जर्मनी के हर घर में और मीडिया में भी इस समय चर्चा का एक ही विषय हैः इस्लाम के जिहादी आतंकवादियों से मुक्ति भला कब और कैसे मिलेगी? कारण है, 23 अगस्त को जर्मनी के सोलिंगन नगर में हुआ एक वीभत्स हत्याकांड।
एक दशक पूर्व, 2014-15 में शरणार्थियों के प्रति जर्मनी की दरियादिली असीमित हुआ करती थी। जर्मन जनता सड़कों पर खड़ी होकर एशिया-अफ्रीका के इस्लामी देशों से आ रहे लाखों शरणार्थियों का गर्मजोशी से स्वागत किया करती थी। आज बहुत से वही शरणार्थी अपने घटिया कारनामों से जर्मन उदारता की अर्थी उठवा रहे हैं। जनता ही नहीं, देश के सर्वोच्च राजनेता भी शरणार्थी समस्या से पिंड छुड़ाने की कोई जादुई युक्ति पाने के लिए सिर खुजला रहे हैं।
वर्षगांठ के उत्सव पर हमलाः सोलिंगन शहर, जर्मनी में सबसे अधिक जनसंख्या वाले राज्य 'नॉर्थ राइन वेस्टफ़ेलिया (NRW)' की राजधानी ड्युसेलडोर्फ़ से केवल 29 किलोमीटर दूर है। जनसंख्या है 1 लाख 65 हज़ार। शुक्रवार, 23 अगस्त को सोलिंगन की जनता अपने शहर की 650वीं वर्षगांठ मना रही थी। नगर-केंद्र में वर्षगांठ का उत्सव चल रहा था। तभी, शाम को क़रीब पौने 10 बजे, अचानक चीख-पुकार मच गई। एक व्यक्ति 15 सेंटीमीटर लंबी धार वाले एक छुरे के साथ समारोह के कुछ दर्शकों की गर्दनों को निशाना बना कर पर पीछे से उन पर टूट पड़ा। 56 और 67 साल के दो पुरुषों और 56 साल की एक महिला की देखते ही देखते मृत्यु हो गई। 8 अन्य लोग अंशतः गंभीर रूप से घायल हो गए।
आततायी पकड़े जाने से बच कर भाग निकलने में सफल रहा, लेकिन अगले ही दिन की शाम वह पुलिस को मिल भी गया। पुलिस की पूछताछ से पता चला कि वह 26 साल का एक सीरियाई अरबी शरणार्थी है– नाम है इस्सा अल हसन। तुर्की और बुल्गारिया होते हुए 2022 के अंत में जर्मनी पहुंचा था। जर्मनी में शरण पाना चाहता था। उसे सरकारी ख़र्च पर एक शरणार्थी सदन में ठहराया गया था, हालांकि उसे औपचारिक रूप से शरण मिली नहीं थी।
जर्मनी के चांसलर घटना-स्थल पर पहुंचेः सोलिंगन हत्याकांड के तीसरे दिन सोमवार 26 अगस्त को जर्मनी के चांसलर (प्रधानमंत्री) ओलाफ़ शोल्त्स स्वयं उस जगह पहुंचे, जहां हत्याकांड हुआ था। उनके साथ ही नॉर्थ राइन वेस्टफ़ेलिया राज्य के मुख्यमंत्री, उप-मुख्यमंत्री और गृहमंत्री ने भी घटना-स्थल पर फूल रख कर मृतकों को श्रद्धांजलि अर्पित की।
अपने संक्षिप्त वक्तव्य में चांसलर शोल्त्स ने कहाः ''यह आतंकवाद है। हम सबके विरुद्ध सरासर ऐसा आतंकवाद है, जो हमारी ज़िंदगी और सहजीवन, हमारी जीवन-पद्धति के लिए ख़तरा बन गया है। आतंकवादी यही चाहते हैं। लेकिन हम ऐसा कभी होने नहीं देंगे। इसे कभी भी स्वीकार नहीं करेंगे।... जो इस्लामवादी हम ईसाइयों, यहूदियों और मुसलमानों के शांति पूर्वक साथ-साथ रहने को ख़तरे में डालना चाहते हैं, जर्मनी उन्हें उनके बुरे आपराधिक कारनामों से अपनी एकजुटता टूटने नहीं देगा।''
आतंकवाद का अंत कैसे होः जर्मनी के चांसलर चाहते हैं कि अपराधी को शीघ्र ही कठोर सज़ा मिले और राजनीतिक स्तर पर सुनिश्चित किया जाए कि ऐसी कोई घटना फिर कभी नहीं होगी। वे मानते हैं कि इसके लिए निजी हथियारों संबंधी जर्मन क़ानून को पुनः कठोर बनाना पड़ेगा। किंतु प्रेक्षक मानते हैं कि जर्मनी तो क्या, दुनिया का कोई भी लोकतांत्रिक देश इस्लामी आतंकवाद का अंत करने की स्थिति में नहीं है। ऐसा केवल चीन और उत्तरी कोरिया जैसे तानाशाही कम्युनिस्ट देश ही अपने यहां कर सकते हैं, क्योंकि उनके यहां तानाशाह का आदेश ही क़ानून होता है।
जर्मनी यूरोपीय संघ का एक सदस्य देश है। यूरोपीय संघ के देशों के बीच के शरणार्थियों संबंधी 'डब्लिन समझौते' के अनुसार इस्सा अल हसन को उसी यूरोपीय देश में शरणदान के लिए आवेदन करना चाहिए था, जहां वह सबसे पहले पहुंचा था– यानी बुल्गारिया में। 'डब्लिन समझौते' के ही नियमों के अनुसार बुल्गारिया अगले 6 महीनों के भीतर उसे वापस लेने के लिए तैयार था। लेकिन, जब-जब उसे बुल्गारिया वापस भेजना तय हुआ, वह ग़ायब हो जाता था। मिलता ही नहीं था। कह सकते हैं कि इसके लिए किसी हद तक जर्मन अधिकारियों की सुस्ती, लापरवाही या ढीला-ढाली भी ज़िम्मेदार है। जर्मनी भी अब वैसा चुस्त-दुरुस्त देश नहीं रहा, जैसा वह पहले कभी हुआ करता था।
नेपथ्य में इस्लामी ख़लीफत हैः पुलिस की पूछताछ से पता चला कि यह सीरियाई शरणार्थी, सीरिया में अब भी सक्रिय 'इस्लामिक स्टेट (IS / इस्लामी ख़लीफत) का आज्ञापालक भक्त है। IS ने यूरोप में अपने चेलों-चंटों और समर्थकों से कह रखा है कि वे अपने हमलों के लिए चाकू-छुरों जैसे हर जगह आसानी से उपलब्ध ऐसे हथियारों का उपयोग करें, जो बिना किसी तैयारी के आसानी से पाए और छिपाए जा सकते हैं। मुख्य चीज़ यह है कि लोग मरें, चाहे जैसे मरें। IS ने एक वीडियो द्वारा आततायी के साथ अपने संबंधों की पुष्टि की है।
जर्मनी के गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार 2022 वाले जिस साल में इस्सा अल हसन जर्मनी पहुंचा, उस साल अकेले सीरिया से 70, 976 लोगों ने शणदान के लिए आवेदन किए थे। उनमें से अधिकांश को औपचारिक शरण तो नहीं मिली, पर उन्हें कामचलाऊ तौर पर ''गौण सुरक्षा'' के साथ जर्मनी में रहने का अधिकार मिल गया। इस्सा अल हसन का दर्जा पहले ही दिन से उन लोगों जैसा था, जिन्हें जर्मनी से तुरंत निकाल दिया जाना था। यदि समय रहते उसे सीरिया भेज दिया गया होता, तो सोलिंगन में हुआ हत्याकांड नहीं हो पाया होता।
ऐसा पहली बार नहीं हैः इस्लामी जिहादियों द्वारा जर्मनी में किये गए इस तरह के हत्याकांड पहले भी कई बार हो चुके हैं। उदाहरण के लिए 2016 के क्रिसमस त्यौहार के समय ट्यूनीसिया के एक ट्रक चालक अनीस अमीरी ने बर्लिन के क्रिसम बाज़ार में लोगों पर ट्रक चढ़ा कर 13 लोगों को कुचल कर मार डाला और 58 को अंशतः बुरी तरह घायल कर दिया। ठीक इस साल 2024 में 31 मई के दिन एक इस्लामी जिहदी ने जर्मनी के मानहाइम शहर के एक व्यस्त चौक पर दिन-दहाड़े कई लोगों पर चाकू से हमला कर दिया। उन्हें बचाने के प्रयास में एक पुलिसकर्मी को अपनी जान गंवानी पड़ी और घायलों में से कई लंबे समय तक अस्पतालों में रहे।
जर्मनी की सड़कों, पार्कों और ट्रेनों में भी चाकुओं से कई जानलेवा हमले हो चुके हैं। नॉर्थ राइन वेस्टफ़ेलिया राज्य के अकेले राईन और रूअर नदी वाले इलाके में 2020 से अब तक 7 इस्लामी आतंकवादी हमले विफल किये जा चुके हैं। अकेले इसी राज्य में सैकड़ों ऐसे मुल्ला-मौलवियों की पहचान की गई है, जो बड़ों तो क्या, स्कूली बच्चों तक के मन में जिहादी उन्माद भड़काते रहे हैं।
बच्चे बन रहे हैं जिहादीः ईसाइयों के 2024 के ईस्टर पर्व के समय, 15 और 16 साल के दो ऐसे स्कूली लड़के गिरफ्तार किये गए, जो मोलोतोव कॉकटेलों (पेट्रोल बमों), बारूदी बमों और चाकू-छुरे द्वारा काफ़िरों की हत्याएं करना चाहते थे। हैम्बर्ग विश्वविद्यालय के 'शांति और सुरक्षा नीति शोध संस्थान' का कहना है कि 2016 से 2022 के बीच जर्मनी में इस्लाम प्रेरित जो भी हमले रचे गए, उन्हें रचने वाले हर पांचवे व्यक्ति की आयु 18 साल से कम थी। 2023 के दिसंबर में 15 साल का एक अफ़गानी लड़का पकड़ा गया। उसने अपने दोस्तों के सहयोग से कोलोन शहर के पड़ोसी शहर लेवरकूज़न के एक क्रिसमस बाज़ार को गैस सिलिंडर से भरे एक वैन द्वारा उड़ा देने की योजना बना रखी थी। हालत यह है कि आत्मरक्षा के नाम पर स्कूली बच्चों से लेकर बड़े-बूढ़ों तक, हर दिन अनगिनत लोग अपने साथ चाकू लेकर घर से निकलते हैं।
जर्मनी की आंतरिक गुप्तचर सेवा ''संविधान रक्षा कार्यालय'' का कहना है कि जर्मनी में रहने वाले कट्टर इस्लामपंथियों की संख्या लगभग 27 हज़ार हैं। उन में से कितने 'इस्लामी ख़लीफत (IS)' या 'अल क़ायदा' के भक्त हैं, यह इस गुप्तचर सेवा को भी मालूम नहीं है। जर्मनी के एक दूसरे सरकारी सुरक्षा विभाग 'संघीय अपराध निरोधक कार्यालय (BKA)' का कहना है उसके द्वारा दर्ज जर्मनी के ख़तरनाक इस्लामवादियों की संख्य अगस्त 2024 के आरंभ में 472 थी। उनमें से 96 इस समय जेल में हैं, 208 जेल से बाहर हैं और 168 जर्मनी से बाहर विदेश में हैं। 2023 में इन इस्लामवादियों की संख्या 483 और 2022 में 520 बताई गई।
लाखों निष्काषन नहीं हो पा रहेः 2023 के अंत तक 10,340 ऐसे सीरियाई जर्मनी में रह रहे थे, जिन्हें वास्तव में देश से निकाल दिया जाना चाहिए था। उनमें से केवल 829 ही निकाले जा सके। 2023 के अंत तक सभी देशों के ऐसे शरणार्थियों की संख्या 2,42,642 हो गई थी, जिन्हें जर्मनी से निकाला जाना चाहिये था। उनमें से 24,566 इराक़ी, (14,339 अफ़गानी, 13,523 तुर्क और 12,776 रूसी थे। 2023 के अंत तक विभिन्न देशों के कुल मिलाकर 82,937 ऐसे लोग जर्मनी में रह रहे थे, जिन्हें 6 वर्ष से भी अधिक पहले जर्मनी से चले जाना या उन्हें निकाल दिया जाना चाहिए था। मानवीय कारणों से उन्हें रहने दिया गया। इन सभी लोगों में से कौन कब स्वयं आतंकवादी बन गया या बन जाए, या इस्लाम के नाम पर किसी जिहादी को प्रश्रय देने लगे, कौन जान सकता है!
सरकारी आंकड़े यह भी बताते हैं कि जो शरणार्थी या आप्रवासी यूरोपीय संघ के ग्रीस, इटली या बुल्गारिया जैसी बाहरी सीमा वाले किसी देश के रास्ते से हो कर जर्मनी पहुंचते हैं, वे इसलिए लौटा दिये जाने चाहिए कि वे किसी न किसी बहाने से या तिकड़म भिड़ा कर प्रायः जर्मनी में ही रह जाते हैं। यदि वे जर्मनी से कभी जाते भी हैं या धक्के मार कर निकाल दिए जाते हैं, तब भी उनमें से बहुतेरे, देर-सवेर पुनः जर्मनी में वापस आ जाते हैं।
अरबी देश ग़ैर अरबों को शरण नहीं देतेः यूरोप-अमेरिका जैसे ग़ैर-मुस्लिम लोकतांत्रिक देश– भले अनिच्छा पूर्वक ही सही– अपने क़ानूनों के अनुसार मुस्लिम शरणार्थियों को फिर भी शरण, सुरक्षा व नागरिकता तक न केवल देते हैं, बड़ी संख्या में देते हैं। किंतु अरबी देश, जो स्वयं इस्लाम-भक्त हैं, ऐसे मुस्लिम शरर्णार्थियों को बिल्कुल ही शरण या नागरिकता नहीं देते, जो अरबी नहीं हैं; ग़ैर मुस्लिमों का तो प्रश्न ही नहीं उठता। न ही अरबों के इस नस्लवाद की कभी कोई चर्चा-आलोचना देखने-सुनने में आती है।
उल्लेखनीय यह भी है कि जो कोई मुसलमान नहीं है, इस्लाम की दृष्टि से वह ''क़ाफ़िर'' (ईश्वर-हीन) है। यानी अस्वीकार्य है, निंदनीय है। अतः होना तो यह चाहिए कि सच्चे मुसलमान क़ाफ़िरों के देश में जायें ही नहीं। पर वे मुस्लिम देशों के बदले क़ाफ़िरों के ही देशों में जाना और वहां फिर उसी शरिया और रहन-सहन का राग अलापना चाहते हैं, जिसे छोड़ कर अपने देश से भागे थे। दूसरों को दोष देने से पहले ईमानदारी से थोड़ा आत्ममंथन भी करलेना चाहिए।