स्वतंत्रता का मंत्र, राष्ट्रगीत बना
वन्दे मातरम्!
सुजलाम, सुफलाम् मलयज-शीतलाम्
शस्यश्यामलाम् मातरम्
वन्दे मातरम्
शुभ्र ज्योत्स्ना पुलकितयामिनीम्
फुल्लकुसुमित द्रुमदल शोभिनीम्
सुहासिनीम् सुमधुरभाषिणीम्
सुखदाम्, वरदाम्, मातरम्!
वन्दे मातरम्
वन्दे मातरम्
ब्रिटिश शासन के दौरान देशवासियों के दिलों में गुलामी के खिलाफ आग भड़काने वाले सिर्फ दो शब्द थे- 'वंदे मातरम्'। आइए बताते हैं इस क्रांतिकारी, राष्ट्रभक्ति के अजर-अमर गीत के जन्म की कहानी -
बंगाल के महान साहित्यकार श्री बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के ख्यात उपन्यास 'आनंदमठ' में वंदे मातरम् का समावेश किया गया था। लेकिन इस गीत का जन्म 'आनंदमठ' उपन्यास लिखने के पहले ही हो चुका था। अपने देश को मातृभूमि मानने की भावना को प्रज्वलित करने वाले कई गीतों में यह गीत सबसे पहला है।
'वंदे मातरम्' के दो शब्दों ने देशवासियों में देशभक्ति के प्राण फूँक दिए थे और आज भी इसी भावना से 'वंदे मातरम्' गाया जाता है। हम यों भी कह सकते हैं कि देश के लिए सर्वोच्च त्याग करने की प्रेरणा देशभक्तों को इस गीत से ही मिली। पीढ़ियाँ बीत गई पर 'वंदे मातरम्' का प्रभाव अब भी अक्षुण्ण है। 'आनंदमठ' उपन्यास के माध्यम से यह गीत प्रचलित हुआ। उन दिनों बंगाल में ‘बंग-भंग’ का आंदोलन उफान पर था। दूसरी ओर महात्मा गाँधी के असहयोग आंदोलन ने लोकभावना को जाग्रत कर दिया था।
बंग भंग आंदोलन और असहयोग आंदोलन दोनों में 'वंदे मातरम्' ने प्रभावी भूमिका निभाई। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के लिए यह गीत पवित्र मंत्र बन गया था।
बंकिम बाबू ने 'आनंदमठ' उपन्यास सन् 1880 में लिखा। कलकत्ता की 'बंग दर्शन' मासिक पत्रिका में उसे क्रमशः प्रकाशित किया गया। अनुमान है कि 'आनंदमंठ' लिखने के करीब पाँच वर्ष पहले बंकिम बाबू ने 'वंदे मातरम्' को लिख दिया था। गीत लिखने के बाद यह यों ही पड़ा रहा। पर 'आनंदमठ' उपन्यास प्रकाशित होने के बाद लोगों को उसका पता चला।
इस संबंध में एक दिलचस्प किस्सा है। बंकिम बाबू 'बंग दर्शन' के संपादक थे। एक बार पत्रिका का साहित्य कम्पोज हो रहा था। तब कुछ साहित्य कम पड़ गया, इसलिए बंकिम बाबू के सहायक संपादक श्री रामचंद्र बंदोपाध्याय बंकिम बाबू के घर पर गए और उनकी निगाह 'वंदे मातरम्' लिखे हुए कागज पर गई।
कागज उठाकर श्री बंदोपाध्याय ने कहा, फिलहाल तो मैं इससे ही काम चला लेता हूँ। पर बंकिम बाबू तब गीत प्रकाशित करने को तैयार नहीं थे। यह बात सन् 1872 से 1876 के बीच की होगी। बंकिम बाबू ने बंदोपाध्याय से कहा कि आज इस गीत का मतलब लोग समझ नहीं सकेंगे। पर एक दिन ऐसा आएगा कि यह गीत सुनकर सम्पूर्ण देश निद्रा से जाग उठेगा।
इस संबंध में एक किस्सा और भी प्रचलित है। बंकिम बाबू दोपहर को सो रहे थे। तब बंदोपाध्याय उनके घर गए। बंकिम बाबू ने उन्हें 'वंदे मातरम्' पढ़ने को दिया। गीत पढ़कर बंदोपाध्याय ने कहा, 'गीत तो अच्छा है, पर अधिक संस्कृतनिष्ठ होने के कारण लोगों की जुबान पर आसानी से चढ़ नहीं सकेगा।' सुनकर बंकिम बाबू हँस दिए। वे बोले, 'यह गीत सदियों तक गाया जाता रहेगा।' सन् 1876 के बाद बंकिम बाबू ने बंग दर्शन की संपादकी छोड़ दी।
सन् 1875 में बंकिम बाबू ने एक उपन्यास 'कमलाकांतेर दफ्तर' प्रकाशित किया। इस उपन्यास में 'आभार दुर्गोत्सव' नामक एक कविता है। 'आनंदमठ' में संत-गणों को संकल्प करते हुए बताया गया है। उसकी ही आवृत्ति 'कमलाकांतेर दफ्तर' के कमलकांत की भूमिका निभाने वाले चरित्र के व्यवहार में दिखाई देती है। धीर-गंभीर देशप्रेम और मातृभूमि की माता के रूप में कल्पना करते हुए बंकिम बाबू गंभीर हो गए और अचानक उनके मुँह से 'वंदे मातरम्' शब्द निकले। यही इस अमर गीत की कथा है।
सन् 1896 में कलकत्ता में काँग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ। उस अधिवेशन की शुरुआत इसी गीत से हुई और गायक कौन थे पता है आपको? गायक और कोई नहीं, महान साहित्यकार स्वयं गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर थे। कितना भाग्यशाली गीत है यह, जिसे सबसे पहले गुरुदेव टैगोर ने गाया।
यह भी माना जाता है कि बंकिम बाबू एक कीर्तनकार द्वारा गाए गए एक कीर्तन गीत 'एसो एसो बंधु माघ आँचरे बसो' को सुनकर बेहद प्रभावित हुए। गीत सुनकर गुलामी की पीड़ा का उन्होंने तीव्र रूप से अनुभव किया।
इस एक गीत ने भारतीय युवकों को एक नई दिशा-प्रेरणा दी, स्वतंत्रता संग्राम का महान उद्देश्य दिया। मातृभूमि को सुजलाम्-सुफलाम् बनाने के लिए प्रेरित किया। 'वंदे मातरम्।' इन दो शब्दों ने देश को आत्मसम्मान दिया और देशप्रेम की सीख दी। हजारों वर्षों से सुप्त पड़ा यह देश इस एक गीत से निद्रा से जाग उठा। तो ऐसी दिलचस्प कहानी है वंदे मातरम् गीत की।