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मिख़ाइल गोर्बाचोव : एक महान किंतु अभागे नेता

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हमें फॉलो करें Former President Mikhail Gorbachev passes away
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राम यादव

भूतपूर्व सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के अंतिम नेता और राष्ट्रपति, मिख़ाइल गोर्बाचोव, 20वीं सदी के एक ऐसे अनन्य सुधारवादी युगप्रर्तक हैं, जिन्हें लगभग भुला दिया गया। अब वे इस दुनिया में नहीं रहे।
 
मिख़ाइल गोर्बाचोव को 20वीं सदी का सबसे बड़ा सुधारवादी नेता कहा जा सकता है। मात्र 6 वर्षों के शासनकाल में उनके सुधारवादी क़दमों ने न केवल भूतपूर्व सोवियत संघ का, बल्कि लगभग पूरी दुनिया का राजनैतिक नक्शा इतना आमूल बदल दिया कि वैसा विश्व के इतिहास में पहले शायद ही कभी देखने में आया होगा। उन्होंने चाहा तो था लकीर की फ़कीर बन गई सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी को यथार्थवादी और उदारवादी बनाना, लेकिन उनके सुधारों से पूरे साम्यवादी जगत में भूचाल आ गया।
 
जर्मनी को विभाजित करने वाली बर्लिन दीवार तक गिर गई। 15 देशों को मिलाकर बना सोवियत संघ स्वयं बिखर गया। अपनी जनता के धक्कों से यूरोप की सारी कम्युनिस्ट सरकारें भी भरभरा कर धराशायी हो गईं। दक्षिण अफ्रीका में नस्लवाद का अंत हुआ, तो एशिया-अफ्रीका में ऐसे दमनकारी शासनतंत्रों की अर्थी उठने लगी, जिनके नेताओं को 'समाजवाद' का शौक चर्राया हुआ था। 
 
पिता किसान, मां यूक्रेनी : गोर्बाचोव का जन्म, 2 मार्च 1931 को, उत्तरी कॉकेशिया में स्तावरोपोल इलाक़े के प्रिवोल्नोये नामक गांव में हुआ था। पिता एक ग़रीब रूसी किसान थे और मां यूक्रेनी। पर उनका बचपन अधिकतर नाना-नानी के साथ बीता। बड़ा होने पर वे उस समय सोवियत संघ में प्रचलित अनिवार्य सैनिक सेवा के उपयुक्त नहीं पाए गए, इसलिए मॉस्को चले गए और वहां के लोमोनोसोव विश्वविद्यालय में क़ानून की पढ़ाई करने लगे। इस पढ़ाई के दौरान हीं अपनी भावी पत्नी रइसा से परिचित हुए। 1953 में दोनों ने विवाह भी कर लिया। 
 
कम्युनिस्ट देशों में उच्चशिक्षा प्रायः वही लोग प्राप्त कर पाते थे, जो कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय सदस्य भी थे। इसलिए मिख़ाइल गोर्बाचोव भी, 21 वर्ष की आयु में, 1952 में सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बन गए। 1955 में क़ानून की अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद वे स्तावरोपोल वाले अपने गृहक्षेत्र में वापस लौटकर वहां 22 वर्षों तक सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के लिए काम करते रहे। साथ में कृषि-उद्योग प्रबंधन की अलग से पढ़ाई भी कर रहे थे। इसी कारण 1970 में पार्टी ने उन्हें कृषि कार्य वाले पेशों का प्रथम पार्टी-सचिव बनाया और अगले ही वर्ष उन्हें सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी की केंद्रीय समित की सदस्यता भी दे दी।
 
कम्युनिस्ट देशों में पोलित ब्यूरो सत्ता की सर्वोच्च इकाई होती रही है। पार्टी की केंद्रिय समित उसके बाद आती है। गोर्बाचोव को अक्टूबर 1980 में पोलित ब्यूरो की भी पूर्ण सदस्य़ता मिल गई। 
 
इस तरह बने सर्वोच्च नेता : पोलित ब्यूरो में ही गोर्बाचोव का परिचय यूरी अंद्रोपोव से हुआ। वे उस समय सोवियत संघ की कुख्यात गुप्तचर सेवा 'केजीबी' के प्रमुख थे। अंद्रोपोव भी उसी स्तावरोपोल के रहने वाले थे, जहां से गोर्बाचोव आए थे। दोनों के बीच अच्छी जमने लगी। नवंबर 1982 में सोवियत संघ के तत्कलीन नेता लेओनिद ब्रेज़नेव की मृत्यु के बाद यूरी अंद्रोपोव ने ही सर्वोच्च नेता का पद संभाला। वे 'केजीबी' के प्रमुख भले ही रह चुके थे, पर थे अपेक्षाकृत उदारवादी और सुधारवादी भी। उनके कहने पर गोर्बाचाव ने कई बार पोलित ब्यूरो की बैठकों की अध्यक्षता की और भावी सुधरों के बारे में सोचना शुरू किया।
 
यूरी अंद्रोपोव केवल डेढ़ साल ही सर्वोच्च नेता रह पाए। फ़रवरी 1984 में उनका देहांत हो गया। वे गोर्बाचोव को ही अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे। लेकिन पार्टी की केंद्रिय समित के अधिकांश सदस्यों ने उस समय 53 वर्ष के गोर्बाचोव को इस काम के लिए परिपक्व नहीं समझा। नए नेता चुने गए कोंस्तातिन चेर्नेन्को, हालांकि उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं था। साल भर बाद, 10 मार्च 1985 को, चेर्नेन्को भी चल बसे। तब पोलितब्यूरो के सभी सदस्यों ने एकमत से मिख़ाइल गोर्बाचोव को ही सोवियत संघ का नया सर्वोच्च नेता चुना। 
 
पार्टी और प्रशासन का सर्वोच्च पद पाते ही गोर्बाचोव ने सुधारों की मानो फुलझड़ी जला दी। प्रेस को आज़ादी मिल गई। स्टालिन और उसके बाद के अत्याचारों को उजागर किया जाने लगा। गोर्बाचोव ख़ुद भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद की बखिया उधेड़ने लगे। 'ग्लासनोस्त' यानी पारदर्शिता और 'पेरेसेत्रोइका' यानी पुनर्गठन का नारा देते हुए उन्होंने सोवियत समाज के आधुनिकीकरण का बिगुल बजा दिया।
 
गोर्बाचोव का मानना था कि राष्ट्रीयकृत उद्यमों को केंद्रीकृत सरकारी नियोजनों से मुक्त कर देने पर वे मांग और पूर्ति वाले बाज़ारी नियमों के अनुसार कुशलतापूर्वक काम करेंगे। 1986 में उन्होंने कृषि सुधारों की घोषणा करते हुए सहकारी फ़ार्मों को अपना 30 प्रतिशत उत्पादन सरकार के बदले सीधे दुकानदारों और उपभोक्ताओं को बेचने के लिए कहा। 
 
1988 में गोर्बाचोव ने लेओनिद ब्रेज़नेव के इस सिद्धांत की अर्थी उठा दी कि सोवियत संघ को यूरोप के अन्य कम्युनिस्ट देशों में सैन्य हस्तक्षेप का अधिकार है। इसी अधिकार की दुहाई दे कर सोवियत संघ ने 1956 में हंगरी और 1968 में चेकोस्लोवाकिया में अपने सैनिक और टैंक भेजकर वहां की जनता का ख़ून बहाया था। सोवियत गुट वाले वार्सा संधि संगठन के सभी देशों से गोर्बाचोव ने कहा कि वे अपनी शासन पद्धति स्वयं चुनने और अपनी नीतियां स्वयं बनने के लिए स्वतंत्र हैं। 
 
कम्युनिस्ट पूर्वी जर्मनी की स्थापना की 40वीं वर्षगांठ के अवसर पर, अक्टूबर 1989 में, गोर्बाचोव ने वहां की यात्रा की। उनके उदारवादी सुधारों से प्रसन्न पूर्वी जर्मन जनता ने उनका ऐसा ज़ोरदार स्वागत किया कि पूर्वी जर्मनी के सर्वोच्च नेता एरिश होनेकर तिलमिला कर रह गए। 
 
इस तरह हुआ जर्मनी का एकीकरण : यही कारण है कि 9 नवंबर 1989 की रात जब अकस्मात एक विशाल भीड़ कम्युनिस्ट पूर्वी जर्मनी और पूंजीवादी पश्चिमी जर्मनी के बीच की तीन मीटर ऊंची, सीमेंट-कंक्रीट की बनी बर्लिन दीवार तोड़कर गिराने लगी, तब गोर्बाचोव ने अपने टैंक और सैनिक होनेकर की सहायता के लिए नहीं भेजे। 1970 वाले दशक में एक पत्रकार के तौर पर मैं स्वयं लगभग एक दशक तक पूर्वी जर्मनी में रहा हूं। 1989 में बर्लिन दीवार के गिरने और साल-भर बाद पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी के एकीकरण का प्रत्यक्षदर्शी भी बना। 
 
दीवार गिर जाने के बाद, एक रूसी पत्रकार के माध्यम से, तत्कालीन पश्चिम जर्मन चांसलर हेल्मूट कोल को इशारा तक किया गया कि वे जर्मनी के एकीकरण के बारे में सोचना शुरू कर दें!  बर्लिन दीवार गिरने के साथ ही 1945 से सोवियत संघ और अमेरिकी गुट वाले पश्चिमी देशों के बीच चल रहे तथाकथित 'शीतयुद्ध' का भी अंत हु्आ। 3 अक्टूबर, 1990 के दिन विभाजित जर्मनी का विधिवत राजनीतिक एकीकरण हो गया। साथ ही गोर्बाचोव को शांति के नोबेल पुस्कार से सम्मानित भी किया गया।
 
गोर्बाचोव ने जनवरी 1986 में, बीसवीं सदी के अंत से पहले, सभी परमाणु अस्त्रों का सफ़ाया कर देने पर लक्षित तीन चरणों वाला एक निरस्त्रीकरण कार्यक्रम भी सुझाया था। अमेरिका के साथ परमाणविक निरस्त्रीकरण के 'स्टार्ट'  जैसे कुछेक समझौते हुए भी। किंतु अमेरिकी गुट की परमाणु अस्त्रों के पूर्ण परित्याग में कोई दिलचस्पी नहीं थी। उसे लगा कि सोवियत संघ आर्थिक-राजनीतिक होड़ में पश्चिम से हार गया है, इसलिए अब निरस्त्रीकरण चाहता है।
 
होम करे, सो हाथ जले : कहावत है, 'होम करे, सो हाथ जले!' बर्लिन दीवार के पतन और जर्मनी के एकीकरण जैसे महान कार्यों के साथ ही गोर्बाचोव के भाग्य पर अशुभ की छाया मंडराने लगी। सोवियत संघ के जनप्रतिनिधियों ने एक विशेष अधिवेशन में, 14 मार्च 1990 को, गोर्बाचोव को पहली बार सोवियत संघ का राष्ट्रपति चुना। उस समय मॉस्को के मेयर रहे बोरिस येल्त्सिन संसद के अध्यक्ष और उपराष्ट्रपति बने। वे ही गोर्बाचोव के कट्टर विरोधी बन गए और उनके त्यागपत्र की मांग करने लगे। इसे देखकर कई संघटक गणराज्य भी सोवियत संघ से अलग होने पर तुल गए। 
 
1990 वाले अगस्त में गोर्बाचोव अपने परिवार के साथ क्रीमिया में आराम कर रहे थे। तभी कम्युनिस्ट पार्टी के आठ वरिष्ठ नेताओं के एक गुट ने सेना के कुछ अफ़सरों के साथ मिलीभगत कर 19 अगस्त को सत्ता हथियाने का प्रयास किया। येल्त्सिन इस प्रयास को विफल करते हुए एक नये नेता के रूप में उभरे। वे 15 गणराज्यों वाले सोवियत संघ का विघटन कर केवल रूसी संघ को जीवित रखना और उसका राष्ट्रपति बनना चाहते थे।
 
अपमान भी सहने पड़े : येल्त्सिन के हाथों गोर्बाचोव को ऐसे-ऐसे अपमान सहने पड़े कि अंततः 25 दिसंबर 1991 को उन्हें त्यागपत्र देना ही पड़ा। 31 दिसंबर 1991 की मध्य रात्रि से सोवियत संघ का अस्तित्व मिट गया। शराब के रसिया येल्तसिन शेष बचे रूसी संघ के नये राष्ट्रपति बने। रूस की अर्थव्यवस्था चौपट होने लगी। यूरोप-अमेरिका के लोग वहां की जनता को भूख और ठंड से बचाने के लिए खाने-पीनें की चीज़ों और कपड़ों के पार्सल भेजने लगे। स्थिति में सुधार तब होने लगा जब मई 2000 में व्लादिमीर पूतिन रूस के अगले राष्ट्रपति बने। 
  
91 वर्ष के हो चुके मिख़ाइल गोर्बाचोव भारत के भी मित्र और शुभचिंतक रहे हैं। नवंबर 1986 में उन्होंने पहली बार भारत की यात्रा की। किसी ग़ैर समजवादी देश की उनकी यह पहली यात्रा थी। 1987 में उन्हें इंदिरा गांधी पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया। दिसंबर 1988 में वे दूसरी बार भारत पहुंचे। 20 सितंबर 1999 को अपनी पत्नी रइसा की मृत्यु से उन्हें असह्य पीड़ा हुई। रइसा रक्तकैंसर (ल्यूकेमिया) से पीड़ित थीं। उन्होंने जर्मनी के म्युन्स्टर शहर के विश्वविद्यालय अस्पताल में अंतिम सांस ली थी।
 
अपनी पुस्तक 'हर चीज़ अपने समय' में गोर्बाचोव ने लिखा, 'रइसा ही जीवन की सबसे बहुमूल्य निधि थीं।' उनके जाने से 'मेरा जीवन अपनी सार्थकता खो बैठा है।' एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा, 'मैं 90 साल का होने तक जीना चाहता हूं। इससे अधिक नहीं। रइसा के बिना यहां, इस धरती पर मुझे कुछ नहीं करना है।' गोर्बाचोव की यह उत्कट इच्छा पूरी हुई। 
 
हम तो यही कहेंगे कि इस धरती पर गोर्बाचोव जैसे लोगों की अभी भी बहुत ज़रूरत है। वे या उनके जैसा कोई दूसरा नेता यूक्रेन के विरुद्ध वैसा कोई युद्ध कभी नहीं छेड़ता, जो इस समय रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने छेड़ रखा है। दुनिया का कलेजा मुंह को आ रहा है कि यह युद्ध कहीं परमाणु विभीषिका न बन जाए!
 

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