इंडियन आर्मी में कई ऐसे सैनिक रहे हैं, जिन्हें जांबाज और बहादूर की संज्ञाएं दी जाती हैं। देश के लिए उनकी शहीदी और शौर्य गाथाएं लिखीं जाती हैं। ऐसा हो भी क्यों नहीं, यही तो एक ऐसी सेवा जिसमें देश की मिट्टी को अपनी मां कहकर सैनिक उसी मिट्टी में मिलकर अमर हो जाते हैं।
लेकिन कुछ नाम ऐसे होते हैं, जो अमर होने के साथ ही हमेशा के लिए दिलों दिमाग में अंकित हो जाते हैं। भले ही इतिहास ने उन्हें गुमनामी में धकेल दिया हो, लेकिन उनकी कहानियां चीख-चीखकर वर्तमान के कलेजे पर उभर आती हैं। एक ऐसा ही नाम है हनुत सिंह।
राजस्थान के जोधपुर शहर से करीब 80 किलोमीटर की दूरी पर एक इलाका है जसोल। अपनी राजस्थान की खुश्बू समेटे हुए यह इलाका यूं तो कोई दूसरी पहचान नहीं रखता, लेकिन जैसे ही इसके साथ हनुत सिंह का नाम जुड जाता है, इस इलाके और यहां रहने वाले हर बच्चे, बुजुर्ग और जवान का मस्तक गौरव से ऊंचा उठ जाता है।
1971 की लड़ाई में अपने जौहर दिखा चुके लेफ्टिनेंट जनरल हनुत सिंह यहीं के रहने वाले थे। उनके बारे में कहा जाता है कि अगर उन्हें 1986 की कमान मिल जाती तो भारत और पाकिस्तान के नक्शों में इतना बडा बदलाव होता कि उसके बारे में आज किसी को सोचकर यकीन भी नहीं होगा।
1971 में हुआ था जब हनुत सिंह 17 पूना हॉर्स के सीओ थे। बैटल ऑफ़ बसंतर की उस मशहूर लड़ाई में दुश्मन से घिर जाने के बावजूद अपने हर जूनियर ऑफ़िसर को एक इंच भी पीछे हटने के लिए मना कर दिया था। इसी वॉर में सेकंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल को शहीद होने के बाद परमवीर चक्र मिला था। इसी जंग में एक बेहतरीन कमांडिंग के लिए लेफ्टिनेंट कर्नल हनुत सिंह को महावीर चक्र मिला था।
लेकिन हनुत सिंह की शौर्य गाथाओं का यह सिर्फ नमुनाभर है। असल जौहर तो उन्होंने 1986 में दिखाए थे। इस भारतीय सेना इतिहास के सबसे बड़े युद्धाभ्यास ‘ऑपरेशन ब्रासटैक्स’ को अंजाम देने वाली थी। जिसमें हनुत सिंह ने बेहद अहम भूमिका निभाई थी।
हनुत सिंह ने अपनी पूरी जिंदगी में आर्मी जो सीखा था वो सबकुछ इस युद्धाभ्यास में झौंक दिया था।
हनुत को सेना के सुप्रतिष्ठित हमलावर 2 कोर की कमान सौंपी गई थी। वे राजस्थान की सीमा पर डटे थे। उनके पास डेढ़ लाख भारतीय सैनिक थे। वे रोज़ सैनिकों को नए अभ्यास कराते, नक़्शे, सैंड-मॉडल बनाकर हमले की प्लानिंग करते और खतरनाक मारक ट्रेनिंग देते थे।
भारत की प्रैक्टिस देखकर पाकिस्तान का गला सुख गया था। जबकि अमेरिका में भी हडकंप मच गया। पाकिस्तानी हनुत सिंह की जांबाजी 1971 में देख चुके थे। जब बसंतर की लड़ाई में हनुत ने उनके 60 टैंक मार गिराए थे। लेकिन इस बार हनुत पाकिस्तान पर सीधा हमला करने वाले थे। लेकिन घबराकर पाकिस्तान सेना और सरकार ने एनवक्त पर ट्रैक 2 डिप्लोमेसी का इस्तेमाल कर इस युद्धाभ्यास को रुकवा दिया। अगर यह वॉर होता तो हनुत सिंह पाकिस्तान का नक्शा बदल देते।
सेना के अलावा भी हनुत सिंह की सख्ती के कई किस्से हैं। यह बात है 1982 की। जब हनुत सिंह मेजर जनरल बने और सिक्किम में तैनात 17 माउंटेन डिविज़न की कमान उन्हें दी गई। सिक्किम के तत्कालीन गवर्नर होमी तल्यारखान की इंदिरा गांधी के साथ नज़दीकी के चलते सेना के उच्चाधिकारी उनकी हाज़िरी में खड़े रहते। उन दिनों जो भी सरकारी अधिकारी सिक्किम घूमने आता, वे सेना की मेहमाननवाज़ी का लुत्फ़ उठाते। हनुत ने यह सब बंद करवा दिया। उन्होंने आने वाले सरकारी सैलानियों से सरकारी शुल्क वसूलना भी शुरू कर दिया।
हनुत सिंह ने ताउम्र शादी नहीं की। उनका कहना था कि सैनिक शादी कर लेगा तो देश सेवा कौन करेगा। वे आजीवन कुंवारे रहे। उनसे प्रभावितहोकर उनकी यूनिट में कई जवानों और अफ़सरों ने शादी नहीं करने का फैसला ले लिया। इससे उन सैनिकों और अफसरों के परिजन हनुत सिंह से परेशान हो गए। यहां तक कि इसे लेकर हनुत सिंह की शिकायत भी कर डाली।
जब हनुत सिंह का अपनी यूनिट से तबादला हुआ तो उनके सैनिकों ने उन्हें एक मेमेंटो दिया जिस पर लिखा,
‘जितना सैनिकों के लिए बाक़ी अफ़सरों ने 20 साल में किया है, आपने एक साल में कर दिखाया’
1971 में उनके कमांडिंग ऑफ़िसर अरुण श्रीधर वैद्य (बाद में सेनाध्यक्ष) ने एक बार जंग के दौरान उनसे हालचाल मालूम करने की कोशिश की तो हनुत ने कहलवा दिया कि वे ‘पूजा’ कर रहे हैं और अभी बात नहीं कर सकते!’
दरअसल, जंग के दौरान वे किसी भी प्रकार का दख़ल बर्दाश्त नहीं करते थे। उनकी काबिलियत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भारत में टैंकों की लड़ाई पर हनुत सिंह के लिखे दस्तावेज़ आज भी इंडियन मिलिट्री अकादमी में पढ़ाए जाते हैं।
इतनी काबिलियत के बावजूद हनुत सिंह सेनाध्यक्ष नहीं बनाए गए। वे बाद में गुमनामी में ही चले गए। जब उन्हें यह पता चला कि उनकी बजाए किसी और को सेनाध्यक्ष बनाया जा रहा है तो उन्होंने कहा था- ‘
यह मेरा नहीं देश का नुकसान है, यह तय है कि हर क़ाबिल अफ़सर सेनाध्यक्ष नहीं बनता और हर सेनाध्यक्ष क़ाबिल नहीं होता’