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भारत का इंदु – भारतेंदु

(भारतेंदु हरिश्‍चंद्र की पुण्‍यतिथि – 6 जनवरी पर विशेष)

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हमें फॉलो करें भारतेंदु हरिश्चंद्र

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एक ही परिवार के इतिहास में वतनपरस्‍ती और वतन की खिलाफत के कैसे अंतर्विरोधी उदाहरण हो सकते हैं। अमीचंद का नाम इतिहास में अँग्रेजों के साथ मिलकर बंगाल के नवाब के साथ धोखाधड़ी और कौम की मुखालफत के लिए किताबों में दर्ज है। लेकिन बहुत कम लोग ये जानते हैं कि मूलत: इसी अमीचंद के परिवार से तआल्‍लुक रखने वाले बनारस के एक प्रतिष्ठित महाजन परिवार में जन्‍म हुआ था, भारतेंदु हरिश्‍चंद्र का, जिन्‍होंने हिंदी साहित्‍य में नवजागरण का सूत्रपात किया।

राजा-महाराजाओं की प्रशस्ति-गाथा और स्त्रियों के नख-शिख सौंदर्य के वर्णन से अटे पड़े साहित्‍य को एक गुलाम देश में किसी ऐसे मार्गदर्शन की जरूरत थी, जो देश में आजादी की, स्‍वाभिमान की और आत्‍म-सम्‍मान की अलख जगा सकता और ये काम भारतेंदु ने बखूबी किया। सौंदर्य और प्रशस्ति-गाथाओं में डूबा हुआ देश का स्‍वाभिमान उठे और अँग्रेज हुक्‍मरानों को अपनी धरती से खदेड़ बाहर करे। सात समंदर पार गोरी चमड़ी वालों के साथ आई भाषा और संस्‍कृति इस देश की जमीन पर पैदा नहीं हुई है। वो भाषा हमारी नहीं। हमारी भाषा तो हिंदी है। हम इतने दरिद्र तो नहीं कि अपने गौरव को पहचानने के लिए हमें एक पराई भाषा पर निर्भर होना पड़े

भारतेंदु ने लिखा :

निज भाषा उन्‍नति अहै सब उन्‍नति को मूल
बिनु निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय को शूल।।

9 सितंबर, 1850 को वाराणसी के एक धनी महाजन परिवार में भारतेंदु हरिश्‍चंद्र का जन्‍म हुआ। पिता गोपाल चंद्र तंबाकू का व्‍यापार करते थे, लेकिन पढ़ने-लिखने की अभिरुचि होने के कारण गिरधर दास उपनाम से साहित्‍य-सृजन भी करते थे। यह संस्‍कार नि:संदेह भारतेंदु को अपने पिता से ही मिला था। जब वो सिर्फ पाँच साल के थे, एक दोहा बनाकर उन्‍होंने अपने पिता को सुनाया। पिता के आश्‍चर्य का ठिकाना नहीं। इतना छोटा बच्‍चा इस तरह कैसे लिख सकता है। पिता काफी देर तक मन-ही-मन उस दोहे को दोहराते रहे :
  हिंदी साहित्‍य की उस दौर की प्रतिष्ठित पत्रिका कविवचन-सुधा का संपादन भारतेंदु ने 18 वर्ष की उम्र में शुरू किया। उस दौर के प्रसिद्ध लेखकों और कवियों की रचनाएँ उस पत्रिका में प्रकाशित होती थीं।      


लै ब्‍योढ़ा ठाढ़े भए श्री अनिरुद्ध सुजान।
वाणा सुर की सेन को हनन लगे भगवान।।

पिता का साया ज्‍यादा समय तक होता तो शायद जीवन कुछ और परिणाम दिखाता, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। बहुत कम उम्र में ही भारतेंदु के माता-पिता की मृत्‍यु हो गई। वो स्‍कूल न जा सके। विद्यालयी पढ़ाई से वंचित भारतेंदु ने घर पर रहकर स्‍वाध्‍याय से खुद को शिक्षित किया। जीवन की पाठशाला उसे सिखा रही थी और उदात्‍त जीवन मूल्‍यों और विचारों की ओर प्रवृ‍त्‍त कर रही थी।

छुटपन से ही लिखने की ओर उनका रूझान था। हिंदी साहित्‍य की उस दौर की प्रतिष्ठित पत्रिका कविवचन-सुधा का संपादन भारतेंदु ने 18 वर्ष की उम्र में शुरू किया। उस दौर के प्रसिद्ध लेखकों और कवियों की रचनाएँ उस पत्रिका में प्रकाशित होती थीं। उसके बाद उन्‍होंने हरिश्‍चंद्र पत्रिका और बाल-विबोधिनी नामक पत्रिकाओं का भी संपादन किया।

इन पत्रिकाओं के पुराने उपलब्‍ध अंकों पर काफी शोध और काम होता रहा है। उन पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनाएँ सिर्फ सौंदर्य, रस, श्रृंगार और जीवन से कटा हुआ अमूर्त सृजन भर नहीं है। वो अंक इस बात का प्रमाण देते हैं कि भारतेंदु कलम के माध्‍यम से तत्‍कालीन समाज को बदलने, उसे उन्‍नत करने की दिशा में प्रयासरत थे। भारतेंदु का लेखन उस समाज को भी प्रभावित कर रहा था, जो ब्रिटिश हुक्‍मरानों की कैद में था

भारतेंदु अगर प्रेम की और प्रेम में विरह की बात करते हैं :

देख्‍यो एक बार‍हि न नैन भरि तोहि याते
जौन जौन लोक जैहें तहि पछतायगी
बिना प्रान प्‍यारे भए दरसे तिहारे हाय,
देखि लीजो आँखें ये खुली ही न रहि जाय

और प्रकृति और सौंदर्य के बिंब रचते थे :

चारु चंद्र की चंचल किरणे
खेल रही हैं जल-थल में,
स्‍वच्‍छ चाँदनी बिछी हुई है,
अवनी और अंबर तल में

तो वहीं महाजनी व्‍यवस्‍था, सूद, रिश्‍वत और समाज की कुरीतियों पर भी प्रहार करते हैं :

चूरन अमले जो सब खाते,
दूनी रिश्‍वत तुरत पचावें
चूरन सभी महाजन खाते,
जिससे जमा हजम कर जाते।

भारतेंदु की भाषा प्रधानत: ब्रज भाषा है, लेकिन सिर्फ कविताओं की। गद्य में खड़ी बोली हिंदी की शुरुआत का श्रेय भी भारतेंदु को जाता है। उन्‍होंने ही सबसे पहले खड़ी बोली में व्‍यंग्‍य, नाटक और अन्‍य गद्य रचनाएँ लिखीं।

भारतेंदु सिर्फ साहित्‍यकार नहीं, बल्कि एक पत्रकार भी थे। उनके पास वह नजर थी, जो अपने युग की नब्‍ज को पकड़ सकती है, अपने समय की जरूरत को महसूस कर सकती है। उपनिवेशवाद के खिलाफ, अँग्रेजों की हुकूमत और हिंदुस्‍तानियों की गुलाम मानसिकता के खिलाफ, और खुद हिंदू समाज में व्‍याप्‍त रूढि़यों और कुरीतियों के खिलाफ उन्‍होंने अपनी कलम के माध्‍यम से जमकर संघर्ष किया।

भारतेंदु ने वास्‍तव में हिंदी साहित्‍य में नवजागरण युग की शुरुआत की। 6 जनवरी, 1885 को, ज‍ब भारतेंदु का निधन हुआ, तब उनकी उम्र सिर्फ 34 साल थी और इतनी कम अवस्‍था में ही उनकी प्रतिभा और विद्वता से प्रभावित होकर लोगों ने उन्‍हें ‘भारतेंद’ की उपाधि से विभूषित किया था। ‘भारतेंद’ यानि भारत का इंदु अर्थात चंद्रमा

आज जब एक बार फिर ग्‍लोइलाइजेशन और बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों के संजाल में पूरी दुनिया पर उपनिवेशवाद का खतरा मँडरा रहा है, भारतेंदु की प्रासंगिकता फिर जीवित हो उठी है।

हिंदी को फिर से एक नए भारतेंदु की, नए नवजागरण की जरूरत है। साहित्‍य के आकाश में जगमगाते चंद्रमा का सौंदर्य, उसका प्रकाश, वह प्रकाश तो ज्ञान के सूर्य के तेज से चमक रहा है, आज फिर नए नवजागरण की राह दिखा रहा है।

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