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आजादी के लिए त्याग और बलिदान देने वाली वीरांगनाएं, जिन्हें हम भूल गए

हमें फॉलो करें आजादी के लिए त्याग और बलिदान देने वाली वीरांगनाएं, जिन्हें हम भूल गए
- डॉ. शुचि चौहान
 
आज देश स्वतंत्रता दिवस मना रहा है। यह आजादी हमें यूं ही नहीं मिली। इसके लिए न जाने कितने फांसी के फंदे पर झूले थे और न जाने कितनों ने गोली खाई थी, तब जाकर हमने यह आजादी पाई थी। देश ऋणी है उन क्रांतिवीरों का जिन्होंने देश को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। परंतु दु:ख है इतिहास में कुछ खास लोगों को ही जगह मिली।

कुछ लोग त्याग, बलिदान और आजादी के लिए किए गए लंबे संघर्षों के बाद स्वतंत्र भारत में भी वह सम्मान और पहचान न पा सके जिसके वे हकदार थे। इन वीर सेनानियों में अनेक महिलाएं भी थीं जिन्होंने न केवल क्रांतिकारियों की तरह तरह से सहायता की बल्कि संगठनों व सभाओं का नेतृत्व भी किया। आइए जानें कुछ ऐसी ही वीरांगनाओं के बारे में जो इतिहास के पन्नों में कहीं खो गईं। 
 
झलकारी बाई : झलकारी बाई का जन्म 22 नंवबर 1830 को झांसी के भोजला गांव में हुआ था। बचपन में ही उनकी मां की मृत्यु हो गई। पिता ने मां और पिता दोनों की भूमिका निभाते हुए उन्हें बड़े प्यार से पाला और घुड़सवारी व तीरंदाजी की शिक्षा दी। उनका विवाह रानी लक्ष्मीबाई की सेना के एक सैनिक के साथ हुआ। यहां वे रानी के संपर्क में आईं। रानी ने उनकी क्षमताओं से प्रभावित होकर उन्हें अपने महिला सैनिकों की शाखा दुर्गा दल में शामिल कर लिया। यहां उन्होंने तोप व बंदूक चलाना सीखा और दुर्गा दल की सेनापति बनीं। वे लक्ष्मीबाई की हमशक्ल भी थीं। शत्रु को धोखा देने के लिए कई बार वे रानी के वेश में भी युद्धाभ्यास करती थीं। अपने अंतिम समय में वे रानी के वेश में युद्ध करते हुए अंग्रेजों के हाथों पकड़ी गईं और रानी को किले से भागने का अवसर मिल गया। झलकारी बाई की गाथा आज भी बुंदेलखंड की लोकगाथाओं और लोककथाओं में अमर है। 
 
रानी चेनम्मा : चेनम्मा कर्नाटक के कित्तूर राज्य की रानी थीं। उनका जन्म 1778 में बेलगाम जिले के ककती गांव में हुआ था। पहले पति फिर पुत्र की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने अपनी 'राज्य हड़प नीति' के तहत कित्तूर राज्य को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाने की घोषणा कर दी। रानी को यह मंजूर नहीं था, उन्होंने अंग्रेजी सेना से जमकर लोहा लिया। अपूर्व शौर्य प्रदर्शन के बाद भी वे अंग्रेजी सेना का मुकाबला न कर सकीं। उन्हें कैद कर लिया गया। 21 फरवरी 1829 को कैद में ही उनकी मृत्यु हो गई। उनके इस बलिदान ने तमाम रजवाड़ों को संगठित होने के लिए प्रेरित किया। 
 
दुर्गावती बोहरा (दुर्गा भाभी) : दुर्गावती का जन्म 7 अक्टूबर 1902 को कौशाम्बी जिले के शहजादपुर गांव में हुआ था। दस वर्ष की अल्पायु में ही इनका विवाह लाहौर के भगवती चरण बोहरा के साथ हुआ। भगवती चरण के पिता शिवचरण रेलवे में उच्च पद पर आसीन थे। अंग्रेज सरकार ने उन्हें राय साहब की पदवी दी थी। पिता के प्रभाव से दूर भगवती चरण का क्रांतिकारियों से मिलना-जुलना था। उनका संकल्प देश को अंग्रेजी दासता से मुक्त कराना था। 1920 में पिता की मृत्यु के बाद पति-पत्नी दोनों खुलकर क्रांतिकारियों का साथ देने लगे। 28 मई 1930 को रावी नदी के तट पर साथियों के साथ बम बनाने के बाद परीक्षण करते समय बोहरा शहीद हो गए। अब दुर्गावती जो साथियों में दुर्गा भाभी के नाम से जानी जाती थीं और अधिक सक्रिय हो गईं। 9 अक्टूबर 1930 को दुर्गा भाभी ने गवर्नर हैली पर गोली चलाई परंतु वह बच गया। मुंबई के पुलिस कमिश्नर को भी दुर्गा भाभी ने ही गोली मारी थी, जिससे पुलिस उनके पीछे पड़ गई और गिरफ्तार कर लिया। दुर्गा भाभी का काम क्रांतिकारियों को हथियार पहुंचाना था। वे भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद, बटुकेश्वर दत्त आदि के साथ काम करती थीं। उनकी शहादत के बाद वे अकेली पड़ गईं और अपने पांच साल के बेटे शचींद्र को शिक्षा दिलाने के उद्देश्य से दिल्ली और फिर लाहौर चली गईं। जहां पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और तीन वर्षों तक नजरबंद रखा। 1935 में वे गाजियाबाद आ गईं और एक विद्यालय में पढ़ाने लगीं। इसके बाद अन्य कई स्कूलों में भी उन्होंने अध्यापन किया और 14 अक्टूबर 1999 को इस दुनिया से विदा हो गईं। इस क्रांतिकारी महिला को स्वतंत्र भारत में कोई सम्मान व पहचान नहीं मिली। 
 
कनकलता बरुआ : इनका जन्म 22 दिसंबर 1924 को असम के सोनीपुर जिले के गोहपुर गांव में हुआ था। अल्पायु में ही माता-पिता की मृत्यु के बाद उनकी नानी ने उन्हें पाला-पोसा। 1931 में गमेरी गांव में रैयत अधिवेशन हुआ जिसमें तमाम क्रांतिकारियों ने भाग लिया। सात साल की कनकलता भी अपने मामा के साथ अधिवेशन में गईं। इस अधिवेशन में भाग लेने वाले सभी क्रांतिकारियों पर राष्ट्रदोह का मुकदमा चला तो पूरे असम में क्रांति की आग फैल गई। कनकलता क्रांतिकारियों के बीच धीर-धीरे बड़ी होने लगीं। एक गुप्त सभा में 20 सितम्बर 1942 को तेजपुर कचहरी पर तिरंगा फहराने का निर्णय हुआ। उस दिन बाइस साल की कनकलता तिरंगा हाथ में थामे जुलूस का नेतृत्व कर रही थीं। अंग्रेजी सेना की चेतावनी के बाद भी वे रुकी नहीं और छाती पर गोली खाकर शहीद हो गईं। अपनी वीरता व निडरता के कारण वे वीरबाला के नाम से जानी गईं। आज सबसे कम उम्र की बलिदानी कनकलता का नाम भी इतिहास के पन्नों से गायब है। 
 
बीनादास : बीनादास का जन्म 24 अगस्त 1911 को बंगाल प्रांत के कृष्णानगर गांव में हुआ था। वे कोलकाता में महिलाओं द्वारा संचालित अर्धक्रांतिकारी संगठन छात्रा संघ की सदस्या थीं। 1928 में उन्होंने साइमन कमीशन का विरोध किया। 1932 में उन्हें एक दीक्षांत समारोह में बंगाल के गवर्नर स्टैनली जैक्सन को मारने की जिम्मेदारी दी गई। इस समारोह में उन्हें भी डिग्री मिलनी थी। स्टेनली जब भाषण देने लगा, वे अपनी सीट से उठीं और गवर्नर के सामने जाकर गोली चला दी। उनका निशाना चूक गया, स्टेनली बच गया, परंतु उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। बीनादास को दस साल कैद की सजा सुनाई गई, साथियों के नाम बताने के लिए जेल में तरह तरह की यातनाएं दी गईं, परंतु उन्होंने मुंह नहीं खोला। 1947 से 1951 तक पश्चिम बंगाल प्रांत विधानसभा की सदस्य रहीं। 1986 में ऋषिकेश में उनकी लाश मिली। 
 
मातंगिनी हजारा : मातंगिनी हजारा का जन्म 19 अक्टूबर 1870 को तत्कालीन पूर्वी बंगाल के मिदनापुर जिले के होगला गांवमें हुआ था। गरीबी के कारण बारह वर्ष की उम्र में उनका विवाह 62 वर्षीय विधुर के साथ कर दिया गया। छ: वर्ष के बादवे नि:संतान विधवा हो गईं। जैसे-तैसे गरीबी में दिन गुजार रही थीं। 1932 में देशभर में स्वाधीनता आंदोलन चला और जुलूस उनके घर के सामने से गुजरा तो वे भी जुलूस के साथ चल पड़ीं। इसके बाद वे तन-मन-धन से देश के लिए समर्पित हो गईं। 17 जनवरी 1933 को कर बंदी आंदोलन का नेतृत्व किया, गवर्नर एंडरसन को काले झंडे दिखाए तो गिरफ्तार कर ली गईं। छ: मास का सश्रम कारावास हुआ। भारत छोड़ो आंदोलन की रैली के लिए घर-घर जाकर 5000 लोगों को तैयार किया। तिरंगा हाथ में लिए रैली का नेतृत्व करते हुए मातंगिनी जुलूस के साथ जब सरकारी डाक बंगले पर पहुंचीं तो पुलिस ने वापस जाने को कहा। मातंगिनी टस से मस न हुईं। अंग्रेजी सिपाहियों ने गोली चला दी। गोली मातंगिनी के बाएं हाथ में लगी। तिरंगे को गिरने से पहले ही दूसरे हाथ में ले लिया। दूसरी गोली दाएं हाथ में और तीसरी माथे पर लगी। मातंगिनी वहीं शहीद हो गईं। इस बलिदान ने क्षेत्र के लोगों में जोश भर दिया परिणामस्वरूप लोगों ने दस दिनों के अंदर ही अंग्रेजों को वहां से खदेड़ दिया और स्वाधीन सरकार स्थापित की, जिसने 21 माह काम किया। आज हममें से कितने लोग हैं जो मातंगिनी हजारा जैसी कोई वीरांगना हुई थी यह जानते हैं?
 
भारत भूमि ऐसे बलिदानों और बलिदानियों से भरी पड़ी है। हमें बेशक स्वतंत्रता संग्राम में प्राणों की आहुति देने का सौभाग्य नहीं मिला परंतु आज हम उन अमर शहीदों व उनके परिवार वालों को ढूंढकर उचित सम्मान तो दे ही सकते हैं। 
 
आओ झुककर सलाम करेँ उनको,
जिनके हिस्से में यह मुकाम आता है,
खुशनसीब होता है वह खून जो देश के काम आता है।

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