Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

जब सर्वशक्तिमान स्टालिन तिल-तिल कर मरा

हमें फॉलो करें Stalin
webdunia

राम यादव

Story of Dictator Joseph Stalin: स्टालिन दुनिया के इतिहास का, हिटलर की तरह ही, एक सबसे बड़ा खलनायक था। एक-चौथाई सदी तक उसने भूतपूर्व सोवियत संघ पर राज किया— हिंसा, आतंक और अपनी व्यक्तिपूजा के बल पर। एक ऐसा तानाशाह, जो किसी भूत की तरह इतिहास के पन्नों में आज भी घूम रहा है। मॉस्को के 'क्रेमलिन' कहलाने वाले दुर्ग में उसका सिंहासन हुआ करता था। उसे अब व्लादिमीर पूतिन सुशोभित करते हैं।
 
मॉस्को के केंद्र से 15 किलोमीटर दूर, एक उपवन के बीच, पेड़ों के पीछे छिपा हुआ एक-दूसरे से जुड़े कुछेक मकानों का एक ऐसा समूह है, सशस्त्र पहरेदार जिसकी रखवाली करते थे। मॉस्को के कुंत्सेवो कहलाने वाले इस उपनगर में स्थित ये मकान अब रूस के राष्ट्रपति-कार्यालय के अधीन हैं।

उन्हें देखकर लगता नहीं कि यहां मार्च 1953 से कोई रहता ही नहीं। मुख्य भवन के कमरे इस तरह करीने से सजे-संवारे हुए लगते हैं, मानो मालिक कुछ समय के लिए ही कहीं गया है, बस आने ही वाला है। सब कुछ करीने से रखा हुआ है। एकदम साफ़-सुथरा है। मकड़ियों का कहीं कोई जाल नहीं। धूल-धक्कड़ का कहीं नाम नहीं।
 
शहर की आपाधापी से परे, प्रकृति की गोद में रहने की रूस में 'दाचा' कहलाने वाली यह जगह ही एक लंबे समय तक स्टालिन के जीवन का केंद्रबिंदु रही। अपने से 25 साल छोटी, अपनी दूसरी पत्नी नदेज़्दा की मृत्यु के बाद से स्टालिन 1933 से लगभग हर दिन क्रेमलिन और कुंत्सेवो के बीच फेरे लगाता था।
 
पत्नी ने आत्महत्या कर ली : नदेज़्दा ने स्टालिन के साथ एक झगड़े के बाद, नवंबर 1932 में, क्रेमलिन में ही दोनों के साझे घर में, पिस्तैल से गोली मारकर आत्महत्या कर ली थी। वह स्टालिन की क्रूरताओं से तंग आगई थी। उसकी मृत्यु का मूल कारण छिपाने के लिए कहा गया कि अपेंडिसाइटिस से, यानी आंत्रपुच्छ के सूज कर फट जाने से उसकी मृत्यु हुई। इस झूठ को मानने से मना करने वाले सभी डॉक्टरों को स्टालिन के इशारे पर गोली मार दी गई।  
 
स्टालिन, भूतपूर्व सोवियत संघ में सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचा ही नहीं होता, यदि रूस में ज़ारशाही (सम्राटशाही) को उखाड़ फेंकने वाली 1917 की समाजवादी क्रांति के नेता, व्लादिमीर लेनिन की केवल 53 वर्ष की आयु में, जनवरी 1924 में असमय मृत्यु नहीं हो गई होती। दोनों के बीच पहली लंबी बातचीत 1907 में जर्मनी की राजधानी बर्लिन में हुई थी। स्टालिन की आयु उस समय 29 साल थी। लेनिन की कृपा से 1922 में स्टालिन को सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव का प्रभावशाली पद मिल गया। लेनिन की मृत्यु होते ही स्टालिन ने सत्ता स्वयं हथियाने के सारे दांवपेंच लगाने शुरू कर दिए। 
webdunia
स्टालिन बना लेनिन का उत्तराधिकारी : पहला दांव था, अपने आप को लेनिन का सच्चा उत्तराधिकारी दिखाना। लेनिन के शव को दफ़नाने के बदले, स्टालिन ने मॉस्को के लाल चौक पर एक मकबरा बनवाया। शव को विकृत होने से बचाने के लिए विशेष प्रकार के प्रलेपों आदि से उसे चिरकालिक बनाया गया। कांच के एक ताबूत में बंद कर उसे मकबरे में इस तरह रखा गया, कि मकबरा लेनिन के दर्शन का तीर्थस्थान बन जाए। लेनिन को श्रद्धांजलि देने के साथ-साथ जनता मन- ही- मन स्टालिन की भी जय-जयकार करे। यही नहीं, पूरे सोवियत संघ में पहले लेनिन की और जल्द ही स्टालिन की भी एक-से-एक बड़ी मूर्तियां लगाई जाने लगीं।
    
दूसरे दांव में, पहले तो लेनिन की वसीयत लुप्त कर दी गई। इसके बाद लेनिन के सभी निकट सहयोगी भी ग़ायब होने लगे। दिखावटी मुकदमे आदि चलाकर ऐसे सभी लोगों का सफ़ाया कर दिया गया, जो संपूर्ण सत्ता हथियाने की राह में स्टालिन के लिए रोड़ा बन सकते थे। उन्हें मार डाला गया या ख़ून-पसीना बहा कर काम करते हुए मरने के लिए— हिटलर के यातना शिविरों की तरह के— रूसी साइबेरिया के 'गूलाग' कहलाने वाले श्रमशिविरों में भेज दिया गया। रूसी इतिहासकारों का अनुमान है कि साइबेरिया के श्रमशिविरों और स्टालिन के सनकी सफ़ाई अभियानों ने कम से कम 2 करोड़ लोगों की बलि ली।
 
कुछ लोग इस बात के लिए स्टालिन की फिर भी सरहना करते हैं, कि द्वितीय विश्वयुद्ध के समय उसके नेतृत्व में सोवियत संघ ने हिटलर को हराया और लगभग पूरे पूर्वी यूरोप को हिटलर के आधिपत्य से मुक्ति दिलाई। यह बात सच है, पर इससे स्टालिन के असंख्य काले कारनामों की कालिख धुल नहीं जाती। 
 
घंटी बजाकर बुलाता था : समय बीतता रहा। जनता और स्वयं अपने सगे-संबंधियों तथा परिवार के सदस्यों के साथ भी स्टालिन की नीचता चलती रही। और तब आया 1953 की 28 फ़रवरी का दिन —74 साल के हो गए योसेफ़ स्टालिन के जीवन का एक और सामान्य दिन। वह एक शनिवार था। तत्कालीन कम्युनिस्ट सोवियत संघ का यह यमराज उस सुबह अपने 'दाचा' में देर तक अपनी पार्टी का मुखपत्र 'प्राव्दा' (सच्चाई) पढ़ता रहा। प्राव्दा पढ़ने के बाद, नित्यप्रति के समान उस दिन भी, स्टालिन ने घंटी बजाकर अपने पहरेदारों को इशारा किया कि रोज़मर्रा के कामों का समय अब हो गया है। अंगरक्षकों और पहरेदारों को बुलाने के लिए कुंत्सेवो में हर जगह घंटियां बजाने के बटन लगे थे।
 
सोवियत गुप्तचर सेवा 'केजीबी' की ओर से वहां तैनात 100 से अधिक पहरेदार और अंगरक्षक स्टालिन के इशारों पर नाचने के लिए अभिशप्त थे। रत्ती भर भी भूलचूक जीवन-मरण का प्रश्न बन सकती थी। सुबह के नाश्ते के बाद स्टालिन कुछ समय तक हवाख़ोरी के लिए बाहर जाया करता था। इसके बाद घंटों अपने काम में व्यस्त रहता था। वह बहुत क्रूर ही नहीं, परम दर्जे का शक्की भी था। 'दाचा' से निकलने से पहले हमेशा अपनी पिस्तौल कोट की जेब में रख लिया करता था।
 
अपनी पसंद की फिल्में भी बनवाता था : 1953 की 28 फ़रवरी के दिन भी पहले यही सब किया। इसके बाद क्रेमलिन जाने के लिए अपनी कार में बैठा। कुंत्सेवो से क्रेमलिन पहुंचने में 20 मिनट लगते थे। स्टालिन अपनी देख-रेख में अपनी पसंद की फिल्में भी बनवाता था। बन जाने पर देखता था कि उनमें उसकी महानता का उसी तरह प्रस्तुतीकरण और यशगान हुआ है या नहीं, जैसा वह चाहता है।
 
28 फ़रवरी 1953 के दिन भी क्रेमलिन के विशेष सिनेमा हॉल में उसने ऐसा ही एक फ़िल्म शो रखा था। साथ में सोवियत गुप्तचरसेवा 'केजीबी' का प्रमुख लावरेंते बेरिया, उप-प्रधानमंत्री गेओर्गी मालेंको, मार्शल निकोलाई बुल्गानिन और कम्युनिस्ट पार्टी की केंद्रिय समिति के सचिव निकिता ख्रुश्चेव भी बैठे हुए थे। उस समय इन चार लोगों का यही चौगुटा स्टालिन की सबसे विश्वासपात्र मंडली हुआ करता था। 
 
फ़िल्म रात 10 बजे तक चली। फ़िल्म के बाद स्टालिन कार से कुंत्सेवो के लिए रवाना हो गया। कार किस रास्ते से हो कर जाएगी, इसे परम शक्की स्टालिन अपने ऊपर किसी हमले के डर से हमेशा अंतिम क्षण में ख़ुद तय किया करता था। कभी-कभी, उसी के कहने पर, उसकी कार जैसी ही एक दूसरी कार में बैठा, हूबहू उसी के जैसा दिखने वाला एक बहुरूपिय़ा भी, मॉस्को की सड़कों पर देखा जाता था। 
 
विश्वासपात्र चौगुटा : स्टालिन रात में देर तक जागने का आदी था। अक्सर मेहमानों को भी बुलाया करता था। पिछले क़रीब छह महीनों से उसके विश्वासपात्र चौगुटे के सदस्य़ ही उसके रात्रिकालीन मेहमान हुआ करते थे। उनके पास कोई चारा भी नहीं था। बॉस ने बुलाया है, तो मना कैसे करें! मना किया, तो ख़ैरियत नहीं! हर रात एक ही कार्यक्रम होता था— खाना, पीना, नाचना। स्टालिन से सभी डरते थे। उसकी बेतुकी हंसी-ठिठोलियों की वाहवाही करते थे। जानते थे कि कोई भी, कभी भी, जेल की किसी काल कोठरी में, या सीधे यमलोक भी पहुंच सकता है।
 
स्टालिन ख़ुद भी डरता था। उसे यह डर रहता था कि कहीं उसके अपने ही लोगों में से कोई उसे ज़हर न दे दे! 28 फ़रवरी, 1953 वाली उस रात स्टालिन के 'दाचा' वाले आवास में खाना, पीना और नाचना सुबह होने तक चलता रहा। अंततः जब चारों मेहमानों ने विदा ली, तब तक 5 बजने जा रहा था। नशे की हल्की ख़ुमारी के साथ स्टालिन भी अपने बिस्तर पर लेट गया। तब तक तारीख़, रविवार 1 मार्च 1953 हो चुकी थी।
 
वह एक नया दिन था। लेकिन, इस बार स्टालिन के लिए हमेशा की तरह का कोई सामान्य दिन नहीं था। उसके सेवक, अंगरक्षक व पहरेदार रात-दिन, चौबीसों घंटे, घंटी की उस आवाज़ पर कान लगाए रखते थे, जिसके द्वारा स्टालिन संकेत देता था कि वह क्या चाहता है। वे जानते थे कि उनके भाग्य का यह पार्थिव विधाता, हर दिन 11 बजे के आस-पास, घंटी बजाकर उन्हें संकेत दिया करता है कि अपने दैनिक कार्य-कलापों के लिए अब वह तैयार है।
 
जब घंटी नहीं बजी : रविवार, 1 मार्च 1953 के दिन न तो 11 बजे, और न उसके बाद बहुत देर तक कोई घंटी बजी। सभी लोग घंटी बजने का इंतज़ार करते रहे। किसी की भी हिम्मत नहीं पड़ रही थी कि वह स्टालिन के शयनकक्ष तक जाता, दरवाज़े को धीरे से खोलकर भीतर झांकता कि स्टालिन उठ गया है या नहीं। सभी डर रहे थे कि कहीं ऐसी कोई ग़लती न हो जाए कि उनकी अपनी ही गर्दन फंस जाए। 
 
तीसरे पहर के तीन बज गए, और तब भी कोई घंटी नहीं बजी। सभी सेवकों, अंगरक्षकों और पहरेदारों को मन ही मन संदेह होने लगा कि कुछ गड़बड़ है। लेकिन, उनसे कहा यही गया है कि स्टालिन के आदेश के बिना वे उसके कमरे में पैर नही रखेंगे। वे जानते थे, या सुन रखा था, कि स्टालिन कितना निर्दय अत्याचारी है। लाखों-करोड़ों की जान ले चुका है। लेनिन के साथियों को ही नहीं, अपने भी अनेक रिश्तेदारों और साथियों को परलोक पहुंचा चुका है। सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी की केंद्रिय समिति के 1935 में निर्वाचित लगभग सभी सदस्यों का उसके आदेश पर सफ़ाया कर दिया गया था। यानी, यदि असमय मरना नहीं है, तब स्टालिन से डरना तो पड़ेगा ही! 
webdunia
अंत का आरंभ : स्टालिन के किसी संकेत की बाट जोहते-जोहते शाम के छह बज गए। तभी अचानक उसके कमरे की बत्ती जली। सबने राहत की सांस ली। कुछ देर बाद उसके कमरे से कुछ गिरने की आवाज़ आई। किंतु, उसके बाद न तो कोई घंटी बजी और न कोई आावाज़ ही सुनाई पड़ी। किसी को भी ऐसा नहीं लगा कि स्टालिन के कमरे से कुछ गिरने की जो आवाज़ आई थी, वह बिस्तर पर से उसके गिरने की आवाज़ हो सकती है। यही हुआ था। वह अब अपने कमरे में बिस्तर से फ़र्श पर गिर गया था। कमरे का दरवाज़ा खोलकर भीतर झांकने की हिम्मत तब भी किसी को नहीं हो रही थी।
 
क्रेमलिन का डाकिया हर दिन देर शाम स्टालिन के लिए डाक लाया करता था। 1 मार्च 1953 वाली शाम को जब वह डाक लेकर आया, तो उसकी लाई डाक स्टालिऩ को देने के लिए एक अंगरक्षक ने स्टालिन के कमरे का दरवाज़ा खोलने का साहस जुटाया। दरवाज़ा खोलते ही उसने जो कुछ देखा, उसे देखकर एकदम सन्न रह गयाः स्टालिन फ़र्श पर पड़ा था। होश में था, पर बोल नहीं पा रहा था। जैसे-तैसे यही इशारा कर पाया कि उसे उठाया जाए। 
 
डॉक्टर को बुलाने से मना किया गया : पहरेदारों ने स्टालिन को उठाकर सोफ़े पर लिटा दिया। गुप्तचर सेवा 'केजीबी' के प्रमुख लावरेंते बेरिया को फ़ोन किया। पूछा कि क्या हम डॉक्टर को बुलाएं। ऐसी स्थिति में कोई भी डॉक्टर को ही बुलाता। किंतु, बेरिया ने कहा, 'नहीं, बिल्कुल नहीं। हम लोग तुरंत आ रहे हैं।' 'हम लोग' का अर्थ था, स्टालिन के नज़दीकियों का वह चौगुटा, पिछली पूरी रात जिसने स्टालिन के साथ बिताई थी।   
 
उनके आने से पहले, पहरेदारों ने स्टालिन को उठाकर मकान के सबसे बड़े हॉल में रखे एक दूसरे सोफ़े पर लिटा दिया। स्टालिन तब तक बेहोश हो चुका था। उसके कथित चारों विश्वासपात्रों बेरिया, मालेंको, बुल्गानिन और ख्रुश्चेव वाला चौगुटा भली-भांति जानता था कि स्टालिन किसी का सगा नहीं है। किसी को भी, किसी भी समय दगा देकर अपना शत्रु घोषित कर सकता था। वे कुंत्सेवो की तरफ़ चल तो पड़े, पर नहीं जानते थे कि वहां उन्हें क्या देखने को मिलेगा। वे केवल यही जानते थे कि उनसे कोई ग़लती कतई नहीं होनी चाहिए। 
(अगली कड़ी में पढ़ें : वीभत्स अत्याचारों और घिनौने पापों का भंडाफोड़)

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

उज्जैन रीजनल इंडस्ट्री कॉन्क्लेव में भोपाल, इन्दौर, उज्जैन सहित 20 जिलों के 56 प्रोजेक्ट का होगा भूमि-पूजन और लोकार्पण