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8 सितंबर रामसापीर जयंती : रामदेवजी के बारे में आश्चर्य में डालने वाली 10 चमत्कारिक बातें

हमें फॉलो करें 8 सितंबर रामसापीर जयंती : रामदेवजी के बारे में आश्चर्य में डालने वाली 10 चमत्कारिक बातें

अनिरुद्ध जोशी

, मंगलवार, 7 सितम्बर 2021 (11:07 IST)
पीरों के पीर रामापीर, बाबाओं के बाबा रामदेव बाबा (1352-1385) को सभी भक्त बाबारी कहते हैं। जहां भारत ने परमाणु विस्फोट किया था, वे वहां के शासक थे। हिन्दू उन्हें रामदेवजी और मुस्लिम उन्हें रामसा पीर कहते हैं। भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की दूज को राजस्थान के महान संतों में से एक बाबा रामदेवरा जिन्हें रामापीर भी कहते हैं उनकी जयंती मनाई जाती है। इस बार यह जयंती 8 सितंबर 2021 को रहेगी। आओ जानते हैं उनके बारे में 10 चमत्कारिक बातें।
 
 
1. बाबा रामदेव हैं कृष्‍ण के अवतार : बाबा रामदेव को द्वारिका‍धीश (श्रीकृष्ण) का अवतार माना जाता है। नि:संतान अजमल दंपत्ति श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक थे। एक बार कुछ किसान खेत में बीज बोने जा रहे थे कि उन्हें अजमलजी रास्ते में मिल गए। किसानों ने नि:संतान अजमल को शकुन खराब होने की बात कहकर ताना दिया। दु:खी अजमलजी ने भगवान श्रीकृष्ण के दरबार में अपनी व्यथा प्रस्तुत की। भगवान श्रीकृष्ण ने इस पर उन्हें आश्वस्त किया कि वे स्वयं उनके घर अवतार लेंगे। बाबा रामदेव के रूप में जन्मे श्रीकृष्ण पालने में खेलते अवतरित हुए और अपने चमत्कारों से लोगों की आस्था का केंद्र बनते गए।
 
2. पीरों के पीर : इन्हें पीरों का पीर 'रामसा पीर' कहा जाता है। सबसे ज्यादा चमत्कारिक और सिद्ध पुरुषों में इनकी गणना की जाती है। क्योंकि एक बार मक्का से पांच पीर उनकी परीक्षा लेने आए थे और जब उन पीरों के कहा कि हम तो हमारे कटोरे में ही खाना खाते हैं और वह तो हम मक्का में ही भूल आए हैं। तब बाबा ने कहा कि कोई बात नहीं हम अपने अतिथियों को कभी भूखा नहीं जाने देते हैं। इसके साथ ही बाबा ने अलौकिक चमत्कार दिखाया और जिस पीर का जो कटोरा था उसके सम्मुख रखा गया। इस चमत्कार (परचा) से वे पीर सकते में रह गए। जब पीरों ने पांचों कटोरे मक्का वाले देखे तो उन्हें अचंभा हुआ और मन में सोचने लगे कि मक्का कितना दूर है। ये कटोरे तो हम मक्का में छोड़कर आए थे। ये कटोरे यहां कैसे आए? तब उन पीरों ने कहा कि आप तो पीरों के पीर हैं।
 
3. दलितों के मसीहा : बाबा रामदेव ने छुआछूत के खिलाफ कार्य कर दलित हिन्दुओं का पक्ष ही नहीं लिया बल्कि उन्होंने हिन्दू और मुस्लिमों के बीच एकता और भाईचारे को बढ़ाकर शांति से रहने की शिक्षा भी दी। बाबा रामदेव पोकरण के शासक भी रहे, लेकिन उन्होंने राजा बनकर नहीं अपितु जनसेवक बनकर गरीबों, दलितों, असाध्य रोगग्रस्त रोगियों व जरूरतमंदों की सेवा भी की। इस बीच उन्होंने विदेशी आक्रांताओं से लोहा भी लिया।
 
4. डाली बाई : बाबा रामदेव जन्म से क्षत्रिय थे लेकिन उन्होंने डाली बाई नामक एक दलित कन्या को अपने घर बहन-बेटी की तरह रखकर पालन-पोषण कर समाज को यह संदेश दिया कि कोई छोटा या बड़ा नहीं होता। रामदेव बाबा को डाली बाई एक पेड़ के नीचे मिली थी। यह पेड़ मंदिर से 3 किमी दूर हाईवे के पास बताया गया है।
 
5. मेवाड़ के सेठ दलाजी को परचा : कहते हैं कि मेवाड़ के एक गांव में दलाजी नाम का एक महाजन रहता था। धन-संपत्ति तो उसके पास खूब थी, लेकिन उसकी कोई संतान नहीं थी। किसी साधु के कहने पर वह रामदेवजी की पूजा करने लगा। उसने अपनी मनौती बोली कि यदि मुझे पुत्र प्राप्ति हो जाएगी तो सामर्थ्यानुसार एक मंदिर बनवाऊंगा। इस मनौती के 9 माह पश्चात उसकी पत्नी के गर्भ से पुत्र का जन्म हुआ। वह बालक जब 5 वर्ष का हो गया तो सेठ और सेठानी उसे साथ लेकर कुछ धन-संपत्ति लेकर रुणिचा के लिए रवाना हो गए। मार्ग में एक लुटेरा भी उनके साथ यह कहकर हो लिया कि वह भी रुणिचा दर्शन के लिए जा रहा है। थोड़ी देर चलते ही रात हो गई और अवसर पाकर लुटेरे ने अपना वास्तविक स्वरूप प्रकट कर दिया। उसने कटार दिखाकर सेठ से ऊंट को बैठाने के लिए कहा और उसने सेठ की समस्त धन-संपत्ति हड़प ली। जाते-जाते वह सेठ की गर्दन भी काट गया। रात्रि में उस निर्जन वन में अपने बच्चे को साथ लिए सेठानी विलाप करती हुई रामदेवजी को पुकारने लगी।
 
अबला की पुकार सुनकर रामदेवजी अपने नीले घोड़े पर सवार होकर तत्काल वहां आ पहुंचे। आते ही रामदेवजी ने उस अबला से अपने पति का कटा हुआ सर गर्दन से जोड़ने को कहा। सेठानी ने जब ऐसा किया तो सर जुड़ गया और तत्क्षण दलाजी जीवित हो गया। बाबा का यह चमत्कार देख दोनों सेठ-सेठानी बाबा के चरणों में गिर पड़े। बाबा उनको 'सदा सुखमय' जीवन का आशीर्वाद देकर अंतर्ध्यान हो गए। बस उसी स्थल पर दलाजी ने बाबा का एक भव्य मंदिर बनवाया। कहते हैं कि यह बाबा की माया थी।
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6. रुणिचा में जीवित समाधि : कुछ विद्वान मानते हैं कि विक्रम संवत 1409 (1352 ईस्वी सन्) को उडूकासमीर (बाड़मेर) में बाबा का जन्म हुआ था और विक्रम संवत 1442 में उन्होंने रुणिचा में जीवित समाधि ले ली। पिता का नाम अजमालजी तंवर, माता का नाम मैणादे, पत्नी का नाम नेतलदे, गुरु का नाम बालीनाथ, घोड़े का नाम लाली रा असवार था। श्री बाबा रामदेवजी की समाधि संवत् 1442 को रामदेवजी ने अपने हाथ से श्रीफल लेकर सब बड़े- बूढ़ों को प्रणाम किया तथा सबने पत्र-पुष्प चढ़ाकर रामदेवजी का हार्दिक तन-मन व श्रद्धा से अंतिम पूजन किया। रामदेवजी ने समाधि में खड़े होकर सबके प्रति अपने अंतिम उपदेश देते हुए कहा कि 'प्रतिमाह की शुक्ल पक्ष की दूज को पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन करके पर्वोत्सव मनाना, रात्रि जागरण करना। प्रतिवर्ष मेरे जन्मोत्सव के उपलक्ष्य में तथा अंतर्ध्यान समाधि होने की स्मृति में मेरे समाधि स्तर पर मेला लगेगा। मेरे समाधि पूजन में भ्रांति व भेदभाव मत रखना। मैं सदैव अपने भक्तों के साथ रहूंगा।' इस प्रकार श्री रामदेवजी महाराज ने समाधि ली। हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक बाबा रामदेव के समाधि स्थल रुणिचा में मेला लगता है, जहां भारत और पाकिस्तान से लाखों की तादाद में लोग आते हैं।
 
7. 24 परचे : बाबा ने अपने जीवनकाल में लोगों की रक्षा और सेवा करने के लिए उनको कई चमत्कार दिखाए। आज भी बाबा अपनी समाधि पर साक्षात विराजमान हैं। आज भी वे अपने भक्तों को चमत्कार दिखाकर उनके होने का अहसास कराते रहते हैं। बाबा द्वारा चमत्कार दिखाने को परचा देना कहते हैं। उन्होंने अपने जीवन काल में 24 चमत्कार किए थे।
 
8. सिरोही निवासी एक अंधे साधु को परचा : कहा जाता है कि एक अंधा साधु सिरोही से कुछ अन्य लोगों के साथ रुणिचा में बाबा के दर्शन करने के लिए निकला। सभी पैदल चलकर रुणिचा आ रहे थे। रास्ते में थक जाने के कारण अंधे साधु के साथ सभी लोग एक गांव में पहुंचकर रात्रि विश्राम करने के लिए रुक गए। आधी रात को जागकर सभी लोग अंधे साधु को वहीं छोड़कर चले गए। जब अंधा साधु जागा तो वहां पर कोई नहीं मिला और इधर-उधर भटकने के पश्चात वह एक खेजड़ी के पास बैठकर रोने लगा। उसे अपने अंधेपन पर इतना दुःख हुआ जितना और कभी नहीं हुआ था। रामदेवजी अपने भक्त के दुःख से द्रवीभूत हो उठे और वे तुरंत ही उसके पास पहुंचे। उन्होंने उसके सिर पर हाथ रखकर उसके नेत्र खोल दिए और उसे दर्शन दिए। उस दिन के बाद वह साधु वहीं रहने लगा। उस खेजड़ी के पास रामदेवजी के चरण (पघलिए) स्थापित करके उनकी पोजा किया करता था। कहा जाता है वहीं पर उस साधु ने समाधि ली थी।
 
9. भैरव राक्षस : भैरव नाम के एक राक्षस ने पोकरण में आतंक मचा रखा था। प्रसिद्ध इतिहासकार मुंहता नैनसी के 'मारवाड़ रा परगना री विगत' नामक ग्रंथ में इस घटना का उल्लेख मिलता है। भैरव राक्षस का आतंक पोखरण क्षेत्र में 36 कोष तक फैला हुआ था। यह राक्षस मानव की सुगं सूंघकर उसका वध कर देता था। बाबा के गुरु बालीनाथजी के तप से यह राक्षस डरता था, किंतु फिर भी इसने इस क्षेत्र को जीवरहित कर दिया था। अंत में बाबा रामदेवजी बालीनाथजी के धूणे में गुदड़ी में छुपकर बैठ गए। जब भैरव राक्षस आया और उसने गुदड़ी खींची तब अवतारी रामदेवजी को देखकर वह अपनी पीठ दिखाकर भागने लगा और कैलाश टेकरी के पास गुफा में जा घुसा। वहीं रामदेवजी ने घोड़े पर बैठकर उसका वध कर दिया था। हालांकि कुछ लोग मानते हैं कि उसने हार मानकर आत्मसमर्पण कर दिया था। बाद में बाबा की आज्ञा अनुसार वह मारवाड़ छोड़कर चला गया था।
 
10. गुरु बालीनाथजी का धूना : रामदेवजी के गुरु बालीनाथजी का धूना या आश्रम पोकरण में स्थित है। बाबा ने बाल्यकाल में यहीं पर गुरु बालीनाथजी से शिक्षा प्राप्त की थी। यही वह स्थल है, जहां पर बाबा को बालीनाथजी ने भैरव राक्षस से बचने हेतु छिपने को कहा था। शहर के पश्चिमी छोर पर सालमसागर एवं रामदेवसर तालाब के बीच में स्थित गुरु बालीनाथ के आश्रम पर लाखों श्रद्धालु सिर नवाने आते हैं। यहीं पर भूतड़ा जाति के भैरव नामक की गुफा भी है। भैरव राक्षस का काफी आतंक था। आज भी रामदेवजी की पूजा के बाद भैरव राक्षस को बाकला चढ़ाने का रिवाज इस क्षेत्र में है। यह गुफा मंदिर से 12 किमी दूरी पर पोकरण के निकट स्थित है। वहां तक जाने के लिए पक्का सड़क मार्ग है।

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