अपने अवलोकनों के प्रकाश में खगोल भौतिकी के वैज्ञानिक अब कहने लगे हैं कि जीवन की उत्पत्ति के लिए ब्रह्मांड के अरंभकालीन महाविराट ब्लैक होल निर्णायक रहे हैं। नीदरलैंड के शहर ऊटरेश्त के एक अंतरिक्ष शोध संस्थान की महिला खगोलविद अरोरा सिमियोनेस्कू कहती हैं, ''इस बीच हम जानते हैं कि 10 से 12 अरब वर्ष पूर्व तारों का बनना बहुत तेज़ हो गया था। ठीक उसी समय ब्लैक होल भी बहुत अधिक सक्रिय हो गए थे। यानी, तारों का बनना और ब्लैक होल सक्रियता एक ही समय बहुत बढ़ गई थी। अरोरा सिमियोनेस्कू भी कन्या नक्षत्र वाली एम-87 मंदाकिनी के आस-पास की चीज़ों का अवलोकन करती रही हैं।
उनकी रुचि यह जानने में थी कि तारों के विस्फोटों से निकले रासायनिक तत्व दूर-दूर तक कैसे फैलते हैं और इस में ब्लैक होल कैसी भूमिका निभाते हैं। इसके लिए उन्होंने जापानी एक्स-रे उपग्रह 'सुज़ाकू' की सहायता से एम-87 और उसके आस-पास वाली दूसरी मंदाकिनियों, उनके बीच की ख़ाली जगहों तथा वहां से बहुत दूर के अंतरिक्ष में बिखरे हुए आरंभिक रासायनिक तत्वों की पहचान की। वे थे गंधक (सल्फ़र), मैग्नेसियम, सिलीसियम और लोहा (आयरन)। इन सभी तत्वों की मात्रा का अनुपात एम-87 मंदाकिनी के केंद्र में, और उससे बहुत दूर भी, क़रीब एक जैसा ही था। यहां तक कि हमारी आकाशगंगा और हमारे सौरमंडल में भी यही अनुपात है।
इसका अर्थ यही है कि जीवन की उत्पत्ति के लिए आवश्यक रासायनिक तत्व ब्रह्मांड में सब जगह लगभग एकसमान मात्रा में फैले हुए हैं। अरोरा सिमियोनेस्कू कहती हैं, ''वे चीज़ें, जो हमारी पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति के लिए आवश्यक थीं, वास्तव में सब जगह मौजूद हैं, ब्रह्मांड की दूरतम गहराइयों में भी... ये सारे तत्व 10 से 12 अरब वर्ष पूर्व तब बने थे, जब ब्रह्मांड अपनी किशोरावस्था में था। पर, इन तत्वों के आपस में मिश्रित होने के लिए समय ही नहीं, एक ऐसी शक्ति भी चाहिए थी, जो उन्हें मिश्रित करती। यह शक्ति बने अकूत द्रव्यराशि वाले उस समय के सक्रिय ब्लैक होल और उनसे निकले जेट।''
आरंभिक ब्रह्मांड की परिकल्पना : इस समय वैज्ञानिक 10 से 12 अरब वर्ष पूर्व के एक ऐसे ब्रह्मांड की परिकल्पना करते हैं, जिसमें तारे आदि, आज की अपेक्षा, दर्जनों गुनी तेज़ गति से बन रहे थे। हालांकि वे बनते थे और जल्द ही सुपरनोवा कहलाने वाले विस्फोटों के साथ बिखर भी जाते थे। हर विस्फोट के साथ अकूत मात्रा में रासायनिक तत्व ब्रह्मांड में दूर-दूर तक उछाल दिए जाते थे।
ये वही तत्व थे, जिनसे जीवन जन्म लेता है। लेकिन सुपरनोवा विस्फोटों से ये तत्व ब्रह्मांड में सब जगह एकसमान मात्रा में नहीं पहुंचते रहे होंगे। उन्हें ब्रह्मांड के कोने-कोने में पहुंचाने का काम प्रचंड द्रव्यमान वाले उसी समय के ऐसे ब्लैक होल्स ने किया होगा, जिनके जेट किसी मथनी की तरह इन तत्वों और उनसे बनी गैसों को मथते हुए उन्हें लाखों-करोड़ों प्रकाशवर्ष दूर तक ले गए होंगे। इसीलिए जीवन की उत्पत्ति और विकास के लिए आवश्यक तत्व अब ब्रह्मांड में सब जगह फैले हुए मिलते हैं।
वैज्ञानिक यह भी कहते हैं कि ब्लैक होल इन रासायनिक तत्वों को ब्रह्मांड में केवल फैलाते ही नहीं, वे नए बन रहे तारों की संख्या को भी अपने जेट द्वारा प्रभावित करते हैं। तारे इन जेट की अपेक्षा कहीं अधिक ठंडी गैसों और धूल के बदलों से बनते हैं। जेट अपने आस-पास की गैसों को मथते व गरम करते हुए उन्हें तारे बनने से रोकते हैं। इससे कम विकिरणधर्मी और बेहतर परिस्थितियों वाली ऐसी जगहें बनती हैं, जहां बाद में कभी जीवन पनप सकता है। इस बीच इसमें कोई संदेह नहीं रह गया दिखता कि हर मंदाकिनी अपने बीचोंबीच बैठे किसी विराट ब्लैक होल की परिक्रमा करती है। ऐसे ब्लैक होल ही ब्रह्मांड के विकास के मुख्य कारक व नियामक हैं।
ब्रह्मांड को रूपाकार देने में ब्लैक होल की भूमिका : ब्रह्मांड को रूपाकार देने में ब्लैक होल की भूमिका जर्मनी में भी खगोलभौतिकी संबंधी शोध का एक प्रमुख विषय है। म्यूनिक के पास गार्शिंग में स्थित खगोलभौतिकी के माक्स प्लांक संस्थान के वैज्ञानिक इस काम के लिए सुपर कंप्यूटरों का उपयोग करते हैं। फ़ोल्कर श्प्रिंगेल ऐसे ही एक वैज्ञानिक हैं। सुपर कंप्यूटर की सहयता से वे पता लगाते हैं कि अरबों वर्षों के अपने जीवनकाल में हमारा ब्रह्मांड कैसे-कैसे चरणों से गुज़रा है और इसमें में ब्लैक होल की क्या भूमिका रही है।
एक जर्मन टेलीविज़न चैनल के साथ बातचीत में उनका कहना था, ''कंप्यूटर सिम्युलेशनों से ही पता चला कि अत्यंत भारी ब्लैक होल मंदाकिनियों के बनने में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। वे इसे भी प्रभावित करते हैं कि कोई मंदाकिनी कितनी बड़ी होगी। ऐसी प्रक्रियाएं करोड़ों-अरबों वर्षों तक चलती हैं। लेकिन हम अपने सुपर कंप्यूटरों पर कुछेक मिनटों में ही देख और समझ सकते हैं कि क्या हुआ और कैसे हुआ।''
माक्स प्लांक संस्थान के वैज्ञानिकों ने कंप्यूटर-गणना शुरू करने के लिए वह समय चुना, जब 'बिग बैंग' कहलाने वाले महाधमाके को केवल 40 करोड़ वर्ष बीते थे। भावी बड़े-बड़े तारों के जमघट उस समय छोटे-छोटे टिमटिमाते बिंदुओं जैसे दिखे। डेढ़ अरब वर्ष बाद उनकी चमक बेहतर हो चुकी थी। पहली मंदाकिनियां बनने लगी थीं और ब्रह्मांड खुद भी बड़ा हो गया था। ढाई अरब वर्ष बाद तारों में सरगर्मी आने लगीं। कई में सुपरनोवा विस्फोट होने लगे और ब्लैक होल वाले जेट उनके पास-पड़ोस को बुरी तरह गरम करने लगे। ये जेट समय के साथ और अधिक विकराल, और अधिक शक्तिशाली होकर नए तारों का बनना रोकने लगे। कुछेक जेट करोड़ों प्रकाशवर्ष दूर तक पहुंचने लगे। अपने रास्ते में वे मुख्य रासायनिक तत्वों को फैलाते गए।
हम तारों की धूल के ही बने हैं : महाधमाके के कोई साढ़े सात अरब वर्ष बाद यह उथल-पुथल ठंडी पड़ने लगी। ब्रह्मांड में ठोस संरचनाओं, नए तारों, नए ब्लैक होल और ठंडी गैसों का बनना शुरू हुआ। मंदाकिनियों के बीच वाली गैसों में रासायनिक तत्वों के जमघट से बने बैंगनी रंग के बादल दिखई पड़ने लगे। 11 अरब वर्ष बाद सभी मंदाकिनियां 'ब्लैक मैटर' यानी अदृश्य काले द्रव्य से घिरती गईं। ब्रहमांड का फैलना जारी रहा।
कंप्यूटर अनुकरण यह भी दिखाते हैं कि कार्बन का और गरंम गैसों तथा ऑक्सीजन, नाइट्रोजन जैसे जीवन के लिए अवश्यक तत्वों का अरबों वर्षों तक ब्रहमांड में फैलना चलता रहा। उदाहरण के लिए, एक से एक विराटकाय ब्लैक होल वाली मंदाकिनियां, दूर-दूर तक के पदार्थ को अपनी तरफ खींचती हैं। इस खींच-तान से भी आग की लपटों जैसे मरोड़ खाते लंबे-लंबे जेट पैदा होते हैं। वे गैसीय अवस्था के रासायनिक तत्वों को आपस में मिश्रित करते हुए उन्हें अकल्पनीय दूरियों तक बिखेरते हैं।
जर्मनी के खगोल भैतिकी माक्स प्लांक संस्थान में इस तरह के कंप्यूटर अनुकरण करने वाले फ़ोल्कर श्प्रिंगेल के शब्दों में, ''सिद्धांततः हम तारों की धूल के ही बने हैं। तारों में जब-जब विस्फोट होता है, तो यह सामग्री मुक्त होती है। अपने कंप्यूटर अनुकरणों में हम गैसों के प्रवाह के साथ इस सामग्री के फैलाव को साफ़-साफ़ देखते हैं। अत्यंत भारी ब्लैक होल इस खेल के मुख्य खिलाड़ी हैं। वे ही इन गैंसों को एक बड़े दायरे में फैलाते हैं। इन गैंसों में वे भारी तत्व भी होते हैं, जिनसे जीवन की उत्पत्ति हो सकती है।''
हमारी पृथ्वी वाली आकाशगंगा को भी इसी तरह से जीवनदायी तत्व मिले हैं। खगोलविद मानते हैं कि उसके बीच में बैठे एक ब्लैक होल ने, अरबों वर्ष पूर्व, आकाशगंगा में तारों की संख्या एक सीमा से अधिक नहीं होने दी। इस कारण सुपरनोवा भी अपेक्षाकृत कम ही बने और हानिकारक विकिरण वाली जगहें भी कम ही पैदा हुईं। आकाशगंगा के जीवन के लिए अनुकूल एक ऐसे ही भाग में हमारा सौरमंडल भी है। यही कारण है कि पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति और उसके विभिन्न रूपों का फलना-फूलना मानो पूर्व निश्चित था।
मंदाकिनियों के केंद्र में ब्लैक होल बैठा होता है : जर्मनी के ही बॉन शहर के पास 3000 टन भारी विश्व का दूसरा सबसे बड़ा रेडियो टेलिस्कोप है। 100 मीटर व्यास वाले अपने डिश-एन्टेना द्वारा वह हमारी आकाशगंगा के ठीक बीच से आ रही रेडियो तरंगें भी दर्ज करता है। यहां माक्स प्लांक संस्थान की रेडियो एस्ट्रोनॉमी शाखा के अंटोन सेन्ज़ुस अपनी टीम के साथ पता लगा रहे हैं कि मंदाकिनियों के केंद्र में बैठे ब्लैक होल अपने पास-पड़ोस को किस तरह प्रभावित करते हैं। उनका कहना है, ''हम लगभग तय मानते हैं कि कोई मंदाकिनी कितनी बड़ी है और उसकी क्या विशेषताएं है, इसका सीधा संबंध उसके बीच में स्थित ब्लैक होल की विशेषताओं से, विशेषकर उसके द्रव्यमान से है।''
हमारी आकाशगंगा वाले ब्लैक होल का द्रव्यमान, यानी भार, हमारे सूर्य के द्रव्यमान से 40 लाख गुना अधिक है। वह आरंभ में चर्चित एम-87 ब्लैक होल की अपेक्षा, पृथ्वी से काफ़ी निकट है। तब भी, पृथ्वी और उसके बीच अनगिनत तारों और घने गैसीय बादलों के कारण उसका अवलोकन टेढ़ी खीर है। वैज्ञानिक इतना ही जानते हैं कि अपनी गुरुत्वाकर्षण शक्ति के द्वारा वह अपने पास के तारों को बांधे हुए है और आकाशगंगा को छिन्न-भिन्न होने से रोके हुए है। वह नहीं होता, तो हमारी आकाशगंगा का अस्तित्व भी नहीं होता।
बॉन का रेडियो टेलिस्कोप भी विश्वव्यापी 'इवेन्ट हॉराइज़न टेलिस्कोप' शोध परियोजना का एक हिस्सा है। 'एम-87' वाले ब्लैक होल के घटना-क्षितिज का फ़ोटो बन सकने में उसका भी योगदान है। वैज्ञानिक इस फ़ोटो को अब और अधिक बारीक़ियों-भरा बनाना चाहते हैं, ताकि साफ़ पता चल सके किसी ब्लैक होल वाले जेट कहां बनते हैं और तारों के बनने को कैसे प्रभावित करते हैं। इतना तय है कि ब्लैक होल ही अपनी गतिविधियों द्वारा किसी ग्रह-उपग्रह पर जीवन के जन्म लेने और पनपने को संभव बनाते हैं।
ब्रह्मांड में जीवन का जन्म कैसे हुआ : इसके पीछे का सिद्धांत यह है कि 10 अरब वर्ष पूर्व ब्रह्मांड अपने आज के आकार के मात्र एक-तिहाई के बराबर था। उस समय सूर्य जैसे बहुत सारे ऐसे तारे पैदा हुए, जो सुपरनोवा विस्फोटों की बलि चढ़ गए। रह गए भारी मात्रा में मूलतत्व। वे सब जगह एकसमान नहीं फैले। महाविराट ब्लैक होल अपनी अपार ऊर्जा लगाकर मंदाकिनियों की रचनाएं करने लगे। अपने जेटों के द्वारा वे इन तत्वों को आपस में मिश्रित करने और दूर-दूर तक फैलाने लगे। इस तरह जीवन के जन्म का आधार बना। आज हम अपने शरीर सहित पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, कीट-पतंगों या बैक्टीरिया-वायरस सहित जीवन के जितने भी अनगिनत रूप-रंग पृथ्वी पर पाते हैं, उनके के पहले बीज, आज से 10 अरब वर्ष पूर्व, ब्लैक होल ने ही बोए थे। वही बीज 4 अरब 60 करोड़ वर्ष पूर्व हमारे सौरमंडल में भी पहुंचे थे।
उसी समय हमारे सूर्य के निकटवर्ती अंतरिक्ष में छोटे-बड़े आकाशीय पिंड़ों के आपस में विलय से आज के ग्रहों-उपग्रहों का बनना शुरू हुआ था। सूर्य से बहुत दूर वाले हिस्से में इतनी ठंड थी कि वहां गैस, पानी और कार्बन की अधिकता वाले बृहस्पति और शनि जैसे ग्रह बने। बच गए थे बहुत छोटे आकार वाले क्षुद्रग्रह (ऐस्टेरॉइड)। क़रीब 4 अरब वर्ष पू्र्व हाईड्रोजन और कर्बन से भरे इन क्षुद्रग्रहों की पृथ्वी पर एक तरह से बम्बारी हुई थी।
उल्का (मेटेओराइट) कहलाने वाले उनके टुकड़े भी बड़ी संख्या में पृथ्वी पर गिरते रहे। वे ही पृथ्वी पर पानी और कार्बनिक सामग्री लाये। जर्मनी में म्यूनिक विश्वविद्यालय के टोमास कारेल और उनकी टीम जानना चाहती थी कि उस समय की परिस्थितियों में पृथ्वी पर DNA और RNA जैसी आनुवंशिक सामग्री कैसे बनी होगी।
प्रकृति ख़ुद ही जीवन को प्रथमिकता देती है : टोमास कारेल का कहना है कि ''एक अनुमान तो यह था कि यह अपने ढंग का अकेला संयोग था। पृथ्वी पर पानी का होना, सूर्य और चंद्रमा से उसकी अनुकूल दूरी तथा कई दूसरी परिस्थितियां इतनी आदर्श थीं कि पूरे ब्रह्मांड में यहीं पहली बार आनुवंशिक इकाइयां अपने आप बन गईं। लेकिन, हम पाते हैं कि आनुवंशिक इकाइयां अपेक्षाकृत कहीं अधिक और अपेक्षाकृत साधारण परिस्थितियों के बीच मेल बैठने से बनी होंगी। बहुत कुछ वैसे ही, जैसे गुरुत्वाकर्षण के नियम के अनुसार, गेंद हमेशा नीचे ही गिरती है।'' टोमास कारेल ने इसे प्रमाणित करने के लिए अपनी प्रयोगशाला में, आदिकालीन परिस्थितियों की बहुत ही
साधारण-सी नकल के द्वारा, RNA के चारों घटक एडिनिन, साइटोसिन, गुआनिन और युरासील बना कर दिखाए। उनका मानना है कि यदि भू-भौतीकीय परिस्थितियां अनुकूल हों, तो प्रकृति ख़ुद ही जीवन-रचना की आनुवंशिक इकाइयों के निर्माण को हर जगह प्राथमिकता देती है। ऐसा पृथ्वी पर ही नहीं, कहीं भी हो सकता है।
इस बीच हमारी अपनी ही आकाशगंगा में हज़ारों बाह्य ग्रहों की खोज हो चुकी है। हमारी अकाशगंगा की तरह की अरबों मंदाकिनियां हमारे ब्रह्मांड में हैं। इसलिए यह हो नहीं सकता कि हमारी पृथ्वी ही एक ऐसी जगह है, जहां जीवन फल-फूल रहा है। कहीं न कहीं एलियंस भी ज़रूर हैं। रेडियो खगोल विज्ञान के जर्मन प्रोफ़ेसर हाइनो फ़ाल्के भी चकित हैं कि कुछ थोड़े से प्राकृतिक नियम ही इसके लिए पर्याप्त हैं कि हमारी पृथ्वी पर जीवन ज़िंदाबाद है। वे कहते हैं, ''हम अब भी नहीं जानते कि ये नियम कहां से आए? किसने बनाए?'' वे मानते हैं कि इस रहस्य को विज्ञान कभी सुलझा नहीं पाएगा।