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आखिर क्या लिखा है देश-दुनिया की इन रहस्यमयी लिपियों में?

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ग्लोबलाइजेशन और तकनीक के दौर में पूरी दुनिया कुछ बेहतर पाने के लिए अपनी कुछ अहम चीजों को पीछे छोड़ती जा रही है, उनमें से एक है भाषा। विज्ञान और सांस्कृतिक संघर्ष के कारण कुछ भाषाएं लुप्त हो रही है तो कुछ खुद को बदल रही है और कुछ खुद को विस्तार दे रही है। इसी संघर्ष क्रम में प्राचीन काल में ऐसी कई भाषाएं या उनकी लिपियां लुप्त होकर अब रहस्य का विषय बनी हुई है
कई गुफाओं में पाई गई चित्रलिपि या न मालूम किस भाषा में लिखे गए शिलालेख, मुद्रा और स्तंभों पर खुदी भाषा आज के भाषाविदों के लिए अभी भी अनसुलझी गुत्थी है। इसी क्रम में कुछ लोग मध्य कामल में ऐसे लेख या किताबें लिख गए है जिनकी भाषा वतर्ममान में प्रचलीत भाषा से भिन्न है और जिन्हें अभी तक नहीं पढ़ा जा सकता है। यह लिपियां गुहा चित्रों, भग्नावशेषों, समाधियों, मंदिरों, मृदाभांडों, मुद्राओं के साथ शिलालेखों, चट्टान लेखों, ताम्रलेखों, भित्ति चित्रों, ताड़पत्रों, भोजपत्रों, कागजों एवं कपड़ों पर अंकित है। 
भाषाओं के अस्तित्व बचाने की दौड़ में ऐसी कई भाषाएं और लिपियां लुप्त हो गई, जिन्हें आज रहस्यमयी माना जाता है। इनमें से कुछ ऐसी भाषा की पांडुलिपियां पाई गई है जो विज्ञान की नजरों में अत्यंत ही रहस्यमी ज्ञान से परिपूर्ण है। कुछ प्राचीन लिपियाँ आज भी एक अनसुलझी पहेली बनी हुई हैं। उनमें लिखित अभिलेख आज तक नहीं पढ़े जा सके हैं। कई वर्षों के शोध के बाद भी अभी तक यह पता नहीं चल पाया है कि इन लिपियों, मुद्राओं या शिलालेखों में क्या लिखा है। जिस दिन इसका पता चलेगा इतिहास का एक नया पन्ना खुलेगा। ऐसी ही कुछ नई और कुछ प्राचीन रहस्यमयी लिपियों के बारे में जानकर आप हैरान हो जाएंगे।
 
सभी चित्र : यूट्यूब से साभार
संकलन : अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

सिंधु घाटी की लिपि : नए शोधानुसार माना जाता है कि सिंधु घाटी के द्रविढ़ियन आर्य या वैदिक धर्म का पालन करते थे। लेकिन इन लोगों की भाषा कौन-सी थी यह आज भी एक रहस्य है। सिंधु घाटी की लिपि आज तक नहीं पढ़ी जा सकी, जो किसी युग में निश्चय ही जीवंत भाषा रही होगी।
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नए शोधानुसार हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई में मिले बर्तन समेत अन्य वस्तुओं पर सिंधु घाटी सभ्यता की अंकित चित्रलिपियों को पढ़ने की कोशिशें लगातार जारी हैं। गोंडी भाषा के विद्वान आचार्य तिरु मोतीरावण कंगाली का दावा है कि हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की सैंधवी लिपियां गोंडी में ज़्यादा सुगमता से पढ़ी जा सकती हैं। सैंधवी लिपि को पढ़ने की कोशिश करने वाले डॉक्टर जॉन मार्शल सहित आधे दर्जन से अधिक भाषा और पुरातत्वविदों के हवाले से मोतीरावण कंगाली कहते हैं, 'सिन्धु घाटी सभ्यता की भाषा द्रविड़ पूर्व (प्रोटो द्रविड़ीयन) भाषा थी।' ऋग्वेद के अनुसार दुर्योण 'कुयव असुरों' की राजधानी थी, जिसे जला दिया गया था. मोहनजोदड़ो को भी जलाया गया था. यह आर्य पूर्व द्रविड़ियन की राजधानी बाताई जाती है. गोंड समुदाय के लोग आज भी धरती माता की पूजा पर 'कुयव' से संबंधित मंत्र का जाप करते हैं.
 
एक अन्य शोधानुसार सदियों पुरानी धारणा कि सिंधु लिपि एक भाषा है, इसके विपरीत एक अनुभवी विज्ञान इतिहासकार बी.वी.सुब्बारायप्पा ने दावा किया है कि यह लिपि संख्यात्मक है, जो सिंधु घाटी सभ्यता की मुहरों और कलाकृतियों पर अंकित संख्याओं और प्रतीकों से स्पष्ट है। संख्यात्मक सिंधु लिपि की बेजोड़ विशिष्टताओं को दिखाते हुए उन्होंने कहा कि घाटी के लोग व्यापक रूप से अपने दैनिक व्यवसायों के लिए दशमलव, जमा और गुणात्मक संख्यात्मक प्रणाली का इस्तेमाल करते थे।

वॉयनिश लिपि : इस भाषा में लिखी गई लिपि को अभी तक नहीं पढ़ा जा सका है। साइंस और टेक्नोलॉजी में इतनी तरक्की कर चुकने के बावजूद इसके बारे में जो थोड़ी-बहुत भी जानकारी उसे मिली है, वह इन किताबों पर बनी हुई तस्वीरों की वजह से है। इसे सबसे रहस्यमय पांडुलिपि माना जाता है। माना जाता है कि यह 15वीं सदी में उत्तरी इटली में इसे किसी ने बनाया था। इस पांडुलिपि का नाम एक बुक डीलर के नाम पर रखा गया है। इस डीलर का नाम विल्फ्रेंड वॉयनिक था। उसने इस पांडुलिपि को 1921 में खरीदा था। इस पांडुलिपि के कुछ पन्ने गायब है और अब 240 पन्ने ही बचे हैं। वैज्ञानिक इसे वोय्निच मेन्युस्क्रिप्ट (Voynich Manuscript) कहते हैं।
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जानकार कहते हैं कि यह किताब अंतरिक्ष विज्ञान, पेड़ पौधे और चिकित्सा प्रयोजनों के लिए बनाई गई थी। इसके हर पन्ने में एक अलग चित्र और कुछ लिखा हुआ है जिसे अब तक समझा नहीं गया है। इसमें कुछ पेड़ और पौधे ऐसे हैं जो धरती पर पाए जाने वाले किसी भी पेड़ पौधे से मेल नहीं खाते हैं। इस पांडुलिपि में क्या लिखा है यह अभी तक कोई वैज्ञानिक नहीं समझ पाया है।
 
यह पांडुलिपि छ: हिस्सों में बंटी हुई है। हर एक हिस्से में अलग अलग विषय है। पहला हिस्सा एस्ट्रोनॉमी से जुड़ा हुआ है तो दूसरा हिस्सा बायोलॉजी से जुड़ा हुआ है। तीसरा हिस्सा कॉस्मोलॉजी से जुड़ा हुआ है तो चौथा हिस्सा पेड़-पौधों से संबंधित है। पांचवां हिस्सा जड़ी बूटियों से संबंधित है और इसका छटा हिस्सा संभवत: व्यंजनों से संबंधित है। इन हिस्सों की जानकारी उनके चित्रों को देखकर लगाई गई है। अंतीम पन्नों पर कोई भी तस्वीर नहीं है। वहां पर बस कुछ लिखा ही हुआ है।

रोंजोरोंजो : दक्षिण अमेरिकी देश चिली से 2500 मील दूर स्थित ईस्टर द्वीप पर एक जोड़ा नक्काशीदार लकड़ी रखी हुई है। इसे लोग रोंजोरोंजो कहते हैं। नक्काशीदार लकड़ी के इस गत्ते पर कौन सी लिपि में क्या लिखा है यह कोई नहीं जानता। यह चित्र लिपि है या कि अन्य यह कोई नहीं जानता। इस नक्काशीदार पदार्थ पर क्या खुदा और लिखा है इसे अब तक नहीं जाना जा सका है।
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स्थानीय भाषा में 'रापा नुई' कहलाने वाले इस द्वीप पर एक ही पत्थर से तराशी हुई विशालकाय इंसानी मूर्तियां जगह-जगह बिखरी हुई है, जिन्हें 'मोआई' कहा जाता है। ईस्टर द्वीप पर प्राचीनतम विशाल शिलाओं के मानव सिरों वाली प्रतिमाएं अब तक सारी दुनिया के लिए आश्चर्य से भरपूर हैं। यह मूर्तियां लगभग 1200 साल पुरानी मानी जाती है और यूनेस्को ने इस स्थान को विश्व विरासत की सूची में रखा है।
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रहस्यमयी लिपि : बालूमाथ चंदवा के बीच रांची मार्ग पर नगर नामक स्थान में एक अति प्राचीन मंदिर है जो भगवती उग्रतारा को समर्पित है। यह एक शक्तिपीठ है। बालूमाथ से 25 किलोमीटर दूर प्रखंड के श्रीसमाद गांव के पास तितिया या तिसिया पहाड़ के पास चतुर्भुजी देवी की एक मूर्ति मिली है, जिसके पीछे अंकित लिपि को अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है।

ईजिप्शियन लिपि : प्राचीन मिस्र के लोग थोत को लेखन का देवता माना जाता था। फ्रांस के विद्वान शापोल्यो ने मिस्र की चित्राक्षर लिपि का स्पष्टीकरण किया। इसके पूर्व ब्रिटेन के टॉमस यंग ने मिस्र के स्तंभ अभिलेख की खोज की। पिरामिड युग 2980 ईसा पूर्व से प्रारंभ हुआ और 2475 ईसापूर्व में इसका अंत हुआ। पिरामिठों को बनाने की तकनीक के बारे में अभी तक कुछ भी पता नहीं चला है। यह भी एक रहस्य ही है कि आखिर इन विशालकाय कब्रों में किया क्या जाता था। क्योंकि यहां कब्र के क्षेत्र से कही ज्यादा विशालकाय क्षेत्र अन्य कार्यों के लिए भी है।
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मिस्र में प्राचीन तमिल ब्रह्मी लिपि : मिस्र के कुसैर अल कादीम (Quseir-al-Qadim) में खुदाई के दौरान एक टूटा हुआ जार मिला, जिसे पहली शताब्दी के आस-पास का बताया जाता है और जिस पर तमिल ब्राह्मी में कुछ लिखा हुआ है. ब्रिटेन के एक इतिहासकार का कहना है कि ये बर्तन भारत में बने हुए है।

शंख लिपि : कुछ प्राचीन लिपियां आज भी एक अनसुलझी पहेली बनी हुई हैं। उनमें लिखित अभिलेख आज तक नहीं पढ़े जा सके हैं। भारत तथा जावा और बोर्नियो में प्राप्त बहुत से शिलालेख शंखलिपि में हैं। इस लिपि के वर्ण 'शंख' से मिलते-जुलते कलात्मक होते हैं। इसीलिए शंख लिपि कहते हैं। शंख लिपि को विराटनगर से संबंधित माना जाता है। उदयगिरि की गुफाओं की शिलालेखों और स्तंभों पर यह लिपि खुदी हुई है। इस लिपि के अक्षरों की आकृति शंख के आकार की है। प्रत्येक अक्षर इस प्रकार लिखा गया है कि उससे शंखाकृति उभरकर सामने दिखाई पड़ती है। इसलिए इसे शंखलिपि कहा जाने लगा।
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इस लिपि के अक्षरों की आकृति शंख के आकार की है। प्रत्येक अक्षर इस प्रकार लिखा गया है कि उससे शंखाकृति उभरकर सामने दिखाई पड़ती है। इसलिए इसे शंखलिपि कहा जाने लगा। रागगीर के प्रसिद्ध सोन भंडाकी गुफाओं में लगे दरवाजों, दीवारों पर शंख लिपि में कुछ लिखा है लेकिन उसे अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है। कहते हैं कि इसमें दरवाजों को खोलने की तकनीक और खजाने के छुपे होने की बात लिखी हो सकती है।

माया लिपि और भाषा : कहते हैं कि माया नगर मयासुर ने बसाया था। हमारी धरती पर हजारों साल पहले माया सभ्यता मौजूद थी लेकिन किन्हीं कारणों से यह सभ्यता खत्म हो गई। माया सभ्यता का अंत का रहस्य क्या है, उसी तरह जिस तरह की सिंधु घाटी सभ्यता का अंत रहस्य बना हुआ है।
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माया सभ्यता कोलंबियाई मीसो अमेरिकी सभ्यता से पहले की मानी जाती है। जहां पर आज मैक्सिको का यूकाटन नामक स्थान है वहां किसी जमाने में माया सभ्यता के लोग रहा करते थे। इसे मेसो-अमेरिकन सभ्यता भी कहा जाता है। माया सभ्यता ग्वाटेमाला, मैक्सिको, होंडुरास और यूकाटन प्रायद्वीप में स्थित थी। यह मैक्सिको की एक महत्वपूर्ण सभ्यता थी। इस सभ्यता की शुरुआत 1500 ई. पू. में हुई। यह 300 ई० से 800 ई० तक काफी प्रगतिशील रही, फिर धीरे-धीरे इसका अंत हो गया।
 
माया सभ्यता के लोगों की सबसे बड़ी खासियत उनका खगोलीय ज्ञान थी। माया सभ्यता की गणना और पंचांग को माया कैलेंडर कहा जाता था। इसका एक साल 290 दिन का होता था। माया कैलेंडर में तारीख तीन तरह से निर्धारित होती थीं। तारीख का निर्धारण लंबी गिनती, जॉलकिन यानी ईश्वरीय कैलेंडर और हाब यानि लोक कैलेंडर के जरिए होता था। इसी आधार पर माया सभ्यता के लोग भविष्यवाणियां करते थे। माया सभ्यता के लोगों की मान्यता थी कि जब उनके कैलेंडर की तारीखें खत्म होती हैं, तो धरती पर प्रलय आता है और नए युग की शुरुआत होती है। हालांकि इस कैलेंडर को अभी भी लोग समझने में लगे हैं।
 
माया सभ्यता का पंचांग 3114 ईसा पूर्व शुरू किया गया था। इस कैलेंडर में हर 394 वर्ष के बाद बाकतुन नाम के एक काल का अंत होता है। 21 दिसबंर, 2012 को उस कैलेंडर का 13वां बाकतुन खत्म हो जाएगा। हालांकि माया सभ्यता के बारे में कहा जाता है कि यह भी सिन्धु घाटी और मिस्र की सभ्यताओं की तरह सबसे रहस्यमयी सभ्यता है, जो अपने भीतर कई अनसुलझे रहस्य समेटे हुए है

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