कथाकार सुधा अरोड़ा की कलम से
मन्नू दी, आप बहुत खुश हो रही होंगी कि आखिर आपने मुझे मात दे ही दी और अकेले ही अपने सफर पर निकल गईं। कितना डरती थी आप मौत से ! कहां चला जाता है आदमी, आखिर होता क्या है उसका ? मैं तो कभी न मरना चाहूं, जब तक मैं अपना काम न पूरा कर लूं। ...
मन्नू दी, 5 साल पहले आज ही के दिन आपके भाई भाभी इंदौर से आए थे और आप उनसे कह रही थीं -- देख, मैं तो बाई सा की तरह नहीं कहूंगी कि बेटी के घर नहीं मरना मुझे ! अव्वल तो मुझे मरने से ही बहुत डर लगता है पर मैं अपनी बेटी के घर ही अपनी आखिरी सांस लेना चाहती हूं , अस्पताल में तो कभी... कब्भी भी नहीं ।...
और आज सुबह रत्ना ने बताया कि कल आपने आंखें खोलकर इतने प्यार से उसे देखा जैसे कह रही हों, मुझे छोड़ कर मत जा । मन नहीं कर रहा था सुधा मासी , उन्हें इस तरह छोड़ कर आने का लेकिन आईसीयू में मिलने नहीं देते....
.... और दो घंटे बाद यह खबर ! रचना ने कहा - आप फेसबुक पर खबर डाल दीजिए...
अपनी वॉल पर चार शब्द लिखने में मैं बिल्कुल सुन्न हो रही थी।
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आप हमेशा कहती थीं न कि देख, टिंकू के पापा ने कभी कुछ नहीं किया उसके लिए, पर वह उनका कितना ख्याल रखती है। अब तो आपको उससे कोई शिकायत नहीं रही न? उसने आपका अपने पापा से कहीं ज्यादा, बहुत ज्यादा ख्याल रखा। रेकी, आयुर्वेद, होम्योपैथ कुछ नहीं छोड़ा। अष्टभुजा बनी सारी जिम्मेदारियां संभालती रही।
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कितनी ढेर सी यादें हैं जो उफनती चली आ रही हैं । ...
मेरी मां जब 1999 में चली गईं और मैं बेहद डिप्रेशन में थी, आपने कहा -- देख, अब यही तेरा मायका है । मेरे घर के दरवाजे हर वक्त खुले हैं तेरे लिए ! ... और सचमुच वे दरवाजे मेरे लिए हमेशा खुले ही रहे । मेरी दिल्ली सिर्फ हौज़ ख़ास के उस घर से थी। साल में दो बार जाना तय था और चाहें महीना भर रहकर आऊं, लौटते वक्त कहती थीं - मेरा जी नहीं भरा। तू तो मेरे पास ही रह जा !
नहीं भूलती मैं वे दिन, जब आपके घर रहते हुए, मेरी जरा सी तबीयत खराब होती तो आप बेचैन हो उठतीं। कभी फ़ोन पर मेरी डूबती आवाज़ सुनतीं तो घबरा कर कहतीं -- देख सुधा, मेरे जाने से पहले तू मत चली जाना, मैं तो अनाथ हो जाऊंगी। मैं कहती - मैं चली गई तो आपको तोप दागने के लिए कंधा कहां से मिलेगा ? फिर हम दोनों हंसते। ... यह बात जब मैने कहीं लिख दी तो आपने कहा - यह भी लिख ना कि हम दोनों मौत को पछाड़ते हुए कैसे अपने अपने अखाड़े में तनकर डटे हैं।
अपने बहुत विनम्र लहज़े के साथ साथ, बहुत हिम्मती, बहुत स्वाभिमानी, बहुत बहादुर और बेहद जांबाज़ थीं आप, पर कभी कभी, नहीं, अक्सर ही आपकी भी हिम्मत जवाब दे जाती थी। अपनी इस हार को सबसे छिपाने की कशमकश में सारा असर आपकी नसों पर आ जाता था जो इस क़दर टीसती थीं कि देखने वाला भी घबरा जाए। अपने जीवट को बचाए रखने की कोशिश में देह और मन के बीच जो रस्साकशी चलती थी, वह आपके बहुत करीबी लोगों ने ही देखी ।.... बाहर के लोगों ने तो न आपके मन के भीतर झांकने की कोशिश की, न आपको कोई रियायत दी बल्कि आपने भी लांछन और तोहमतें ही झेलीं। आखिर क्यों वही आपको दिखाई देती थीं और छीलती थीं ? नहीं दिखता था आपको अपने पाठकों का ऐसा बेइंतहा प्यार -- जो बार बार मुझे आपके ही पुराने खतों का ज़खीरा खोल खोल कर पढ़ कर आपको सुनाना पड़ता था।
सन 2009 में जब कथा देश के लिए हरिनारायण जी के साथ यह निर्णय लिया था कि एक अंक आप पर केंद्रित करना है तो आपने कहा था - जब लेखक लिखना बंद कर दे तो उसे जीना भी बंद कर देना चाहिए। बार बार आपको मुझे याद दिलाना पड़ता था कि कोई बात नहीं, जितना लिख लिया, वह अनूठा है, नायाब है। रचना की गुणवत्ता देखें, तौल के हिसाब से तो बहुत लोग लिखते हैं, वैसे लेखन का होना, न होना बराबर है ...
दरअसल आपको कहीं भीतर, बहुत गहरे में यह उम्मीद और अपने पर भरोसा था कि आपकी कलम फिर चलेगी । ...और वह चली भी। आपने मां पर एक अनूठा संस्मरण लिखा, फिर कमलेश्वर पर एक बेबाक खरा खरा संस्मरण भी लिखा, एक नाटक भी बड़े जोश में आकर लिखा -- उजली नगरी चतुर राजा। एक उपन्यास था जो आपको पूरा करना था ... और थीं कई लंबी कहानियां! पर मानसिक तनाव से आपके भीतर जड़ें जमा चुकी जिस भीषण न्यूरोलजिया ने आपको ध्वस्त कर रखा था, उसने आखिरकार डिमेंशिया के मुहाने पर लाकर आपको बिलकुल अवश कर दिया।
आज मैं खुद भी वैसी ही स्थिति में हूं। जब कलम और दिमाग का तालमेल नहीं बिठा पाती तो समझ सकती हूं कि एक रचनाकार के लिए यह मेंटल ब्लॉक कितना तकलीफदेह होता है -- न लिख पाना। आपके पाठक आपको "चुके हुए" का तमगा टांक कर नकार चुके होते हैं और आप अपने अतीत को सीने से लगा कर बिलखते रह जाते हैं। आपका स्वर्णिम लेखकीय अतीत आपको अपनी उंगली थामने नहीं देता और आप हर तरफ से अकेले पड़ने लगते हैं क्योंकि कलम जो आपकी संजीवनी है , वही आपसे रूठी हुई आपकी पहुंच के बाहर, बहुत दूर खड़ी होती है।
इस पुरुषप्रमुख समाज से आप अकेले नहीं लड़ सकती थीं मन्नू दी और न ही मैं अकेले इससे दो चार हो सकती थी। जानती हूं जब आपने राजेंद्र जी को अलग होने का फरमान थमा दिया तो आपके अधिकांश मित्र, आपको अपने न्यूरोलजिया के साथ अकेले छोड़ कर, दूसरे पाले में चले गए। ... न सिर्फ़ पुरुष मित्र बल्कि महिलाएं भी। सत्ता का खेल ऐसा ही होता है, आप जानती थीं फिर भी अपने को तकलीफ़ में डूबने के लिए बेसहारा छोड़ देती थीं। अपनी समूची कीमती रचनात्मक उपलब्धियों के बावजूद आपने खूब तीर तरकश, ताने उलाहने भी झेले।
आज इस पर एक कसक सी उठती है, जबकि मुस्कुराहट उभरनी चाहिए कि हम एक और एक मिलकर ग्यारह हुए। चारों ओर से नुकीले दंश झेलते हुए भी आपने कभी अपनी सादगी, विनम्रता पर धुएं की काली परत चढ़ने नहीं दी और न ही मुझे कभी अवसाद के गर्त में पूरी तरह उतर जाने दिया। आपकी एक उंगली का सहारा बेशकीमती था मेरे लिए!
आपकी कितनी सखी सहेलियों ने आपको मेरे खिलाफ़ बरगलाने की भी कोशिश की पर आप का भरोसा मुझ पर चट्टान सा अडिग था। हम दोनों एक दूसरे के लिए सुरक्षा कवच बने रहे।
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मन्नू दी, अब आप मुझे अकेला छोड़कर चली ही गई हैं तो अपने पास वाली सीट मेरे लिए रिजर्व रखिएगा।
.... पर एक अनुरोध है आपसे मन्नू दी .... मुझे बुलाने की जल्दबाजी मत कीजिएगा। आपके रचनात्मक साहित्य से तो पूरा हिंदी जगत परिचित है पर आपके जीवन की त्रासदी, आपके अकेलेपन, आपके जुझारूपन और संघर्ष के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। क्योंकि वे जानना चाहते ही नहीं। जो नहीं जानना चाहते, उन्हें मैं बताना चाहती हूं, इसलिए थोड़ा इंतजार कर लीजिए मन्नू दी ! .... और मेरे सिर पर अपना हाथ रखिए कि मेरी कलम पर लगा यह सूखा हटे और मैं आपका कर्ज़ उतार सकूं।
इतनी मोहलत तो देंगी न मन्नू दी?
आपकी ही
सुधा
मेरा अंतिम प्रणाम