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Maharana Pratap :अद्वितीय व्यक्तित्व के धनी थे महाराणा प्रताप

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देवेंद्रराज सुथार

यूं तो राजस्थान की तेजस्वी व ओजस्वी, जप-तप, धर्म-कर्म गुणों से परिपूर्ण माटी में कई वीर-वीरांगनाओं ने जन्म लेकर इसका रुतबा ऊंचा किया है लेकिन महाराणा प्रताप उन चुनिंदा शासकों में से एक हैं जिनकी वीरता, शौर्य-पराक्रम के किस्से और गौरवमयी संघर्ष गाथा को सुनकर हर किसी के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। अमर राष्ट्रनायक, दृढ़ प्रतिज्ञ और स्वाधीनता के लिए जीवन भर मुगलों से मुकाबला करने वाले साहसिक रणबांकुर महाराणा प्रताप को जंगल-जंगल भटक कर घास की रोटी खाना मंजूर था, लेकिन किसी भी परिस्थिति व प्रलोभन में अकबर की अधीनता को स्वीकार करना कतई मंजूर नहीं था। 
 
ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया, 9 मई, 1540 ईसवी को राजस्थान के कुंभलगढ़ दुर्ग में पिता उदयसिंह की 33वीं संतान और माता जयवंताबाई की कोख से जन्मे मेवाड़ मुकुट-मणि महाराणा प्रताप जिन्हें बचपन में 'कीका' कहकर संबोधित किया जाता, जो अपनी निडर प्रवृत्ति, अनुशासन-प्रियता और निष्ठा, कुशल नेतृत्व क्षमता, बुजुर्गों व महिलाओं के प्रति विशेष सम्मानजनक दृष्टिकोण, ऊंच-नीच की भावनाओं से रहित, निहत्थे पर वार नहीं करने वाले, शस्त्र व शास्त्र दोनों में पारंगत एवं छापामार युद्ध कला में निपुण व उसके जनक थे।
 
महाराणा प्रताप कुटनीतिज्ञ, राजनीतिज्ञ, मानसिक व शारीरिक क्षमता में अद्वितीय थे। उनकी लंबाई 7 फीट और वजन 110 किलोग्राम था तथा वे 72 किलो के छाती कवच, 81 किलो के भाले, 208 किलो की दो वजनदार तलवारों को लेकर चलते थे। उनके पास उस समय का सर्वश्रेष्ठ घोड़ा 'चेतक' था, जिसने अंतिम समय में जब महाराणा प्रताप के पीछे मुगल सेना पड़ी थी तब अपनी पीठ पर लांघकर 26 फीट ऊंची छलांग लगाकर नाला पार कराया और वीरगति को प्राप्त हुआ। जबकि इस नाले को मुगल घुड़सवार पार नहीं कर सकें। 
 
पिता उदयसिंह द्वारा अपनी मृत्यु से पहले ही अपनी सबसे छोटी पत्नी के पुत्र जगमाल को अपना उत्तराधिकारी घोषित करने से मेवाड़ की जनता असहमत थी। महाराणा प्रताप ने मेवाड़ छोड़ने का निर्णय किया लेकिन जनता के अनुनय-विनय के बाद वे रुक गए और 1 मार्च, 1573 को उन्होंने सिंहासन की कमान संभाली। उस समय दिल्ली में मुगल शासक अकबर का राज था और उसकी अधीनता कई हिन्दू राजा स्वीकार करने के लिए संधि-समझौता कर रहे थे, तो कई मुगल औरतों से अपने वैवाहिक संबंध स्थापित करने में लगे थे। लेकिन इनसे अलग महाराणा प्रताप को अकबर की दासता मंजूर नहीं थी। इससे आहत होकर अकबर ने मानसिंह और जहांगीर के अध्यक्षता में मेवाड़ आक्रमण को लेकर अपनी सेना भेजी। 18 जून, 1576 को आमेर के राजा मानसिंह और आसफ खां के नेतृत्व में मुगल सेना और महाराणा प्रताप के बीच हल्दीघाटी का युद्ध हुआ। माना जाता है कि इस युद्ध में न तो अकबर की जीत हो सकी और न ही महाराणा प्रताप की हार हो सकी। एक तरफ अकबर की विशालकाय, साजो-सामान से सुरक्षित सेना थी तो दूसरी ओर महाराणा प्रताप की जुझारू सैनिकों की फौज थी। 
 
हल्दीघाटी के ऐतिहासिक युद्ध के बाद महाराणा प्रताप परिवार सहित जंगलों में विचरण करते हुए अपनी सेना को संगठित करते रहे। एक दिन जब उन्होंने अपने बेटे अमरसिंह की भूख शांत करने के लिए घास की रोटी बनाई तो उसे भी जंगली बिल्ली ले भागी। इससे विचलित होकर महाराणा प्रताप का स्वाभिमान डगमगाने लगा। उनके हौसले कमजोर पड़ने लगे। ऐसी अफवाह फैल गई कि महाराणा प्रताप की विवशता ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली। तभी बीकानेर के कवि पृथ्वीराज राठौड़ ने महाराणा को पत्र लिखकर उनके सुप्त स्वाभिमान को पुन: जगा दिया। फिर महाराणा प्रताप को मरते दम तक अकबर अधीन करने में असफल ही रहा। 
 
अंततः महाराणा प्रताप की मृत्यु अपनी राजधानी चावंड में धनुष की डोर खींचने से उनकी आंत में लगने के कारण इलाज के बाद 57 वर्ष की उम्र में 29 जनवरी, 1597 को हो गई।
 
कहते हैं महाराणा प्रताप की मृत्यु का समाचार सुनकर अकबर की आंखों में भी प्रताप की अटल देशभक्ति को देखकर आंसू छलक आए थे। मुगल दरबार के कवि अब्दुर रहमान ने लिखा है, 'इस दुनिया में सभी चीज खत्म होने वाली है। धन-दौलत खत्म हो जाएंगे लेकिन महान इंसान के गुण हमेशा जिंदा रहेंगे। प्रताप ने धन-दौलत को छोड़ दिया लेकिन अपना सिर कभी नहीं झुकाया।

हिन्द के सभी राजकुमारों में अकेले उन्होंने अपना सम्मान कायम रखा।' और तो और एक बार अमेरिका के भूतपूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन भारत के दौरे पर आ रहे थे, तो उन्होंने अपनी मां से पूछा… मैं आपके लिए भारत से क्या लेकर आऊं, तो उनकी मां ने कहा था भारत से तुम हल्दीघाटी की मिट्टी लेकर आना जिसे हजारों वीरों ने अपने रक्त से सींचा है। लेकिन, इन सब के उपरांत भी इतिहास की पाठ्य पुस्तकों में महाराणा प्रताप की वीरता के अध्याय पढ़ाने की बजाय अकबर की महानता के किस्से पढ़ाना इस सच्चे राष्ट्रनायक के बलिदान के साथ नाइंसाफी है। धरती के इस वीर पुत्र के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि तभी होगी कि जब उसकी महानता व माटी के प्रति कृतज्ञता की कहानी हरेक जन तक पहुंचाई जाएगी।

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