क़रीब 5 प्रतिशत लोग अपने जीवनकाल में मौत से मिलकर लौट आने के अनुभवों से गुज़रते हैं, लेकिन शायद ही किसी को अपनी आपबीती सुनाते हैं। क्या वे सचमुच अपने जीवनकाल की कोई सिंहावलोकन फ़िल्म देखते हैं? विज्ञान क्या कहता है?
इतिहासशास्त्र में डॉक्टर की उपाधिधारी स्विट्ज़रलैंड की मग्दालेन ब्लेस ने वहां की एक टीवी-डॉक्यूमेंटरी फ़िल्म में बताया कि धार्मिक प्रश्नों में उनकी हमेशा से गहरी दिलचस्पी रही है। उनका मानना है कि ''सृष्टि का आधारभूत सिद्धांत करुणा और प्रज्ञा है। इसी को हम ईश्वर या परमात्मा कहते हैं। ईश्वर एक निरी आध्यात्मिक सत्ता है, न कि कोई स्थूल भौतिकता।''
प्रकाश से मिलन के अद्भुत क्षण : निकट-मृत्य के अपने निजी अनुभव के बारे में उन्होंने बताया कि उनके पिताजी एक दिन कार चला रहे थे और वे बगल वाली सीट पर बैठी थीं। ''सामने से बड़ी तेज़ी से एक दूसरी कार आई, और दोनों कारें टकरा गईं.... इसके बाद मुझे ऐसा लगा, जैसे परत-दर-परत मैं उस सबसे अलग हो रही हूं, जो मुझे अब तक प्रिय था। क्षण भर में मैं एक ऐसी ज़ोरदार भंवर की चपेट में आकर खिंचने लगी, जैसी नदियों में हुआ करती है।
अचानक मैंने अपनी सारी जीवनकथा एक फ़िल्म की तरह देखी। इस तेज़ी से, मानों सब कुछ एकसाथ ही घटित हुआ। जीवन के उस पार पहुंचते ही मैं चीज़ों के बीच के अंतरसंबंधों को समझने लगी। वहां धवल प्रकाश ही नहीं, उससे भी बढ़कर बहुत कुछ था। प्यार भरी गरमाहट थी। अपार ज्ञान और प्रज्ञान था। ऊर्जामय स्पंदनशील जीवंत प्रकाश था। किंतु प्रकाश से मिलन के इस अद्भुत क्षण में उसका वह अविरल प्रवाह थम गया, जिसमें मैं बह रही थी।
तभी मैं अपना नाम सुनकर चौंक गई। मेरे पिताजी मुझे बुला रहे थे। उनकी आवाज़ मैं पहचान गई। मैं तो सुखद प्रकाश में ही डूबी रहना चाहती थी, लेकिन यह भी महसूस कर रही थी कि मेरे पिताजी कितना डरे और घबराए हुए थे। मैंने यह भी देखा कि कुछ ही दिनों में मुझे दफ़नाया जाएगा, और सभी लोग रो रहे हैं...।''
विज्ञान इस तरह के वर्णनों को अब तक गंभीरता से नहीं ले रहा था। विज्ञान का सबसे बड़ा अज्ञान यही है कि वह भौतिक अस्तित्व वाली केवल ऐसी चीज़ों को ही स्वीकार कर पाता है, जिन्हें अपने अनेकानेक मंहगे और अत्यंत जटिल उकरणों से नाप-तौल सके। मृत्यु के क्षणों में कौन क्या देखता-सुनता है, यह मशीनों द्वारा अब तक नापा-तौला नहीं जा सका था, अतः विज्ञान के लिए उनका कथा-कहानियों से अधिक महत्व नहीं था।
...और क्या कहता है यह अध्ययन : अमेरिका में संयोगवश – न कि किसी सुनियोजित प्रयोगवश – कुछ ऐसा हुआ है, जिसके कारण अब विज्ञान को भी किसी हद तक यह मानना पड़ रहा है कि मृत्यु के अंतिम क्षणों में मरणासन्न व्यक्ति अपनी आंतरिक आंखों से अपने जीवन के विभिन्न अनुभवों की फ़िल्मों जैसी तस्वीरें देखता है। हुआ यह कि अमेरिका में लुइसविल शहर के एक अस्पताल में एक 87 वर्षीय बूढ़ा व्यक्ति भर्ती था। वह सिर के बल गिर जाने से घायल हो गया था। उसे बचाया नहीं जा सका। लेकिन, उसका इलाज कर रहे डॉक्टरों ने उसके मस्तिष्क के भीतर की स्थिति जानने के लिए उसे जिस मस्तिष्क तंरग लेखी (EEG- इलेक्ट्रोएनसिफ़ैलोग्राम) से जोड़ रखा था, उसे भूल से अंतिम क्षण तक हटाया नहीं।
'ईईजी' एक मशीन है, जो मस्तिष्क में चल रही विद्युतीय गतिविधियों को रिकॉर्ड करती है। रिकॉर्डिंग के दौरान ही मरीज को दिल का दौरा पड़ा और उसकी मृत्यु हो गई। तब तक मस्तिष्क में चल रहीं 15 मिनट की गतिविधियां दर्ज हो गई थीं। लुइसविल विश्वविद्यालय के न्यूरोसर्जन डॉ. अजमल ज़ेमर के नेतृत्व में एक टीम ने इस 'ईईजी' का अध्ययन किया, जिसे अब "फ्रंटियर्स इन एजिंग न्यूरोसाइंस" नाम की पत्रिका में प्रकाशित किया गया है।
डॉ. अजमल ज़ेमर बताते हैं- "हमने अपना ध्यान इस बात पर केंद्रित किया कि हृदयगति रुकने (कार्डियक अरेस्ट) से पहले और बाद के 30 सेकंड में क्या हुआ। हृदयगति रुकने से ठीक पहले और बाद में हमने तंत्रिका-दोलन (न्यूरॉनल ऑसिलेशन) की एक निश्चित आवृत्ति वाले दायरे (फ्रीक्वेंसी-रेंज) में ऐसा परिवर्तन देखा, जिसे गामा दोलन कहा जाता है। यही बात डेल्टा, थीटा, अल्फा और बीटा दोलनों के प्रसंग में भी थी।"
ये मस्तिष्क-तरंगें भी तंत्रिकातंत्र (नर्वस सिस्टम) की गतिविधियों का लयबद्ध पैटर्न बनाती हैं। भिन्न-भिन्न तरंगें भिन्न-भिन्न कार्यों से जुड़ी होती हैं। अध्ययन में वर्णित आवृत्ति वाले पैटर्न उन लोगों की मस्तिष्क-तरंगों जैसे ही हैं, जो ध्यान-साधना, यानी मेडिटेशन किया करते हैं, या जब कोई व्यक्ति बहुत एकाग्रचित्त होकर कुछ याद करता है। इससे यही संकेत मिलता है कि मृत्यु से कुछ क्षण पहले हमारा मस्तिष्क, विद्युत-आवेशी दोलनों द्वारा, जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं को "निकट-मृत्यु के अनुभवों के समान" ही अंतिम यादों के तौर पर पुनः जगाता है।
किंतु, जर्मनी में न्यूरेनबर्ग के विश्वविद्यालय अस्पताल में न्यूरॉलॉजी विभाग के निदेशक फ्रांक एर्बगुथ के लिए यह सब न तो किसी आश्चर्य का कारण है और न वे अमेरिकी अध्ययन के निष्कर्ष से संतुष्ट हैं। उनका कहना है, "यह कोई नई बात नहीं है कि मानव-मस्तिष्क कुछ परिस्थितियों में यादों की तस्वीरों वाली अपनी ही कोई दुनिया रच लेता है।" उदाहरण के लिए, अधकपारी (माइग्रेन) के रोगियों या मादक द्रव्यों के नशेड़ियों के साथ अक्सर ऐसा होता है। एर्बगुथ का मानना है कि "निकट-मृत्यु के अनुभव भी कई अन्य घटनाओं जैसे ही हैं, जिनमें मस्तिष्क स्वयं ही तस्वीरें बनाता है।" दूसरे शब्दों में, निकट-मृत्यु के अनुभव कोई दैवीय या आध्यात्मिक अनुभूतियां नहीं होते।
फ्रांक एर्बगुथ की मानें, तो मृत्यु के समय मस्तिष्क में क्या होता है, यह समझना आसान है। उस समय हमारी कोशिकाओं में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ जाती है: "इससे मस्तिष्क की विद्युत संचार प्रणाली में और चयापचय क्रिया (मेटाबॉलिज़्म) में बदलाव आते हैं। निकट-मृत्यु के अनुभव भी इन्हीं दोनों बातों पर आधारित हैं।" यही वे लोग भी अनुभव कर सकते हैं, जो ध्यान-साधना (मेडिटेशन) अच्छी तरह कर लेते हैं। उनके प्रसंग में भी 'ईईजी' से मस्तिष्क में विद्युत तरंगों का वैसा ही गामा-पैटर्न मिलता हैं, जैसा इस अमेरिकी अध्ययन में बताया गया है। एर्बगुथ कहते हैं: "गामा गतिविधियां इंगित करती हैं कि पुरानी यादें जगाई जा सकती हैं।" उल्लेखनीय है कि प्रति सेकंड 30 हेर्त्स के बराबर तरंग-दोलन को गामा तरंग कहते हैं।
2013 के एक अध्ययन ने चूहों में भी गामा तरंगों के ऐसे ही परिवर्तन दिखाए थे। उस समय अमेरिका के ही मिशिगन विश्वविद्यालय के शोधकों ने कुछ क्षणों के लिए चूहों की हृदयगति रोक दी। उन्होंने देखा कि हृदयगति रुकने के बाद वाले 30 सेकंड के भीतर उनके दिमाग़ में अचनक बड़ी तेज़ हरक़तें हुईं। इन हरकतों वाली कुछ विद्युत तरंगें उनकी जीवित अवस्था वाली तरंगों से भी बढ़-चढ़ कर थीं। इसे याद करते हुए वर्तमान अध्ययन के लेखकों का मत है कि हो सकता है कि मृत्यु के समय सभी प्रजातियों के मस्तिष्क में ऐसी ही प्रतिक्रिया होती हो।
उनका अपना अध्ययन, हालांकि केवल एक ही व्यक्ति पर आधारित है, जिसका मस्तिष्क घायल हो गया था और जिसे मिरगी के दौरे भी पड़े थे। "मिरगी के दैरे के समय मस्तिष्क में होने वाली गतिविधियों का मतलब यही है कि मस्तिष्क की बिजली कौंध उठी है," ऐसा जर्मनी के फ्रांक एर्बगुथ का कहना है। सामान्य म़ृत्यु के समय मस्तिष्क के बारे में इससे कोई ख़ास निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। वे मानते हैं कि कुल मिलाकर यह अध्ययन मरणासन्न मस्तिष्क के बारे में जानकारी का ऐसा एक और पक्ष ज़रूर है, जो अब तक की जानकारी से कहीं बड़ा है –– यानी, शरीर में रक्तसंचार यदि बंद हो जाता है, तो मस्तिष्क अपनी तंत्रिका कोशिकाओं के बीच संवाद रोक देता है। इसके बाद – जैसे कोई दिया बुझने से पहले एक बार तेज़ी से धधकता है – ठीक वैसे ही मस्तिष्क की अपनी विद्युत प्रणाली के साथ भी कुछ ऐसा होता है कि उसकी अपनी कोशिकाओं में क्षण भर के लिए बिजली कौंध जाती है।
कहा जा सकता है कि अमेरिकी न्यूरोसर्जन डॉ. अजमल ज़ेमर की टीम का नया अध्ययन भी इस प्रश्न का कोई दोटूक या बहुत सुलझा हुआ उत्तर नहीं देता, कि मृत्यु के अंतिम क्षणों में हम क्या देखते हैं और क्यों देखते हैं। पर यह भी कुछ कम महत्वपूर्ण नहीं है कि विज्ञान ने इस प्रश्न की ओर ध्यान देना शुरू कर दिया है, भले ही वह मशीनों वाले अपने भारी-भरकम मकड़जाल से बाहर नहीं निकल पा रहा है। मृत्यु के क्षणों की तस्वीरों को तंत्रिका वैज्ञानिक जीवन की पिछली घटनाओं का सिंहावलोकन भर मानते हैं, जबकि जो लोग पुनर्जिवित किए जा सके हैं, वे अपने अतीत ही नहीं, वर्तमान और अंशतः भविष्य के भी कुछ दृश्यों के देखे जाने का वर्णन करते हैं।
पुनर्जीवन चिकित्सा के अध्ययनों में पाया गया है कि दो-तिहाई लोगों ने मृत्यु वाले क्षणों में बहुत सुखद छवियां देखीं, जबकि एक तिहाई ने दुखद दृश्यों का वर्णन किया। अधिकतर लोगों को अपने अनुभव इतने आध्यात्मिक लगे कि वे पृथ्वी पर के सांसारिक जीवन में लौटना ही नहीं चाहते थे। आरंभ में वर्णित, इतिहासशास्त्र में डॉक्टर की उपाधिधारी स्विट्ज़रलैंड की मग्दालेन ब्लेस ऐसे ही अनेक में से एक उदाहरण हैं।