जाने पर उठाई गई है न कि स्कूल के संचालन पर। राज्य और नगर में संचालित किसी भी शासकीय अथवा अशासकीय शिक्षण संस्था में विद्यार्थियों को धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाती है। उनमें केवल धर्मनिरपेक्ष शिक्षा दी जा रही है। इसी सिद्धांत के आधार पर ईसाई धर्म शिक्षा प्रतिबंधित की गई है।'
अतंत: ईसाई मिशनरियों को होलकर सरकार की आज्ञाओं का पालन करना पड़ा। उन्होंने इंदौर रेसीडेंसी स्थित स्कूल को अपने आधीन करने की मांग की, साथ ही यह भी चाहा है कि इंदौर नगर में अपने भवन के भीतर वे अपना कार्य कर सकें। उल्लेखनीय है कि इसके 5 वर्ष बाद 1888 में इंदौर केनेडियन मिशन कॉलेज (वर्तमान क्रिश्चियन कॉलेज) की स्थापना की गई।