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दक्षिण एशिया में जलवायु परिवर्तन का अर्थ?

हमें फॉलो करें दक्षिण एशिया में जलवायु परिवर्तन का अर्थ?
, सोमवार, 18 सितम्बर 2017 (14:25 IST)
अगर दक्षिण एशिया में जलवायु परिवर्तन की मार इतनी ही तेज होती गई तो वह दिन दूर नहीं जब इस क्षेत्र की गरीब आबादी भूखे मरके के लिए विवश हो जाएगी। प्रति वर्ष मानसून के मौसम में वर्षा के चलते हिमालय के तलहटी के हिस्सों में बड़े पैमाने पर भूस्खलन होगा और मैदानी इलाकों में बाढ़ का तांडव देखने को मिलेगा। इस प्रक्रिया में अगर कोई सबसे अधिक प्रभावित होगा तो वह है गरीबतम आदमी। बाढ़ के कारण उनके घर, मकान, गृहस्थी की कीचड़ और पानी में बह जाएंगे।
 
जैसाकि अक्सर ही बिहार और उत्तरप्रदेश के मैदानी इलाकों में मिट्टी और बांस से बने घरों को पानी के तेज बहाव में बहने का कोई मौका नहीं मिलता और ये लोग अपने खाने, पीने की चीजों को नहीं बचा पाते हैं। बाढ़ ग्रस्त इलाकों में सड़कों पर लोगों के परिवारों की शरणस्थली और पशुओं का कोंदवाड़ा बन जाता है क्योंकि पशुओं के लिए सुरक्षित स्थान लोगों की प्राथमिकता में सबसे नीची होती है। तिरपाल बनाने के जरिए सिर छुपाने की जगह का इंतजाम होता है और इन्हें सहारे के लिए पेडों या बांस बल्लियों से बांध दिया जाता है। भीगे और बदबूदार चावलों को कपड़ों और चटाइयों के साथ डामर की आग पर सुखाया जाता है।   
 
इतना सब होने के बाद राहत का इंतजार किया जाता है और जब राहत सामग्री आती है तो भारी धक्कामुक्क‍ी और लूटमार मच जाती है। जितनी भी राहत सामग्री आती है, वह हमेशा कम ही पड़ती है। कुछेक हफ्तों के बाद देश के लोग भूल जाते हैं कि कभी यहां बाढ़ भी आई थी। दूरस्‍थ देशों में तो इस पर ध्यान भी नहीं दिया जाता है। अंतत: ग्रामी ण अपने घरों से कीचड़ और गंदगी को साफ करते हैं और उपयोगी चीजों को साफ कर लेते हैं। जब प्रत्येक परिवार से कोई आदमी खाड़ी देशों में काम करने के लिए जाता है तो देश में गरीबी और प्रवास का चक्र तेज होता जाता है। 
 
इस वर्ष तो अमेरिका में इरमा और हार्वे की तबाही के साथ-साथ संभवत: जोस ने अमेरिका में भी जलवायु परिवर्तन की गंभीरता का अहसास कराया। लेकिन दक्षिण एशिया के लिए यह अप्रत्याशित और अभूतपूर्व मौसम था। भारत में असम के ऊपर और नेपाल की तराई के इलाकों में बादलों का डेरा ऐसा जमा कि दिन प्रति दिन रिकार्ड तोड़ पानी बरसा। दोनों ही जगहों पर जनजीवन अस्तव्यस्त हो गया और नेपाल के ग्रामीण इलाकों में बसने वाले लोगों का कहना है कि उन्होंने अपने जीवन में कभी इतनी तेज और लगातार बारिश नहीं देखी।     
 
उल्लेखनीय है कि नेपाल में इस वर्ष कम से कम 159 लोगों की मौत हो गई और दर्जनों अभी भी गायब है। फसलें बरबाद हो गई हैं और करीब ढ़ाई लाख घर क्षतिग्रस्त हुए या पूरी तरह से नष्ट हो गए। नेपाल के गृह मंत्रालय ने भी यह जानकारी दी कि पानी दक्षिण में बिहार और बांग्लादेश में गया। एक और सिस्टम ने मुंबई जैसे महानगर में तबाही ला दी। इस बार कम से कम 1200 से ज्यादा लोग समूचे दक्षिण एशिया में नारे गए।  
 
इन प्राकृति‍क आपदाओं का समय यह सिद्ध करता प्रतीत होता है कि असामान्य रूप से कठोर मौसमी घटनाएं एक वैश्विक प्रवृत्ति बन गई है। वर्षों तक हम लोग सुनते रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन से दक्षिण एशिया बहुत प्रभावित होगा, अगर लोगों ने देख भी लिया कि जलवायु का यह परिवर्तन हम पर ‍कितना असर डाल सकता है। लेकिन इसके साथ ही, हमने विनाशकारी दृश्यों में लोगों को मरते देखा है, बाढ़ के बाद सूखे ने किसानों को आत्महत्याएं करने के लिए विवश कर दिया है। 
 
हमें यह विश्वास दिलाया जा रहा है कि दुनिया में गरीबी और अमीरी का क्रम चलता रहेगा क्योंकि हमारे जैसे गरीब देश इस जलवायु परिवर्तन से ज्यादा शापित होंगे। नेपाल में इंस्टीट्‍यूट फॉर सोशल एंड इनवर्नमेंटल ट्रांजिशन (बदलाव) के प्रमुख अजय दीक्षित का कहना है कि ' अत्यधिक बरसात की प्रवृत्ति बढ़ रही है और चरमसीमा का मौसम एक नया मानक बन गया है।' 
 
प्रत्येक एक ऐसा तूफान आता है जोकि दशक में एक बार, सदी में एक बार या पांच सौ वर्षों में एक बार आता है। मौसमी तरीकों में आदमी की दखल से किए गए परिवर्तन, इनके साथ ही शहरी विकास के साथ और खराब इंजीनियरिंग और दुर्घटनाओं के लिए सुभेद्य क्षेत्र अमेरिका जैसे देश में भी फ्लोरिडा, टेक्सस अब बांग्लादेश और नेपाल की बराबरी पर आ गए हैं।
 
हम यह भी देख रहे हैं कि पश्चिमी देशों में एक सीनेटर जलवायु परिवर्तन से इंकार कर सकता है लेकिन वे इस बात से इनकार नहीं कर सकते हैं कि उनके किचन में भी छह फीट तक पानी भर गया है। यह कहना गलत न होगा कि हम एक ही नाव में सवार हैं और इसके साथ हम यह भी देख रहे हैं कि इन नई स्थितियों के चलते कैसे राजनीति और नियोजन सामने आ सकता है और कैसे जलवायु संबंधी त्रासदियां सामाजिक संघर्ष की शुरुआत पैदा कर सकती हैं।
 
पिछले जुलाई के महीने में नेपाल के सप्तारी जिले के तिलाठी गांव के लोगों का बिहार में उनके पडोसियों से तीखा विवाद हो गया था। विदित हो कि भारत सरकार ने अपने नागरिकों को डूबने से बचाने के लिए एक तटबंध बनाया था लेकिन इसका यह भी अर्थ था कि इससे प्रत्येक मानसून के मौसम में नेपाल के ग्रामवासी डूब जाते। लेकिन बाढ़ आने से पहले तिलाठी में यहां के लोग घुटनों-घुटनों तक पानी में घूम रहे थे।   
 
जब बाढ़ आई तो अगस्त माह में बाढ़ ने तटबंध में दरार आ गई थी।तब नेपाल के ग्रामीणों ने भारत सरकार की मदद से सुधरवाने से इनकार कर दिया था। इसके बाद  एक स्थानीय अध्यापक ने बताया कि 'नए-नए जलमार्ग बन गए हैं और पानी पीछे की ओर आ रहा है और यह हमारे लिए अच्छा नहीं है।' पर भारतीय मीडिया ने अपनी रपटों में दावा किया कि नेपाल ने जानबूझकर पानी छोड़ा ताकि पानी नीचे की ओर बह जाए।
 
जबकि सच यह है कि भारत-नेपाल सीमा पार सभी तटबंधों और बांधों का नियंत्रण भारत के हाथों में है और नेपाल पर इसका कोई नियंत्रण नहीं है। इस मामले में जानकारों का कहना है कि ' पिछले 25 वर्षों से जंगल कट गए हैं, सड़के बना दी गई हैं, और दलदली भूमि पर कब्जा कर लिया गया है। इसी तरह पानी की निकासी को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया है।' 
 
इस कारण से नेपाल के मैदानी इलाकों में सड़कों पर बने तटबंध पानी की तेज घारा से  बह गए हैं और इस तरह आधे डूबे गांवों को बचाया जाता है। तेरह अगस्त को जब तूफान बंद हुआ तो समूचे जिले एक दूसरे से कटे हुए थे। बाढ़ एक बड़े इलाके में फैल चुकी थी और पानी लगातार बरस रहा था कि शुरुआती दिनों में नेपाली सरकार भी पूरी तरह से लकवाग्रस्त हो गई थी।
 
रौताहाट जिले के प्रमुख जिला अधिकारी उद्धव बहादुर थापा का कहना था कि ' हमारे पास केवल एक बेड़ा या रबर की नौका और 50 लाइफ जैकेट्‍स थीं। बचाव के साधन के तौर पर हमारे पास पर्याप्त रस्सियां भी नहीं कि लोगों को बाहर निकाला जा सके। ऐसी घटनाओं पर रोक लगाने के लिए विदेशी दानदाताओं ने हाल के वर्षों में करोड़ों डॉलर दिए लेकिन तब भी कोई जमीनी अंतर नहीं आया। इस बारे में एक पुलिस अधिकारी का कहना है कि जब आपको ट्रेनिंग दी जाती है लेकिन कोई उपकरण नहीं दिया जाता तो आप ज्यादा कुछ नहीं कर सकते हैं।    
 
इसी तरह बाढ़ में फंसे लोगों की कहानियां टेलिफोन पर आने लगीं। भारत-नेपाल सीमा पर गौर कस्बे में लोग तीन दिनों तक फंसे रहे क्योंकि भारत सरकार ने बिहार के सीतामढ़ी जिले बैरगनिया कस्बे को बचाने के लिए एक तटबंध बना दिया था। पानी अंतत: बह निकला तब तटबंध का ‍एक हिस्सा ढह गया और बाढ़ की कहानी दक्षिण की ओर बह निकली। दो हफ्तों के बाद भी बहुत से गांव वालों को खाना और रहने की जगह नहीं मिली।  
 
अस्पृश्य जाति के समझे जाने वाले राजेन्द्र राम का कहना था कि उनका परिवार लगातार भूखा रहा। उनके परिवार में दस लोग थे लेकिन राहत केवल चार लोगों के लिए ही मिली। वे कहते हैं, 'सारी जिंदगी मेरे पास केवल एक मकान था लेकिन बाढ़ में वह भी जाता रहा। अगर आप मेरे लिए थोड़ा भोजन भेज दें तो यह बहुत अच्छी बात होगी।' दूसरे गांव वाले नेताओं के राहत वितरण कार्यों की भी तीखी आलोचना की। 
 
अगर यह घटनाक्रम दक्षिण एशिया के परिदृश्य से देखा जाए तो ऐसा लगता है कि अमेरिका जैसा देश भी इस मामले में हमारे करीब आ रहा है। अब ऐसा नहीं लगता कि हमारी और उनके जीवन और राजनीति में कोई बड़ा अंतर है? लगता है कि दुनिया दोनों ओर से सिकुड़ रही है।

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