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नोबेल पुरस्कार एक ऐसी खोज के लिए, जो कोविड-19 का टीका बनी

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राम यादव

Nobel Prize Medicine: चिकित्सा विज्ञान का नोबेल पुरस्कार इस बार जिन दो वैज्ञानिकों को मिलना घोषित हुआ है, कह सकते हैं कि उन्होंने कोरोना वायरस वाले कोविड-19 के प्रकोप से बहुत पहले ही उससे बचाव के टीके की नींव रख दी थी। उनकी खोज यदि उपलब्ध नहीं रही होती, तो कोविड-19 के विभिन्न स्वरूपों से लड़ने वाले mRNA टीके को उस तेज़ी से बनाया नहीं जा सका होता, जिस तेज़ी से वह बना। नए टीके विकसित करने की उनकी यह तकनीक कैंसर जैसी कई अन्य़ बीमारियों की रोकथाम में भी सहायक हो सकती है।
 
अमेरिका में रह रहीं हंगरी की कातालन कारिको और जर्मन मूल के अमेरिकी ड्रू वाइसमान ने 'एमआरएनए' (मेसेंजर राइबोन्यूक्लिक एसिड/ mRNA) पर अपने शोध के साथ काफ़ी पहले इस तकनीक की नींव रख दी थी। कातालन कारिको के नाम को, हंगेरियन भाषा के नियमों के अनुसार, वास्तव में 'कारिको कातालन' कह कर पुकारा जाना चाहिए। दोनों वैज्ञानिक मिलकर कृत्रिम एमआरएनए को इस तरह बदलने में सफल रहे कि वह हमारे शरीर की रोग प्रतिरक्षा प्रणाली द्वारा नष्ट न हो, ताकि उसका उपयोग चिकित्सा संबंधी उद्देश्यों के लिए किया जा सके। 
 
कोविड-19 का टीका बनाने में योगदान : स्वीडन की नोबेल पुरस्कार समिति ने अपने वक्तव्य में कहा कि किसी नई विश्वव्यापी महामारी का खतरा अब भी पहले से कहीं अधिक है। अपनी खोजों से, इन दोनों पुरस्कार विजेताओं ने यह सुनिश्चित करने में निर्णायक योगदान दिया है कि कोविड-19 के प्रसंग में एमआरएनए पर आधारित टीका इतने कम समय में विकसित किया जा सका। पुरस्कार की घोषणा का समाचार मिलने पर कारिको ने कहा 'मैं बहुत अभिभूत हूं। निश्चित रूप से बहुत, बहुत खुश हूं।'
 
एमआरएनए हमारे शरीर की प्रत्येक कोशिका में होता है। यह चार अलग-अलग क्षारों (बेस) की एक श्रृंखला से बना होता है और कोशिका में आवश्यक प्रोटीन की संरचना के बारे में जानकारी संग्रहीत करता है। यदि हमारा शरीर किसी ऐसे एमआरएनए को पहचान लेता है, जो उसका अपना बनाया नहीं है, तो शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली एक रक्षात्मक प्रतिक्रिया शुरू कर देती है। बायोकेमिस्ट कारिको और इम्यूनोलॉजिस्ट वाइसमान ने फिलाडेल्फिया के पेंसिल्वेनिया विश्वविद्यालय में साथ मिलकर इस समस्या पर शोध किया। उनका लक्ष्य टीकों और दवाओं के लिए एमआरएनए का उपयोग करने में सक्षम होना था। उन्होंने पाया कि कृत्रिम रूप से उत्पादित एमआरएनए, जिसमें चार क्षारों में से एक को थोड़ा बदल दिया जाता है, शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली द्वारा पहचाना जाने से बच जाता है।
 
नए टीकों का विकास बहुत आसान हो गया : इस खोज से हमारे शरीर की कोशिकाओं को एमआरएनए के रूप में कुछ ख़ास प्रोटीनों का एक खाका (टेम्पलेट) देना संभव हो गया। इस जानकारी का उपयोग कोविड-19 के विरुद्ध एमआरएनए टीकों के विकास में किया गया। ऐसे खाके, कमज़ोर रोगजनकों या किसी तैयारशुदा प्रोटीन के साथ टीकाकरण करने के बजाय - जैसा कि अधिकांश पारंपरिक टीकों के साथ होता है - शरीर को कोरोनोवायरस वाले प्रोटीन की पहचान के लिए बस निर्देश भर प्रदान करते हैं। शरीर उससे लड़ने वाले वैक्सीन का उत्पादन स्वयं करता है। इससे नए टीकों का विकास बहुत आसान हो गया है। 
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कारिको अतीत में मिली कई असफलताओं को देखते हुए इस पुरस्कार से विशेष रूप से प्रसन्न हैं। एमआरएनए पर उनके शोध को लंबे समय तक बहुत कम वैज्ञानिक सराहना मिली थी। हंगरी में कारिको की प्रयोगशाला को पर्याप्त शोध-निधि भी नहीं मिलती थी। यही कारण है कि 1985 में वे अपने परिवार के साथ अमेरिका चली गईं। बारह साल बाद पेंसिल्वेनिया में उनकी मुलाकात वाइसमान से हुई, जो उस समय एचआईवी (AIDS) के खिलाफ टीका बनाने पर काम कर रहे थे।
 
दोनों ने मिलकर एमआरएनए (mRNA) पर शोध शुरू किया। कारिको अपने और वाइसमान के दृष्टिकोण का वर्णन करते हुए कहती हैं, 'सौ से अधिक संभावित संशोधन थे और हमने सोचा कि एक ऐसा भी हो सकता है, जो प्रतिरक्षण प्रतिक्रिया को ट्रिगर नहीं करेगा, बल्कि बहुत अधिक प्रोटीन का उत्पादन करने लगेगा।' सन 2000 वाले के दशक के मध्य में, डीएनए अनुसंधान, विज्ञान का एक मुख्य केंद्रबिंदु था, जबकि एमआरएनए पर बहुत कम ध्यान दिया जा रहा था। कारिको फिर भी अपने शोधकार्य में लगी रहीं। 
 
कोविड ने mRNA को सुर्खियों में ला दिया : दोनों शोधकर्ताओं को विश्वास था कि किसी वैश्विक महामारी के बिना भी कभी न कभी एमआरएनए टीके विकसित किए जाएंगे। उनके सौभाग्य से कोरोना वायरस फैलने के कारण अचानक इसकी जरूरत बहुत तेज़ी से बढ़ गई। भविष्य में एमआरएनए तकनीक का इस्तेमाल कोरोना के अलावा अन्य बीमारियों के लिए भी किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, फ्लू (इनफ्लुएन्जा) के विरुद्ध एमआरएनए-आधारित नए टीकों के विकास की बड़ी आशा है। ज़ीका वायरस जैसी उष्णकटिबंधीय बीमारियों के खिलाफ टीके भी निकट भविष्य में विकसित किए जा सकते हैं।
 
एमआरएनए केवल संक्रमणकारी बीमारियों से बचाव में ही भूमिका नहीं निभाएगा। उसके आधार पर, कैंसर के व्यक्तिगत उपचार के लिए ऐसे नए टीके विकसित किए जा सकते हैं, जिनकी मदद से शरीर की प्रतिरक्षण प्रणाली स्वयं ही ऐसे एंटीबॉडी (प्रतिजन) पैदा करेगी, जो विशेष रूप से कैंसर की कोशिकाओं से लड़ेंगे। हालांकि, यह भी सच है कि कैंसर के खिलाफ टीका बनाना किसी वायरस के खिलाफ टीकाकरण की तुलना में कहीं अधिक जटिल काम है। कैंसर के हर प्रकार का ट्यूमर (अर्बुद) अलग-अलग क़िस्म का होता है। यहां तक कि कैंसर की एक ही क़िस्म के भीतर भी ट्यूमर की कोशिकाओं में अंतर हो सकते हैं।
 
विरल बीमारियों के लिए भी उपयोगी : एमआरएनए तकनीक शायद ही कभी दिखने वाली उन बीमारियों के लिए भी महत्वपूर्ण है, जिनमें कुछ एंजाइम गायब रहते हैं। अब तक लगभग 10,000 ऐसी बीमारियों की पहचान की जा चुकी है, जो अपवाद कही जा सकती हैं। ऐसी बीमारियां अधिकांशतः आनुवंशिक सामग्री, यानी हमारे जीनों में छोटे-मोटे बदलावों के कारण होती हैं। ऐसी ही दो बहुत कम होने वाली, पर बहुत कुख्यात बीमारियां हैं सिस्टिक फाइब्रोसिस और डचेन मस्कुलर डिस्ट्रॉफी। इन रोगों में कुछेक प्रोटीन ग़ायब या ख़राब हो जाते हैं।
 
एमआरएनए तकनीक शरीर के प्रभावित प्रोटीन के लिए टेम्पलेट प्रदान करने और उन बीमारियों का इलाज करने में मदद कर सकती है, जिन्हें पहले असाध्य माना जाता था। शोधकर्ता कारिको को उम्मीद है कि उन्हें मिला पुरस्कार महिलाओं और युवाओं को सबसे अधिक प्रेरणा देगा। चिकित्सा विज्ञान में अब तक कुल मिलाकर 227 वैज्ञानिकों को नोबेल पुरस्कार मिल चुकें हैं; कारिको कातालन ऐसी केवल तेरहवीं महिला वैज्ञानिक हैं। नोबेल पुरस्कारों के जन्मदाता अल्फ्रेड नोबेल के मृत्यु दिवस, 10 दिसंबर को स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में पुरस्कार वितरित किए जाते हैं। पुरस्कार की धनराशि लगभग 10 लाख डॉलर होती है। एक से अधिक विजेता होने पर यह धनराशि उनके बीच बांट दी जाती है। 
 

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