Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

चीन में भी बेरोज़गारी है और बढ़ रही है

हमें फॉलो करें चीन में भी बेरोज़गारी है और बढ़ रही है
webdunia

राम यादव

, मंगलवार, 24 सितम्बर 2024 (21:41 IST)
China-Economy in Crisis :  भारतीय लोकसभा में नेता विपक्ष राहुल गांधी पिछले दिनों जब अमेरिका में थे, तब वहां बड़े ताव से कहते सुने गए कि (मोदी के) भारत में तो बेरोज़गारी बढ़ती ही जा रही है जबकि चीन में बेरोज़गारी है ही नहीं! चीन के बारे में यदि वे इतने ही ज्ञानवान हैं तो उन्हें पता होना चाहिए कि शी जिनपिंग के चीन की अर्थव्यवस्था इस समय उतार पर है। नवीनतम आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार चीन में बेरोज़गारी दर लगातार बढ़ती हुई जुलाई 2024 में 5.2 प्रतिशत हो गई।
 
चीन का इस समय हाल यह है कि 24 साल तक के हर 5 युवक-युवतियों में से 1 बेरोज़गार है यानी 24 साल तक के 20 प्रतिशत युवाओं को कोई काम-धंधा नहीं मिल रहा है। 2024 की गर्मियों की परीक्षाओं के अंत के साथ उच्च शिक्षा प्राप्त 1 करोड़ 16 लाख नए चीनी युवा रोज़गार बाज़ार में पहुंच गए हैं। यह संख्या 10 साल पहले की तुलना में दोगुनी अधिक है। चीन की अर्थव्यवस्था उन्हें खपा पाने में पूर्णत: असमर्थ दिख रही है।
 
जर्मनी के हाले शहर में स्थित मानव जाति-विज्ञान (एथनोलॉजी) के मैक्स प्लांक संस्थान में चीन में हो रहे सामाजिक परिवर्तनों पर शोध कार्य कर रहे चीनी वैज्ञानिक शियांग बियाओ का कहना है कि चीन में बेरोज़गारी इसलिए आ धमकी है, क्योंकि चीन के कथित आर्थिक चमत्कार का अब सूर्यास्त होने लगा है। चीन के सरकारी और कम्युनिस्ट पार्टी नेता, युवजनों से कह रहे हैं कि वे गांवों में जाएं, वहां काम-धंधा तलाशें। शहरों में इतने काम नहीं हैं कि सबको खपाया जा सके।
 
webdunia
यही नहीं, चीनी युवजनों को अब उसी ज़ोर-ज़बर्दस्ती से देहातों में भेजा जा रहा है जिस ज़ोर-ज़बर्दस्ती से 1960 वाले दशक में माओ त्सेतुंग की तथाकथित 'सांस्कृतिक क्रांति' वाली अंधेरगर्दी के समय करोड़ों लोगों, युवजनों यहां तक कि स्कूली बच्चों को भी देहातों में जाने और वहां के लोगों को माओ की 'लाल पुस्तक' पढ़ाने के लिए कहा जाता था। वे गांवों में पहुंचकर किसानों से मार-पीट और तोड़-फोड़ करने में व्यस्त हो जाते थे। 1966 से 1969 तक चली इस चीनव्यापी हिंसा ने 10 से 20 लाख प्राणों की बलि ली। 1 वर्ष बाद 1970 में जन्मे राहुल गांधी मानव इतिहास की इस सबसे वहशी चीनी 'सांस्कृतिक क्रांति' को संभवत: न तो जानते होंगे और न जानना चाहते होंगे।
 
चीन में कारोबार कर रही यूरोपीय कंपनियों के चैम्बर ऑफ़ कॉमर्स ने वहां कार्यरत अपनी सदस्य यूरोपीय कंपनियों के अनुभव जानने के लिए हाल ही में एक मत सर्वेक्षण किया। यह संस्था चीन में कार्यरत 1700 से अधिक यूरोपीय कंपनियों का प्रतिनिधित्व करती है।
 
उसके अध्यक्ष येन्स एस्केलुंद ने सर्वेक्षण के परिणाम प्रस्तुत करते हुए बताया कि सर्वेक्षण में शामिल 68 प्रतिशत सदस्य कंपनियों का कहना था कि चीन में धंधा-व्यापार और कारोबार पहले की अपेक्षा कहीं अधिक कठिन हो गया है। 44 प्रतिशत कंपनियां अगले दो वर्षों में अपने कॉर्पोरेट मुनाफे में गिरावट के डर से निराशावादी हैं। बाज़ार में पहुंच की कठिनाइयां और नौकरशाही की बाधाएं उनके लिए दूभर समस्याएं बनती जा रही हैं।
 
मत सर्वेक्षण में आधी से अधिक यूरोपीय कंपनियों ने चीन की संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था को अपनी सबसे बड़ी चुनौती बताया- पिछले सर्वेक्षणों की तुलना में काफी बड़ी चुनौती। यूरोपियन चैंबर ऑफ कॉमर्स के अध्यक्ष येन्स एस्केलुंद का मत था कि 'इस साल चीनी अर्थव्यवस्था को लेकर कई चिंताएं हावी रही हैं।' बाज़ार में मांग कमज़ोर रही है। दूसरी ओर, चीन की सरकार चीनी उद्योगों को प्राथमिकता और संरक्षण देती है। इससे चीनी कंपनियों का उत्पादन बढ़ते जाने से यूरोपीय कंपनियों को अपने उत्पादों को बेचने में कठिनाई हो रही है और अंतत: उन्हें अपनी क़ीमतें घटानी पड़ती हैं।
 
चीनी अर्थव्यवस्था के यूरोपीय प्रेक्षकों का कहना है कि चीनी सरकार की डेढ़ साल पहले तक की सख्त 'शून्य-कोविड' नीति की समाप्ति के बाद से चीन की अर्थव्यवस्था उस तरह संभल नहीं पाई है, जैसी कि आशा की जा रही थी। अत्यधिक कर्ज़ में डूबा रियल एस्टेट सेक्टर अभी भी गहरे संकट में है। बहुत से लोगों को विशेषकर युवाओं को ऐसी नौकरियां नहीं मिल पातीं, जो किसी निर्यात-उन्मुख अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण हैं।
 
चीन में यूरोपीय चैंबर ऑफ कॉमर्स ने चेतावनी दी है कि चीनी बाजार में यूरोपीय कंपनियों का भरोसा अब तक के सबसे निचले स्तर पर है। घरेलू खपत कमज़ोर बनी हुई है जिसका मतलब है कि यूरोपीय कंपनियों के लिए भी कारोबारी संभावनाएं कम हो रही हैं और उन्हें चीन में अपने उत्पाद बेचने में समय के साथ कहीं अधिक कठिनाई होगी। राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर चीनी सरकार के अस्पष्ट कानून भी कानूनी अनिश्चितता का कारण बनते हैं। कठिनाइयां और समस्याएं बहुत-सी हैं, तब भी यूरोपीय चैंबर ऑफ़ कॉमर्स यूरोपीय कंपनियों को चीनी बाज़ार छोड़ने या वहां निवेश नहीं करने की सलाह नहीं दे रहा है।
 
इसके बावजूद यूरोपीय कंपनियों सहित कई विदेशी कंपनियां चीन से या तो चली गई हैं, चले जाने की तैयारी कर रही हैं या चले जाने के बारे में सोच रही हैं। ऐसी कंपनियों को इस बीच भारत, इंडोनेशिया, वियतनाम या दक्षिणी अमेरिका और अफ्रीका के कुछ देश, चीन की अपेक्षा अधिक आकर्षक लग रहे हैं। अफ्रीका में चीन का प्रभाव घटाने और अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए यूरोपीय संघ वहां 150 अरब यूरो निवेशित करने की सोच रहा है।
 
इस निवेश में हालांकि अभी काफ़ी समय लगेगा, पर विदेशी कंपनियां यदि चीन में अपना कारोबार समेटने और वहां से जाने लगेंगी, जैसा कि राजनीतिक या व्यापारिक कारणों से इस समय भी हो रहा है, तो इससे चीन में नौकरियों और रोज़गार के अवसरों में और अधिक कमी आएगी। वहां इस समय कार्यरत विदेशी कंपनियों व कार्यालयों में भी लाखों चीनी नागरिक काम करते हैं। वे बेरोज़गार होंगे। भारत के नेता विपक्ष राहुल गांधी को चीन के बारे में ऐसी सच्चाइयां जानने और दूर तक सोचने में कोई दिलचस्पी नहीं है। वे तो येन-केन-प्रकारेण उस पीठ पर बैठने के लिए व्याकुल हैं जिस पर पाल्थी मारकर नरेन्द्र मोदी विराजमान हैं।
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

ओडिशा : पेंशन के लिए 2 किमी घुटनों पर चली बुजुर्ग विकलांग महिला, CM माझी के गृह जिले का मामला