शुम्भत्प्रभा-वलय-भूरि-विभा-विभोस्ते लोक-त्रये द्युतिमतां द्युतिमाक्षिपन्ती।
प्रोद्यद्दिवाकर-निरंतर-भूरि-संख्या दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोम-सौम्याम् ।। (34)
हे प्रभो! तीनों लोकों के कांतिमान पदार्थों की प्रभा को तिरस्कृत करती हुई आपके मनोहर भामंडल की विशाल कांति एक साथ उगते हुए अनेक सूर्यों की कांति से युक्त होकर भी चंद्रमा से शोभित रात्रि को भी जीत रही है।