नई दिल्ली। टोक्यो ओलंपिक में कजाकिस्तान के दौलत नियाजबेकोव को 8-0 से हराकर कुश्ती प्रतियोगिता में पुरुषों के 65 किग्रा भार वर्ग में कांस्य पदक जीतने वाले बजरंग पूनिया को यह सफलता वर्षों की कड़ी मेहनत और त्याग के बाद मिली है।
जब वे महज 11 साल के थे, तब रात दो बजे अभ्यास के लिए अखाड़े में पहुंच जाते थे। परिवार के लोगों से बचने के लिए वे अपने बिस्तर पर तकिए को चादर से ऐसे ढंक देते थे, जिससे ऐसा लगे कि वे सो रहे हैं। सात-साढ़े सात घंटे के अभ्यास के बाद जब वे घर वापस आते थे तो उनकी मां रामप्यारी उनसे पूछती थी कि कब उठे थे। वह मुस्कुराकर झूठ बोल देते थे कि सुबह चार बजे।
उनकी मां जानती थीं कि वे सच छुपा रहे हैं, लेकिन वे बजरंग को इसके लिए कभी डांटती नहीं थीं। आखिर कुश्ती उनकी रगों में जो था। उनके पिता और बड़े भाई भी पहलवान रहे हैं। उनकी मां ने उनसे केवल एक ही बात कही, हारने के बाद कभी रोना मत। दूसरों के सामने कभी कमजोर मत दिखना। हार को अपनी प्रगति में सुधार की तरह लो और आगे बढ़ते रहो।
बजरंग बचपन में सारा दिन घर और स्कूल की जगह अखाड़े में रहना चाहते थे। वे केवल कुश्ती करना चाहते थे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि उनके प्रतिद्वंद्वी का वजन और उम्र क्या है। बजरंग 2008 में जब 34 किलो के थे, तब मछरोली गांव के एक दंगल में उन्होंने लगभग 60 किग्रा के पहलवान के खिलाफ कुश्ती करने की अनुमति मांगी।
उनके भाई और पहलवान हरिंदर ने कहा, जब आयोजकों ने उनकी जिद्द के आगे घुटने टेक दिए और हमने भी उन्हें भाग लेने दिया, तो उन्होंने कुश्ती की और उस पहलवान को चित्त कर दिया। कोच आर्य वीरेंद्र ने सबसे पहले उनकी प्रतिभा को पहचाना और छारा इनडोर स्टेडियम में बजरंग ने प्रशिक्षण शुरू किया। वे तीन साल तक उनकी देखरेख में अभ्यास करते रहे।
बजरंग की प्रतिभा को नजरअंदाज करना मुश्किल था और 2008 में उनके पिता बलवान सिंह ने उनका नामांकन प्रसिद्ध छत्रसाल स्टेडियम में कराया। बजरंग दो साल में एशियाई कैडेट चैंपियन बन गए और 2011 में उन्होंने खिताब का बचाव किया।
इस प्रसिद्ध प्रशिक्षण केंद्र में उन्होंने सात साल बिताए। यहीं पर सुशील कुमार और योगेश्वर दत्त जैसे ओलंपिक पदक विजेताओं ने भी अभ्यास किया था। बजरंग ने इस दौरान राष्ट्रमंडल खेलों और एशियाई खेलों के पदक जीते और धीरे-धीरे इस खेल के बड़े खिलाड़ी बन गए। उन्हें सबसे बड़ी सफलता तब मिली, जब उन्होंने 2018 विश्व चैंपियनशिप में रजत पदक जीता। इस जीत के बाद ही उनसे ओलंपिक पदक की आस जाग गई।
छत्रसाल स्टेडियम में इस दौरान योगेश्वर दत्त के साथ उनके मजबूत संबंध बन गए। योगेश्वर के इस स्टेडियम को छोड़ने के बाद उन्होंने भी उनका अनुसरण किया। इसके बाद वे योगेश्वर के मार्गदर्शन में बहालगढ़ में राष्ट्रीय शिविर में अभ्यास करने लगे। योगेश्वर के राजनीति में शामिल होने के साथ बजरंग को जॉर्जियाई शाको बेंटिनिडिस के रूप में एक निजी कोच मिला। जिन्होंने विदेशों में अच्छे स्पैरिंग साथी ढूंढने में उनकी मदद की।
खेल पर ध्यान देने के लिए बजरंग ने खुद को सात साल तक मोबाइल फोन से दूर रखा था। वे प्रतियोगिता के दौरान कभी घूमने नहीं जाते हैं और उन्होंने आज तक सिनेमा हॉल नहीं देखा है। बजरंग के करियर के लिए 2018 मील का पत्थर साबित हुआ, जिसमें उन्होंने पांच पदक जीते।
उन्होंने राष्ट्रमंडल खेलों, एशियाई खेलों और विश्व चैंपियनशिप में पदक जीता था। उन्होंने 2019 विश्व चैंपियनशिप में कांस्य पदक जीतकर ओलंपिक कोटा हासिल किया। वे तीन विश्व चैंपियनशिप (2013, 2018 और 2019) में पदक जीतने वाले एकमात्र भारतीय पहलवान हैं।(भाषा)