मुल्ला अब्दुल गनी बरादर (Mullah Abdul Ghani baradar) की हालांकि अफगानिस्तान की सत्ता के प्रमुख के तौर पर आधिकारिक ताजपोशी अभी नहीं हुई है, लेकिन यह तय माना जा रहा है कि बरादर ही अफगानी सत्ता के प्रमुख होंगे। जल्द ही इसकी घोषणा भी कर दी जाएगी। 1996 से 2001 तक तालिबानी राज के दौरान भी मुल्ला बरादर ने अहम भूमिका निभाई थी।
बरादर तालिबान का राजनीतिक प्रमुख और इसका सबसे बड़ा पब्लिक फेस है। मुल्ला को तालिबान का दूसरा सबसे बड़ा नेता भी माना जाता है। 53 साल के मुल्ला का जन्म 1968 में उरुजगान प्रांत (अफगानिस्तान) में हुआ था। बरादर तालिबान के सह-संस्थापक हैं।
बरादर ने अपने पूर्व कमांडर और बहनोई, मोहम्मद उमर के साथ कंधार में एक मदरसा कायम किया। 1994 में मुल्ला उमर की अगुवाई में तालिबान का गठन किया था। हालांकि इसका उद्देश्य शिक्षा था, लेकिन धीरे-धीरे यह संगठन कुख्यात आतंकवादी संगठन में तब्दील हो गया। बरादर ने 1980 में सोवियत संघ के खिलाफ लड़ाई लड़ी।
मुल्ला बरादर के बारे में कहा जाता है 2001 में अमेरिका के अफगानिस्तान में हमले के बाद से वह अफगानिस्तान छोड़कर भाग गया था। वर्ष 2010 में मुल्ला बरादर को पाकिस्तान में गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया था। 2018 में अमेरिकी हस्तक्षेप के बाद उसे छोड़ा गया। अगस्त 2021 में अफगानिस्तान में तालिबान के कब्जे के बाद मुल्ला बरादर काबुल लौटा।
अमेरिका से बातचीत : इसी दौरान अमेरिका ने तालिबान के साथ बातचीत की कोशिशें तेज कीं। इसके बाद से बरादर ने कतर के दोहा में तालिबान के राजनीतिक दफ्तर की कमान संभाली। अमेरिका के साथ बातचीत में मुल्ला ने अहम भूमिका निभाई थी। बरादर ने साल 2020 फरवरी में अमेरिका के साथ दोहा में हुए समझौते पर दस्तखत किए, जिसे ट्रम्प प्रशासन ने शांति की दिशा में एक कामयाबी के तौर पर देखा था। इस बातचीत में एक-दूसरे से नहीं लड़ने की बात कही गई थी। तब तालिबान और अशरफ गनी सरकार के बीच सत्ता शेयरिंग की बात भी उठी थी।
काबुल पर कब्जे के बाद बोला बरादर : तालिबान द्वारा काबुल पर कब्जा करने के बाद मुल्ला ने कहा कि यह कभी उम्मीद नहीं की गई थी कि अफगानिस्तान में हमारी जीत होगी। अब हमारे लिए परीक्षा का समय है। हमारे लिए अपने राष्ट्र की सेवा और सुरक्षा की सबसे बड़ी चुनौती है। साथ ही लोगों को स्थिर जीवन भी किसी चुनौती से कम नहीं है।
चुनौतियां भी कम नहीं : हालांकि तालिबान सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना है। साथ वर्षों से जारी संघर्ष को भी रोकना होगा। एक अनुमान के मुताबिक इस संघर्ष के दौरान 2 लाख 40 हजार अफगानियों की मौत हो चुकी है।