मान गए कि शहंशाह अकबर महान थे। कैसे नहीं मानते। मानना ही पड़ा। जो काम दुनिया के किसी राजा-नवाब ने नहीं किया, वह हमारे शहंशाह ने कर दिखाया। दुनिया के सम्राटों ने, सुल्तानों ने, बादशाहों ने शेर मारे होंगे, गेंडे, हाथी, सूअर मारे होंगे, भैंसे और हिरण का शिकार किया होगा, लेकिन किसी माई के लाल ने गधे नहीं मारे थे। एक नहीं, दो नहीं, 16 गधे जान से मार दिए, हमारे बहादुर अकबरे आजम ने। एक को भी घायल नहीं छोड़ा। लगातार 30 मील तक पीछा किया और सोलहवें के प्राण निकालकर ही चैन की सांस ली।
जो काम अकबर के बाप हुमायूं ने नहीं किया, दादा बाबर ने नहीं किया, पुरखे तैमूर ने नहीं किया, वह जिल्ले-इलाही, शहंशाहे हिन्द अकबर ने कर दिखाया। मामूली काम नहीं था, गधों को मारना। इस शौर्यपूर्ण प्रदर्शन में शहंशाह मरते-मरते बचे। गधों की लातों से नहीं, पानी की प्यास से। शहंशाह ने बंदूक की गोलियों से गधे भून डाले। शहंशाह ने गधे मारे अपनी भुजाओं का बल दिखाने के लिए।
यह बात मैं नहीं कह रहा हूं। यूरोप का प्रसिद्ध इतिहासकार विंसेंट स्मिथ कह रहा है, अकबर के दरबार का नौरत्न अबुल फजल कह रहा है। अकबर मुलतान में शेख फरीद के दर्शन करने को गया था। वहीं उसे पता लगा कि बीकानेर के रेगिस्तानी इलाके में गधों का झुंड देखा गया है। बस...! उसने पानी भी नहीं पिया और हाथ धोकर गधों के पीछे पड़ गया। अबुल फजल ने गढ़ा-मंडला की वीर रानी दुर्गावती के बारे में लिखा था कि यदि उसे पता लग जाता कि अमुक जंगल में शेर आ गया है, तो वह तुरंत भोजन से उठ जाती थीं, पानी भी नहीं पीती थी और जब तक शेर को नहीं मार लेती, उसे चैन नहीं आता था। फिर भला शहंशाह अकबर, दुर्गावती से किसी बात में कम थोड़े ही थे। वे भी तुरंत तीन-चार शिकारियों को साथ ले, बंदूक उठा चल दिए। गधों का झुंड दिखाई दिया, उन्होंने एक ही गोली में एक गधे को मार गिराया, बाकी सिर पर पैर रख भाग छूटे। लेकिन भागकर जाते कहां? उनका पाला किसी ऐसे-वैसे से नहीं, अकबर महान से पड़ा था। अकबर बंदूक भरते जाते और गधे मरते जाते। आगे-आगे गधे और पीछे-पीछे आलमपनाह; फिर गधों को पनाह कहां मिलनी थी।
तीस मील तक लगातार पीछा करते रहे और आखिरी गधे को मार ख्याल आया कि अरे! प्यास लग रही है। लेकिन साथ के चारों शिकारी पीछे छुट चुके थे, उन्हीं के पास थी पानी की मशक। रेगिस्तान में पानी का नाम नहीं, प्यासे के मारे प्राण कंठ को आ गए। वो तो अल्लाह मेहरबान था, जो गधों को मारने वाले पहलवान के प्राण बचाने उसने बिछुड़े शिकारियों को ला मिलाया। अकबर ने पानी पीया, जान बची सो लाखों पाए, गधे को मार वो घर को आए। (अकबरनामा पृष्ठ 336 और विंसेंट स्मिथ पृष्ठ 103)
शेरनी व बच्चों का शिकार : आला हजरत सारंगपुर से लौट रहे थे, साथ थीं मालवा के बाजबहादुर से व नागरिकों से छीनी गई 1100 खूबसूरत औरतें। ये शहंशाह के हरम के लिए बटोरी गई थीं। इन औरतों पर रुआब जताना जरूरी था। ग्वालियर के पास का नरवर आ गया, किंतु रुआब जमाने लागक कोई जुगाड़ बैठा नहीं। अब तो अगले पड़ाव पर आगरा जाना ही था। वहां तो ये नाजनीनें जिंदगीभर के लिए हरम की चारदीवारी में बंद होने वाली थीं; फिर कब मौका मिलेगा रुआब जमाने का। लेकिन कुदरत का नजारा देखिए, शहंशाह की दिलेरी कांड का डंका बजवाने के लिए शिकार हुजूर के इस्तकबाल के लिए सामने आ खड़ा हुआ।
देखा तो एक नई शेरनी अपने छोटे-छोटे नवजात 5 बच्चों के साथ जहांपनाह का मार्ग रोके खड़ी थी। शेरनी मार्ग से हटी नहीं, न बच्चे ही हटे। शहंशाह अपने अंगरक्षकों के साथ टूट पड़े, शेरनी के बच्चों पर। किसी की भी तलवार से मरी हो शेरनी, लेकिन लिखा तो यही जाएगा कि आला हजरत की तलवार के एक ही वार से कट गई खूंखार शेरनी। और बच्चे! भला हुजूर शेरनी के बच्चों पर कहीं हाथ उठा सकते हैं? उन्हें तो शहंशाह के अंगरक्षकों ने काट फेंका। (स्मिथ पृष्ठ 4 एवं अकबरनामा पृष्ठ 201)
अकबर ने इस घटना को अकबरनामे में दर्ज करवाया था। अबुल फजल अकबर के जीवन की प्रमुख घटनाओं को रोजनामचे में लिखकर अकबर को पढ़कर सुनाता था; फिर अकबर के आदेश पर लिखे में सुधार करता और बाद में अकबरनामे में उतार देता। अकबर की नजर में शेरनी को बच्चों को मार देने की घटना महत्वपूर्ण थी इसीलिए अकबरनामे में उसे स्थान मिला।
वैसे शेरनी एक बार में तीन बच्चे जनती है। तीन से अधिक बच्चे होने की स्थिति में वह काफी कमजोर हो जाती है। इतनी कमजोर कि न तेजी से भाग सकती है, न बड़े शिकार ही कर सकती है। एक माह तक उसे छोटे शिकार पर निर्भर रहना पड़ता है। ऐसे शिकार, जो न तेजी से भाग सकें और न मुकाबला कर सकें। खरगोश, बकरी, भेड़, गाय-भैंसों के बच्चों, मानव व स्त्रियों को ही शिकार बना शेरनी भूख मिटाती थी। एक तो पांच बच्चों के प्रसव से कमजोर शेरनी, फिर अपने बच्चों को छोड़ वैसे भी भाग नहीं सकती थी, फिर साथ चल रही सेना के तीरों की बौछारों ने शेरनी को अधमरा कर दिया था, फिर शेरनी के नन्हे बच्चों को तो साधारण कु्त्ते भी मार देते। बच्चों को मारने में कौन-सी बहादुरी हुई?
कमरघा या बेरहम कसाईखाना? : अकबर की दरिंदगी का शिकार कौन नहीं हुआ। महिलाएं, हिन्दू, शिया मुसलमान, अफगान (पठान) सभी ने अनगिनत जुल्म सहे इस जालिम के। रह गए थे अपने प्राकृतिक वातावरण में जीने वाले वन्यजीव। इन निरीह, निर्दोष जीवों का ऐसा शिकार खेला अकबर ने, जो सृष्टि के प्रारंभ से लेकर आज तक कहीं भी देखा-सुना नहीं गया। यहां भी कीर्तिमान बनाया इस हत्यारे ने। केवल मात्र अकबर ही इस शिकार का सृजनकर्ता बना। उसी के दिमाग की उपज थी शिकार की यह तकनीक।
इसमें शिकारी को न करनी थी, न शिकार तलाशना था। आराम से मसनद पर गद्दे-तकिये लगा पसरे रहो, सेवक बंदूक भर देता जाए, निशाना लगाते जाओ, दूसरी बंदूक भरी जाए, तब तक भोजन के कौर चबा लो; फिर एक हत्या करो और शराब-शरबत का गिलास चढ़ा लो। कभी तबीयत करे तो बंदूक छोड़ तीर-कमान उठा लो, उसी से शिकार मारो। कभी मन करे तो मसनद से उठ जाओ, हाथ में तलवार-भाला ले कमरघे (अहाते) में प्रवेश करो और जो जीव सामने आए, मारते चलो। तब तक मारते जाओ, जब तक कि हाथ न थक जाएं। कभी कमंद उठा लो और फांस लो पशु को उसमें, खींचते जाओ कमंद की डोर, कसता जाए फन्दा और दम घुटकर, छटपटाकर मर जाए पशु। उसे दम तोड़ते देख आनंद लो। अपने साथी को मरते-छटपटाते देख अन्य वनजीवों का चीखना-डकारना अहाते में भय से भागते फिरने का आनंद लो। साथ के दर्शक, बेगमें आपके हुनर की तालियां बजा, खुशी से चीख, दाद देती रहें। यह था कमरघा। इसकी कल्पना की योजना बनाई थी अकबर ने आगरा के पास निर्मित अपने सुख-विलास-वैभव से परिपूर्ण भवन नगरचैन में।
अकबर जब भी युद्ध अभियानों से थका लौटता तो इसी नगरचैन भवन में अपने हरम की सुंदरतम-कमसिन आयु की बेगमों-रखैलों की मांसल जंघाओं पर सिर रख चैन की नींद सोता। उनके सुकोमल हाथों से मालिश करवाता। फतेहपुर सीकरी के आम-खास दरबार में साम्राज्य की बहसों-समस्याओं से ऊब, पृथ्वी की इस जन्नत नगरचैन में चला आता और यहां की परियों के मादक सौन्दर्य में मदहोश हो पड़ा रहता। अकबर के हरम की 5,000 औरतें लाहौर, दिल्ली और आगरा के किले में बंटी हुई थीं। छंटी हुई रखता था फतेहपुर सीकरी में और इनमें से भी छांटकर लाई जाती थीं नगरचैन में। 25 वर्ष की आयु पार करते ही औरतें नगरचैन से निकालकर अन्यत्र पहुंचा दी जाती थीं या वे अभागी निकाल दी जाती थीं, जो मातृत्व के चिह्नों से अलंकृत दिखने लगती थीं।
ऐसे स्वर्ग में बैठकर तो क्रूरतम व्यक्ति भी अपनी पशुता बिसार दे, लेकिन यह था अकबर महान? इस सुख-विलास के सागर में किलोल करते भी उसकी कल्पना ने हिंसा का सपना ही देखा। महाहत्या की योजना ही बनाई।
11 मार्च 1567 का दिन : योजना बन गई। अब उपयुक्त प्रदेश-स्थान तलाशना था। भारत के अन्य प्रांत और उसके वन हिंसक पशुओं से भरे पड़े थे। केवल अपवाद था पंजाब, जो मुसलमानों के भारत प्रवेश के मार्ग में पड़ता था, साथ ही यहां की जनता को आधा भाग मुसलमान बन चुका था; फिर भला इस प्रदेश में शेर-चीते कैसे बच पाते? पंजाब में हिंसक पशुओं के नाम पर रह गए थे- जरख, भेड़िये, गीदड़, लोमड़ी, जंगली कुत्ते-बिल्ली। लेकिन पंजाब में शाकाहारी पशु- हिरण, नीलगाय, खरगोश, बंदर की कमी नहीं थी। वैसे भी मैदानी भाग में अधिकांश पशु मुसलमान प्रजा की हंडी चढ़ गए थे, किंतु झेलम नदी के पहाड़ी प्रदेश में पशुओं की भरमार थी।
अकबर 5,000 घुड़सवारों, 5000 हाथियों, चुनिंदा प्यारी बेगमों, दरबार के नवरत्नों व अन्य खास दरबारियों का लाव-लश्कर ले लाहौर आया। आसपास के ग्रामों से 50 हजार जाट-किसान पकड़ मंगाए गए। लाहौर के पास का एक मैदान कमरघा के लिए छांटा गया। मैदान के तीन ओर 20-20 फीट ऊंची बांसों की एक दीवार खड़ी की गई।
मैदान छोटा-मोटा नहीं, 10 मील लंबा और 10 मील चौड़ा था। उत्तर-पश्चिम में 10 मील की दीवार के तख्ते बनाकर भूमि पर डाल दिए गए, किंतु दीवार नहीं बनाई गई। इसी मार्ग से पशुओं को हांककर लाया जाना था। अब 50 हजार हिन्दू किसानों को झेलम के पर्वतीय प्रदेश में ले जाया गया। इनके गले में ढोल लटकाए गए, हाथों में डंडे दिए गए। इनके पीछे शाही घुड़सवार और हाथी चले। 50 मील चौड़ा जंगली इलाका घेर ढोल बजाते, चीखते-चिल्लाते, बंदूकों के धमाके करते, ढेले-पत्थर फेंकता यह कारवां लाहौर की ओर बढ़ा।
एक माह की कड़ी मुशक्कत के बाद लाखों पशुओं को घेरता यह काफिला लाहौर आया। लाहौर का निश्चित मैदान वृक्षों को काटकर, गड्ढों को पूरकर समतल कर लिया गया था। वन्य पशुओं के मैदान में आते ही उत्तर-पश्चिम का खुला मार्ग भी तैयार तख्तों से बंद कर दिया गया। लाहौर की ओर के तख्त घेरे पर परदे टांग दिए गए ताकि उनके पीछे बैठ बेगमें और दरबारी छिद्रों में से शिकार होता देख सकें। अकबर के लिए दीवार की बराबर 20 फुट ऊंचा एक मंच बनाया गया, जिस पर गद्दे-तकिये डाल छांव के लिए कनात खड़ी कर दी गई।
अब शुरू हुआ कमरघा शिकार का खेल। बड़े आराम से शिकार और खाना-पीना साथ चलता रहा। खतरे की कोई बात तो थी नहीं। 20 फीट ऊंची छलांग मारकर अकबर के मंच तक पहुंचने वाले शेर-चीते तो इस जंगल में थे नहीं। लाखों पशु और शिकारी केवल अकबर। 5 दिनों तक अकबर लगातार पशुओं का शिकार करता रहा। कभी बंदूक से, कभी तीर से, कभी भाले से, कभी कमन्द से और कभी तलवार सूंत बाड़े में घुस जाता और जो पशु सामने दिखते, वार करता चला जाता। थक जाता तो पुन: मंच पर चढ़ विश्राम करता। गुलाम उसके हाथ-पांव दबा थकान दूर करते, फिर हिंसा में लग जाता।
प्रथम तो घेरा 10 मील लंबा-चौड़ा था। पशुओं के मरने पर उन्हें भोजनशाला में पकने के लिए या खाल उतारने के लिए उठा लिया जाता। स्थान खाली हो जाता तो घेरा छोटा कर दिया जाता। 5 दिन में हजारों पशुओं को मार अकबर ने नवरत्नों और खास दरबारियों को शिकार खेलने की अनुमति दी। शिकार रात्रि में भी मशाल के प्रकाश में खेला जाता था। अबुल फजल ने इसे आमोद-प्रमोद (मनोरंजन) का नाम दिया है, जो सूर्योदय से रात्रिपर्यंत चलता रहता था। खास दरबारियों के बाद अंत:पुर के सेवकों को शिकार की अनुमति मिली। पशु मरते गए और घेरा छोटा होता गया।
जब घेरा मात्र 3 मील लंबा-चौड़ा रह गया, तब आम सिपाही को शिकार की अनुमति मिल गई। अकबर के 5-6 हजार सैनिक हथियार ले बाड़े में घुस पड़े। 8-10 दिनों के भूखे-प्यासे पशुओं में न भागने का दम था, न चीखने की शक्ति। लाचार-बेबस पशु मूक-कातर, भयभीत दृष्टि से आते हुए कातिल को देखता, अपनी सारी शक्ति लगा मुड़ जाता या आंख बंद कर मृत्यु के लिए समर्पण कर देता। हत्यारे मुगल सैनिक पशु पर प्रहार करते और उनकी मृत छटपटाती देह पर पांव रख दूसरे पशु की हत्या करने बढ़ जाते। मैदान की भूमि 8-10 दिनों के रक्तपात से सड़ांध मारने लगी थी। वर्षा तो नहीं हुई थी, न मैदान में पानी ही था, बस पशुओं के शरीर से बहते रक्त ने मैदान की मिट्टी से मिल कीचड़ की लथ-पथ बना डाली थी।
शिकारियों के वस्त्र दौड़ते-भागते समय उछलते रक्त कीचड़ के छींटों से सुर्ख हो गए। अब दर्शक तो केवल खास दरबारी और अकबर ही रह गए थे। आखिरी पशु को मार अल्लाहो-अकबर के नारे लगाते मुगल बाड़े के बाहर आए। बीते 10 दिन उनके जीवन के चिर-स्मरणीय दिन बन गए। सभी ने मनचाहे पशु का शिकार किया व मनचाहे पशु के मांस का स्वाद लिया। और इस प्रकार महाशिकार, अकबर का यह बेरहम हत्याकांड पूरा हुआ। अकबर ने बड़ी शान से इसे रोजनामचे में दर्ज करवाया। (अकबरनामा पृष्ठ 301 और स्मिथ पृष्ठ 75-76)